श्री नहुष चन्द्रवंशीय प्रभावशाली राजा थे। इनके पिता का नाम आयु एवं माता का नाम स्वर्भानवी था। चन्द्र के पुत्र बुद्ध, बुद्ध के थे पुरूरवा एवं पुरूरवा के पुत्र आयु । पुरुरवा चन्द्रवंश के प्रथम राजा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
‘विश्वकोष’ में नहुष की पत्नी का नाम ‘अशोक सुन्दरी’ तथा आशुतोष देव के ‘बंगला अभिधान’ में उनकी पत्नी का नाम ‘विरजा’ निर्देशित किया गया है। महाराज नहुष के छः पुत्र थे – यति, ययाति, शर्याति (संयाति), आयाति (आयति), वियति तथा कृति । राजा नहुष बड़े न्यायपरायण तथा तेजस्वी स्वभाव के राजा थे। इन्होंने अपने कठोर शासन के द्वारा दुष्ट व्यक्तियों का दमन किया था। इसीलिये सभ्य प्रजा इनके शासन में सुखपूर्वक रहती थी। इन्होंने अपनी शक्ति के प्रभाव से तुण्ड नामक एक भीषण दैत्य का वध किया था। त्रिलोक का तमाम ऐश्वर्य तपस्या के प्रभाव से आपकी मुट्ठी में आ गया था। अज्ञान से गो-वध करने पर भी अपने पुण्य के प्रभाव से आप इसके पाप से लिप्त नहीं हुये। ऐसा भी कहा जाता है कि प्रयाग तीर्थ में जल के अन्दर तपस्या में रत महर्षि च्यवन को मछुआरों ने मछलियों के साथ जाल में उठा लिया और महाराज नहुष के पास बेच दिया था। अपने पुण्यों के फल से आप स्वर्ग में गये थे।
देवराज इन्द्र जिस समय वृत्रासुर के वध के कारण ब्रह्म-हत्या से हुए पाप से मुक्ति पाने के लिये मानसरोवर में लक्ष्मी जी से संरक्षित होकर कमल की नाल के तन्तु के अन्दर एक हज़ार वर्ष तक रहे थे, उस अवधि में स्वर्ग पर शासन करने के लिये देवताओं व महर्षियों ने नहुष को ही स्वर्ग का अधिपति बनाया था। किन्तु स्वर्ग के ऐश्वर्य के मद में मत्त होकर नहुष धीरे-धीरे काम-परायण व विलासी बन गये । यहाँ तक कि देवराज इन्द्र की पत्नी श्रीशची देवी को भी भोग करने की दुष्प्रवृत्ति उनके अन्दर आ गयी । ऐसा देख देवगुरु वृहस्पति, देवतागण तथा ऋषि समाज चिंतित व मर्माहत हो गये । चूँकि इन्होंने ही राजा नहुष को अशेष गुणों से गुणान्वित देखकर उनसे स्वर्ग का अधिपति बनने के लिये अनुरोध किया था, परन्तु सारा कुछ अपने हित के विपरीत देखकर वे अनुतप्त हो उठे । यद्यपि इन्होंने राजा नहुष को ऐसे घृणित कार्यों से हटाने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु सारा प्रयत्न व्यर्थ ही रहा। इधर इन्द्राणी शचीदेवी ऐसी विपत्ति से बचने के लिए देवगुरु वृहस्पति के शरणापन्न हुई । वृहस्पति जी ने शचीदेवी को विपत्ति से उद्धार का आश्वासन दिया व उसे युक्ति समझायी कि वह नहुष को कहे कि वह उनकी इच्छा पूरी करने को तैयार है परन्तु वे उसके पास ऋषियों से वाहित अर्थात ऋषियों द्वारा जुती पालकी पर बैठकर आयें।
शचीदेवी ने नहुष के पास उक्त प्रस्ताव भेज दिया। प्रस्ताव पाकर कामान्ध नहुष ने भी उन्हीं ऋषियों के कन्धों पर चढ़कर शचीदेवी के पास जाने का संकल्प लिया, जिन्होंने उसे स्वर्ग का अधिपति बनाया था। ऋषियों ने इसे नहुष का प्रमाद समझा। ऋषियों द्वारा वहन की जाने वाली पालकी में जब नहुष जा रहे थे तो रास्ते में उनका ऋषियों से किसी मन्त्र के सम्बन्ध में तर्क-वितर्क हो गया। तर्क-वितर्क करते-करते नहुष थोड़ा अस्वाभाविक अवस्था में आ गये कि तभी उनका पैर अगस्त्य मुनि के सिर पर लग गया। सिर पर पैर लगने से अगस्त्य मुनि क्रोधित हो उठे और उन्होंने नहुष को ‘सर्पयोनि को प्राप्त हो जाओ’ कहकर अभिशाप दे दिया।
अभिशाप के फल से नहुष सर्प-योनि को प्राप्त होकर द्वैत वन में गिरे।
” पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद् द्विजैः।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ||”
भा09/18/3
इन्द्रपत्नी शची के प्रति धृष्टता का व्यवहार करने के कारण नहुष को स्वर्ग से भ्रष्ट होकर अगस्त्यादि ऋषियों के द्वारा अजगर योनि प्राप्त हुई। पिता नहुष को अजगर योनि प्राप्त होने के कारण उनके पुत्र ययाति राजा बने।
‘तावत् त्रिणाकं नहुषः शशास विद्यातपोयोगबलानुभावः।
स सम्पदैश्वर्यमदान्धबुद्धि- नीतस्तिरश्चां गतिमिन्द्रपत्न्या।’
– भा06/13/16
नहुष द्वारा अत्यन्त भयभीत एवं सन्तप्त होकर अगस्त्य मुनि पुन: पुन: क्षमा मांगने पर करुणा परवश होकर मुनि ने कहा ‘युधिष्ठिर महाराज आपको शाप से मुक्त करेंगे। जब युधिष्ठिर महाराज आपके प्रश्नों का सही-सही जवाब देंगे तब आप सर्प योनि से मुक्ति प्राप्त करेंगे।’
नहुष के पाप विमोचन का प्रसंग महाभारत के वन-पर्व के 79 से 81 तक के तीन अध्यायों में विस्तृत रूप से वर्णित हुआ है। पाण्डवों के द्वैतवन में रहने के समय एक दिन भीमसेन आखेट खेलने के लिए गये थे कि वहीं एक महाशक्तिशाली अजगर के चंगुल में फँस गये। बहुत चेष्टा करने पर भी बलशाली भीम अपने-आपको सर्प की लपेट से छुड़ा न सके तो अति – विस्मित हो गये और उन्होंने सर्प को अपना वास्तविक परिचय देने को कहा। भीम की बात सुनकर अजगर ने कहा कि वह भूखा है, इसलिए उसे खाना चाहता है। सर्प के इस प्रकार के उत्तर को सुनकर भीम को अपनी मृत्यु की तो चिन्ता न हुई परन्तु वे यक्षों व राक्षसों से भरे जंगल में भाईयों की रक्षा के लिये व्याकुल हो उठे। इधर महाराज युधिष्ठिर जी नाना प्रकार के भयंकर अपशकुन देखने लगे। भीम जब बहुत समय तक नहीं आये तो युधिष्ठिर बहुत चिन्तित हो उठे। तत्पश्चात धनन्जय को द्रौपदी की रक्षा के लिये रखकर तथा नकुल व सहदेव को ब्राह्मणों की रक्षा का भार देकर स्वयं धौम्य’ के साथ भीम की खोज में निकल पड़े।
काफी रास्ता तय करने के बाद उन्होंने देखा कि ऊसर भूमि पर एक अजगर ने भीमसेन को जकड़ा हुआ है। चार दाँतों वाला अजगर अति – भयंकर था, उसका रंग सुनहरा व मुँह गुफा की तरह था। भीमसेन से सर्प के चंगुल में फंसने का सारा वृतान्त सुनने के बाद युधिष्ठिर महाराज ने महासर्प को अपना ठीक-ठीक परिचय देने को कहा। अपना परिचय देते हुए सर्प ने कहा – ‘मैं तुम्हारा पूर्व-पुरुष सोमवंशीय आयु राजा का पुत्र हूँ। मेरा नाम नहुष है। यज्ञ व तपस्या के बल से मैंने त्रिलोकी का ऐश्वर्य प्राप्त किया था। मैं स्वर्ग का अधिपति भी बना था परन्तु ऐश्वर्य प्राप्त करने के बाद मुझे घमण्ड हो गया और मैंने अपनी पालकी को ढोने के लिए एक हज़ार ब्राह्मणों को लगवा दिया था। ब्रह्मर्षि, देवता, गन्धर्व व राक्षस आदि त्रिलोकी के जीव मुझे कर दिया करते थे। मैं दृष्टि के द्वारा ही सभी का तेज हरण कर लेता था। एक दिन अगस्त्य मुनि जब मेरी पालकी का वहन कर रहे थे तो उसी समय दैववशतः मेरा पैर उनके शरीर पर लग गया और उन्होंने ‘सर्प योनि को प्राप्त हो जाओ’ – कहकर मुझे अभिशाप दिया। उसी से मेरी ये दुर्गति हुई। मेरे द्वारा नाना प्रकार के स्तव करने से वे सन्तुष्ट हुये तथा कहने लगे कि युधिष्ठिर महाराज तुम्हारा उद्धार करेंगे। यदि आप मेरे प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे पायेंगे तो मैं भीमसेन को नहीं खाऊँगा, इन्हें छोड़ दूँगा।’
युधिष्ठिर महाराज ने जब उसके प्रश्नों को जानना चाहा तो सर्प ने पहले उनसे दो प्रश्नों का उत्तर जानना चाहा।
ब्राह्मण कौन हैं ?
वेद्य क्या हैं ?
इनके उत्तर में युधिष्ठिर महाराज कहने लगे –
सत्य, दान, क्षमाशीलता, अक्रूरता, तपस्या व दया – जिनमें दिखाई दें, वही ब्राह्मण हैं।
जो सुख-दुःख रहित हैं तथा जिनको जानने से मनुष्य शोक को प्राप्त नहीं होता, वे परब्रह्म ही वेद्य हैं ।
इस प्रकार महासर्प के साथ कुछ समय युधिष्ठिर महाराज जी के प्रश्नोत्तर हुये । युधिष्ठिर महाराज से सभी प्रश्नों के सही-सही उत्तर पाकर नहुष प्रसन्न हुये तथा सोचने लगे कि मनुष्य शूर और सुबुद्धि होने पर भी प्रायः ऐश्वर्य के घमण्ड में मत्त होकर पतित हो जाता है, इसके उदाहरण वे स्वयं ही हैं। तत्पश्चात् नहुष ने भीमसेन को छोड़ दिया और स्वयं शाप – मुक्त होकर दिव्य देह धारण की ।
‘ हैहयो नहुषो वेणो रावणो नरकोऽपरे ।
श्रीमदादभ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्य नरेश्वराः ।।
भा0 10/73/20
प्राचीन काल में भी कार्तवीर्य, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर एवं अन्यान्य अनेक देव, दैत्य तथा राजा, सम्पदा से उत्पन्न होने वाले घमण्ड से अपने पद से भ्रष्ट हुये हैं।
मनु – संहिता में भी लिखा है कि नहुष घमण्ड के कारण विनष्ट हुये थे ‘वेणो विनष्टोऽविजयान्नहूषद्वैव पार्थिव। मनु – 7/41
ऋक् संहिता में भी नहुष को आयु का पुत्र व ययाति का पिता कहा गया है।
(ऋक् 1-31-11, 10-63-1)
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चन्द्रवंशीय – चन्द्र से उत्पन्न पुरुष-परम्परा चन्द्रवंश कहलाती है। जनक, कुरु, यदु इत्यादि का वंश । ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि सप्तऋषियों में एक हैं । अत्रि के पुत्र हैं चन्द्र।
सप्तऋषि-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ तथा पुलस्त्य।
धौम्य – धौम्य ऋषि असित ऋषि के पुत्र हैं। युधिष्ठिर ने इन्हें प्रधान पुरोहित के रूप में वरण किया था।
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