श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज का संक्षिप्त परिचय

‘ऊदाहरण उपदेश से श्रेष्ठ है’ – यही आपकी प्रचार-शैली थी। जो कोई भी आपके श्रेष्ठ व्यक्तित्व के संपर्क में आया उसने आपकी जीवों के प्रति करुणा, पूर्ण वैराग्य, पूर्ण सहिष्णुता, गहन आध्यात्मिक आनंद, श्री गुरु में अनन्य विश्वास और श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति पूर्ण भक्ति एवं समर्पण के भाव को स्पष्ट रूप से देखा। आप शास्त्रों के सिद्धांतों से बिंदुमात्र भी विचलित न होने के लिए जाने जाते हैं। आपके सभी के प्रति अनुरागशील स्वभाव और गुरु-वैष्णवों की सेवा के प्रति समर्पण जैसे गुणों के लिए आप कई गौड़ीय संस्थाओं के आचार्यों के लिए आदर्श हैं।

प्रारंभिक जीवन
परम पूज्यपाद श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज का शुभ आविर्भाव वर्ष 1924 में भारत के असम राज्य के ग्वालपाड़ा नामक ग्राम में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्र की शुभ प्रकट तिथि, श्रीरामनवमी के पावन अवसर पर हुआ। श्रील गुरुदेव, पिता श्रीधीरेन्द्र कुमार गुहराय तथा माता श्रीमति सुधांशु बाला गुहराय को अवलम्बन कर इस धरा पर आविर्भूत हुए। माता-पिता द्वारा प्रदत्त उनका नाम, श्रीकामाख्या चरण था। बाल्यावस्था से ही उनमें अध्यात्म की ओर स्वाभाविक आकर्षण था व जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने की तीव्र लालसा थी।वे दीनता, गुरु-जन एवं शिक्षक गण के प्रति आज्ञाकारिता, सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता जैसे असाधारण गुणों से विभूषित थे। उनकी मृदु-भाषिता सबको आकर्षित करती थी। अन्यान्य बालकों की भांति वे खेलकूद में समय व्यर्थ नहीं करते थे। उनका घर जिस हुलुकांदा पर्वत की तलहटी में था उसी पर्वत के प्रायः मध्य के निर्जन प्रान्त में प्रवाहित जल-स्त्रोत के पास एक प्राचीन शिव मन्दिर है। श्रील गुरुदेव वहाँ जाकर कई घंटों तक शिवजी का ध्यान करते थे। वे अपना अधिकांश समय ध्यान में व्यतीत करते थे।अध्यात्म की ओर उनका स्वाभाविक आकर्षण उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्ययन के लिए ले आया। उनके सहपाठी-छात्र उनमें असाधारण सत्यवादिता, सौम्यता, द्वेष-शून्यता आदि उनके स्वभाव-सुलभ गुणों का अनुभव करते थे। श्रील गुरुदेव उनसे ज्ञान-गर्भित बातें करते व उन्हें संसार की अनित्यता एवं विभिन्न योग-प्रक्रियाओं के विषय में शिक्षा देते थे।

सद्गुरु चरणाश्रय-ग्रहण
ग्वालपाड़ा में आयोजित एक धर्म-सम्मेलन में हरिकथा श्रवण के माध्यम से श्रील गुरुदेव परम पूज्यपाद परमगुरु-पादपद्म श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज के सम्पर्क में आये तथा उनके अपूर्व तेजोमय, दिव्य कांति युक्त गौर-वर्ण, आजानुलम्बित बाहु, समृद्ध अद्भुत कलेवर एवं अन्यान्य महापुरुषोचित लक्षण सम्पन्न अतिमर्त्य व्यक्तित्त्व से अति प्रभावित हुए। कोलकाता विश्वविद्यालय से वर्ष 1947 में दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि (M.A.) प्राप्त करने के पश्चात्, उन्होंने अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से अपने श्रीगुरुदेव, श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज की सेवा में समर्पित किया। श्रील माधव गोस्वामी महाराज शुद्ध-भक्ति के प्रवर्तक, जगत्-गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के प्रिय शिष्यों में से एक हैं। उनके अदम्य उत्साह, दृढ़ संकल्प, असाधारण कौशल व सेवा-कार्यों में उनकी दक्षता व सफलता को देखकर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद उन्हें ‘Volcanic Energy’ (ज्वालामुखीय ऊर्जा) कह कर सम्बोधित करते थे। श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने शुद्ध-भक्ति शिक्षा-संस्थान, ‘श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ’ की स्थापना की, जिसकी भारत में 24 से अधिक शाखाएँ हैं।

श्रीगुरु-पादपद्म में आत्मसमर्पण करते हुए श्रील गुरुदेव ने श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज के निकट वर्ष 1947 में श्रीहरिनाम और वर्ष 1948 में दीक्षा मन्त्र ग्रहण किए। दीक्षा मन्त्र ग्रहण करने के पश्चात् वे श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी नाम से परिचित हुए। कृष्ण-भक्ति के अप्राकृत साम्राज्य में वैष्णव मर्यादा का सर्वोत्तम आदर्श स्थापित कर वे गुरु-वैष्णवों के अति प्रिय हुए।

श्रील गुरुदेव ने अपने गुरुदेव की शिक्षाओं को अक्षरशः पालन कर एक सद्शिष्य का आदर्श स्थापित किया एवं अथक सेवाभाव के साथ श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ संस्थान की गतिविधियों में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उनकी सेवा-निष्ठा व समर्पण के भाव को देखकर उनके गुरुदेव ने शीघ्र ही उन्हें संस्था के सचिव के रूप में नियुक्त किया और वर्ष 1961 में उनको सात्वत शास्त्रों के विधान के अनुसार त्रिदण्ड-संन्यास प्रदान किया। संन्यास के बाद आप पूरे विश्व में त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज के नाम से विख्यात हुए। भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा आचरित एवं प्रचारित शुद्ध-भक्ति शिक्षा के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से अपने गुरुदेव के साथ उन्होंने 30 से भी अधिक वर्षों तक भारत के विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण किया।

उनके गुरुदेव ने अपने प्रकट काल में ही उन्हें संस्थान के अगले आचार्य के रूप में मनोनीत किया। एक अवसर पर श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने कहा था, “संस्थान के भविष्य के विषय में हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, मैं जिन्हें आचार्य पद पर नियुक्त करके जा रहा हूँ, वे अत्यन्त दीन हैं एवं वे मुझसे भी अधिक प्रचार करेंगे।” 1979 में श्रील माधव गोस्वामी महाराज के अप्रकट के बाद श्रील गुरुदेव को संस्थान के आचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया।

भारत में शुद्ध-भक्ति प्रचार
अपने श्रीगुरुदेव की वाणी को स्थापित करते हुए श्रील गुरुदेव ने अत्यन्त दीनता के साथ नित्यप्रति गुरु, वैष्णव तथा शास्त्र-वाणी के अनुकीर्तन में रत रहकर मठ-संस्थान के उत्तरदायित्व को सुचारू रूप से सँभालते हुए ‘आचरण ही उत्तम प्रचार है’—इसी शैली में मठ की शिक्षाओं का व्यापक प्रचार किया। उनके अत्यन्त स्नेह-पूर्ण व्यवहार, आकर्षक व्यक्तित्व, विशुद्ध-भक्तिमय आचरण ने, उनके सम्पर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को जीत लिया।

कृष्ण-विस्मृति ही जीवों के सभी दुःखों का मूल कारण है, अतः जीवों में भगवद्-स्मृति के उद्दीपन के उद्देश्य से, श्रील गुरुदेव ने आसाम, बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, पंजाब, चंडीगढ़, उत्तर-प्रदेश, उत्तरांचल व महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में स्थापित प्रायः 20 से भी अधिक प्रचार केन्द्रों में स्वयं प्रवचन देकर, संकीर्तन के माध्यम से, मठवासी भक्तों की प्रचार-मण्डली भेजकर तथा विभिन्न नगर व गाँव में गृहस्थ-भक्तों को साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक अथवा विशेष-विशेष तिथि में एकत्रित होकर संकीर्तन व ग्रन्थ-चर्चा के लिए उत्साहित करके शुद्ध-भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने बंगाली भाषा में ‘मासिक’, हिन्दी भाषा में ‘द्विमासिक’, उड़िया भाषा में ‘त्रैमासिक’ व ‘अंग्रेज़ी’ भाषा में ‘अर्द्ध-वार्षिक’ पत्रिकाओं के माध्यम से, स्वरचित व संकलित तथा सम्पादित ग्रन्थों के द्वारा एवं Video-conferencing के द्वारा श्रीमद्भगवद् गीता, श्रीमद्भागवतम् तथा श्रीचैतन्य चरितामृत आदि ग्रन्थों के उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। उनके द्वारा किए गए प्रचार के फलस्वरूप विश्व के अनेक नर-नारीगण उनके चरणाश्रित हुए।

अति भाग्यवान भक्तों ने श्रील गुरुदेव के अनुगत्य में श्रीनवद्वीप धाम व श्रीब्रजमण्डल परिक्रमा के विराट आयोजन का लाभ उठाया। श्रील गुरुदेव के कीर्तन उनके अलौकिक-भावावेश के दर्शन करने का अवसर प्रदान करते थे। कीर्तन में उनकी दिव्य-उन्मत्ता सभी को रोमांचित कर देती व परम आनन्द की बाढ़ में डुबो देती। उनके गुरुवर्ग परमपूज्यपाद श्रील श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज कहते थे, “श्रील तीर्थ महाराज के कीर्तन में स्वयं गौर-नित्यानन्द नृत्य करते हैं।”

श्रील गुरुदेव का सुमधुर स्मित व स्नेह-आप्लावित व्यवहार सर्वाकर्षक था। सम्पूर्ण वैष्णव जगत उन्हें गौड़ीय-वैष्णव-गगन के देदीप्यमान सूर्य के रूप में स्वीकार करता है।

चैतन्य सन्देश का विश्वव्यापी प्रचार
श्रील गुरुदेव विदेश में श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रचार करें, इसी उद्देश्य से मठ के संस्थापक परम गुरुदेव, परम पूज्यपाद श्रीश्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज ने स्वयं उन्हें जर्मन भाषा सीखने का आदेश दिया था। अपने गुरुदेव के अप्रकट होने के अनेक वर्षों के उपरान्त, भक्तों द्वारा पुनः-पुनः अनुरोध किए जाने पर श्रील गुरुदेव ने अपनी विदेश-प्रचार यात्रा के सम्बन्ध में उनका अभिमत व परामर्श जानने के लिए अपने शिक्षागुरु परम पूज्यपाद, श्री श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज के श्रीचरणों में निवेदन किया। महाराजश्री के अभिमत से अवगत होकर, उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके श्रील गुरुदेव ने पूरे विश्व में भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार का संकल्प लिया।

वर्ष 1997 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित ‘World Conference On Religion And Peace’ एवं ‘World Peace Prayer Society’ में उन्होंने विश्व-शांति के लिए वैदिक सिद्धान्तों पर आधारित एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की। उनके मधुर और विनम्र व्यक्तित्व से सभी प्रतिभागी अत्यन्त प्रभावित हुए।

विविध स्थानों, जैसे कि विश्वविद्यालय, अन्तर्जातीय संघ, गिरजाघर, मन्दिर, आध्यात्मिक शिक्षा-केन्द्रों में हुए प्रचार कार्यों के दौरान श्रील गुरुदेव के अनेक कैथोलिक, प्रोटेस्टैंट, यहूदी, मुस्लिम, हिन्दू और बहाई धर्मशास्त्रियों के साथ रोमांचक वार्तालाप भी हुए।

उनके मृदु, स्नेहमय स्वभाव एवं हरि-गुरु-वैष्णव में सुदृढ़ निष्ठा ने सब का मन जीत लिया। उन्होंने कई रेडियो और टेलीविजन कार्यक्रमों पर भी श्रीचैतन्य महाप्रभु की उदात्त शिक्षाओं का प्रचार किया। वर्ष 2000 में उन्होंने BBC रेडियो पर एक विचार-प्रेरक साक्षात्कार दिया जो पूरे विश्व में प्रसारित किया गया था।

श्रील गुरुदेव ने शुद्ध-भक्ति प्रचार के उद्देश्य से ब्रिटेन, हॉलैंड, इटली, स्पेन, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, स्लोवेनिया, फ्रांस, रूस, यूक्रेन, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, हवाई और अमेरिका सहित पच्चीस देशों में भ्रमण किया। शुद्ध-भक्ति शिक्षाओं के विश्वव्यापी प्रचार के उद्देश्य से श्रील गुरुदेव ने वर्ष 1997 में GOKUL—Global Organisation of Krishnachaitanya’s Universal Love—संस्था की स्थापना की।

गुरु-वैष्णवों की सेवा के प्रति श्रील गुरुदेव का समर्पण वैष्णव जगत् में एक उत्तम आदर्श है। वर्ष 2011 में श्रीधाम मायापुर में हुए उनके संन्यास के पचास वर्ष पूर्ति महोत्सव में विभिन्न संस्थाओं से पचास से अधिक आचार्यों ने भाग लिया। इसके अतिरिक्त अनेक संन्यासी, ब्रह्मचारी तथा असंख्य गृहस्थ भक्तों ने भी इसमें भाग लिया। मायापुर में इतनी बड़ी संख्या में वैष्णव-आचार्यों एवं भक्तों का समागम एक अभूतपूर्व घटना थी।

अन्तरंग लीला एवं समाधि
श्रील गुरुदेव ने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी का अविराम प्रचार करने के पश्चात् भौमलीला के प्रायः अन्तिम पांच वर्षों में अति गुह्यतम अन्तरंग लीला का प्रकाश किया। कार्तिक मास वर्ष 2012 में उन्होंने श्रीधाम मायापुर में विराजित रहते हुए भक्तों को प्रतिदिन हरिकथामृत पान का सुयोग प्रदान किया। मायापुर मठ में स्थित राधाकुण्ड एवं श्यामकुण्ड के तट पर उनके द्वारा किए गए, ‘राधाकुण्ड तट कुन्ज कुटीर’ कीर्तन का गान आज भी भक्तों के हृदय पटलों पर अंकित है जिसकी स्मृति उन्हें दिव्य आह्लाद व रोमांच का अनुभव कराती है।

वर्ष 2013 से श्रील गुरुदेव में अप्राकृत प्रेम-उन्मत्ता के अलौकिक व अचिन्तनीय भाव और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकाशित होने लगे। वे प्रतिदिन अपने गुरुदेव की भजन कुटीर में उनके दर्शन के लिए जाते और उनके साथ आन्तरिक वार्तालाप करते। ये भाव इतने प्रबल थे कि वहाँ उपस्थित सभी के हृदय को स्पर्श कर उन्हें अप्राकृत आनन्द की अनुभूति कराते थे। श्रील गुरुदेव दर्शन-अभिलाषी भक्तों को अति विनम्र स्वर में कहते, “मैं परम आराध्यतम श्रील गुरुदेव को निरन्तर स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ। आप श्रीभगवान् से मेरे लिए प्रार्थना करें। वे आपकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे, किसी भी मुहूर्त में मेरे प्राण छूट सकते हैं।”

व्रज गोपियां जिस प्रकार कृष्ण के वियोग में भी सतत कृष्ण-लीला स्मरण के द्वारा सदैव कृष्ण का संग कर रहीं थी उसी प्रकार श्रील गुरुदेव ने भी अपनी अन्तिम लीला में व्रज के विरहात्मक भजन के उत्कर्ष को प्रकाशित किया। श्रील गुरुदेव के इन चिन्मय विरह-विह्वल भावों को एक शरणागत निष्कपट शिष्य ही हृदयंगम करने में सक्षम हो सकता है।

इसी वर्ष के अन्तिम चरण में श्रील गुरुदेव ने अपनी अप्राकृत प्रेम-उन्मत्ता के बाह्य लक्षणों को सम्पूर्ण रूप से अप्रकाशित करने की लीला का आविष्कार किया। इस जगत् में उनके आदान-प्रदान को उन्होंने विराम दे दिया व पूर्ण रूप से अपने आराध्य की अन्तरंग सेवा के आस्वादन में नियोजित हुए। अगले ४ वर्षों तक गम्भीर अस्वस्थता का अभिनय करते हुए श्रील गुरुदेव ने शरणागत शिष्यों व प्रियजनों को अत्यधिक सेवा का सुयोग प्रदान किया।

वर्ष 2017 में अपनी भौम-लीला के अन्तिम आठ दिनों में श्रील गुरुदेव ने भक्तों को अपने निकट आकर्षित कर उनमें दिव्य भाव संचारित कर उन्हें अविरल नाम-संकीर्तन में नियोजित किया। कोलकाता मठ में उस समय के मनमोहक परिवेश के विषय में वर्णन करते हुए परम पूज्यपाद श्रील भक्ति निकेतन तुर्याश्रमी महाराज ने कहा, “श्रील प्रभुपाद के कई शिष्यों के नित्य-लीला में प्रवेश करते समय, मुझे उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने देखा कि दूर-दूर से उनके शिष्य उनके पास आते, सेवा के लिए कुछ प्रणामी देते और एक-दो दिन के बाद अपने घर लौट जाते। किन्तु श्रील महाराज के विषय में मैं देख रहा हूँ कि जो कोई व्यक्ति उनके दर्शन के लिए आ रहा है, वह अपने घर-परिवार की चिन्ता छोड़कर उनके पास ही रहकर प्रीतियुक्त समर्पण भाव के साथ उनकी सेवा कर रहा है। अपने पूरे जीवनकाल में, मैंने इस प्रकार का कोई दृश्य नहीं देखा। श्रील महाराज ने बहुत उदार भाव से अपने प्रेम, स्नेह व कृपा को सर्वत्र वितरण किया, और उसी का निदर्शन करा रहे हैं भक्तों के उनके प्रति इस प्रकार के समर्पण और कृतज्ञ भाव।”

20 अप्रैल रात्रि 10:15 घटिका में, निरंतर हो रहे श्रीनाम-संकीर्तन, श्रीमद्भगवद् गीता, श्रीमद्भागवतम्, श्रीचैतन्य चरितामृत, श्रीचैतन्य भागवत के पाठ के मध्य में, श्रील गुरुदेव अपने प्रिय कीर्तन ‘राधा-कुण्ड तट कुन्ज कुटीर’ को श्रवण करते हुए, अपनी भौम-लीला का परित्याग कर श्रीश्रीराधा-गोविन्द की नित्य-लीला में प्रवेश कर गए। 22 अप्रैल, शनिवार, श्रीवरुथिनी एकादशी के पावन अवसर पर आपकी दिव्य समाधि के अनुष्ठान का आयोजन श्रीधाम मायापुर में किया गया। आपके महा-अभिषेक और समाधि अनुष्ठान में सम्मिलित होने के लिए मठ में असंख्य भक्त एकत्रित हुए थे। मायापुर का विशाल मठ भी उस दिन छोटा पड़ गया था।