पद्मपुराण में शिवजी पार्वतीजी से कह रहे हैं-
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधना परम् ।
तस्मात् परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ।।
जगत में जितनी प्रकार की पूजाएँ प्रचलित हैं, उन पूजाओं में भगवान श्रीहरि की पूजा ही सर्वोत्तम है। जो उन सर्वोत्तम पूज्य भगवान श्रीहरि की पूजा करते हैं, उन भगवद् भक्तों की पूजा तो और भी अधिक श्रेष्ठ है। ऐसे भक्तों की पूजा तो स्वयं भगवान भी करते हैं । भगवान सर्वाधिक पूज्य हैं । ऐसे भगवान की पूजा के पात्र या प्रेम के पात्र प्रेमी भगवद् भक्त होते हैं । श्रीगुरुदेव उन भगवद् भक्तों में अग्रणी हैं। अतः इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवान भी जिसकी पूजा करते हैं, उसकी सेवा-पूजा ही सबसे श्रेष्ठ है।
मद्गुरुः जगद्गुरुः, मन्नाथः जगन्नाथः। मेरे गुरु जगद्गुरु हैं। मेरे गुरु के विद्वेषी व्यक्ति भगवान के भी विद्वेषी हैं। इतना ही नहीं, वे सारे जगत के विद्वेषी हैं, मनुष्यमात्र के विद्वेषी हैं। जबतक शिष्य के हृदय में ऐसे विचार नहीं आ जाते, तब तक वह गुरु-सेवक नहीं हैं। जब तक श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में स्वयं को आत्मसमर्पित नहीं कर सकता, तबतक वह तृणादपिसुनीच एवं अमानी – मानद होकर हरिकीर्तन नहीं कर सकता । गुरुसेवा के समान अन्य कोई मंगलप्रद कार्य नहीं है। समस्त आराधनाओं में भगवान की आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है। भगवान की आरधना से भी श्रीगुरुदेव की सेवा श्रेष्ठ है, जबतक साधक के हृदय में ऐसा दृढ़ विश्वास नहीं आ जाता, तब तक उसका गुरुपदाश्रय करना नहीं हुआ। मैं आश्रित हूँ, गुरुदेव मेरे एकमात्र आश्रय, पालक एवं रक्षक हैं – ऐसे विचार उसके हृदय में कदापि उत्पन्न नहीं हो सकते । सर्वस्वं गुरवे दद्यात् – इस शास्त्रवाणी के अनुसार जब तक श्रीगुरुदेव के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित न किया जाय और प्राण, अर्थ, बुद्धि, वाक्य, मन, विद्या, शरीर इत्यादि के द्वारा प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा न की जाय, तब तक विषयों के प्रति आसक्ति नष्ट नहीं हो सकती और निष्काम भी नहीं हुआ जा सकता । स्वसुख कामनारूप भवरोग दूर नहीं हो सकता । भय, चिन्ता, दुःख, मोह नहीं कट सकते । सम्पूर्णरूप से श्रीगुरुदेव के चरणों में आश्रय लेने पर ही निर्मोह (मोहरहित), निर्भय एवं अशोक (शोकरहित) हुआ जा सकता है। यदि हम निष्कपटरूप से कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, तो श्रीगुरुपादपद्म निष्कपटरूप से हमें समस्त प्रकार के मंगल प्रदान करते हैं।
श्रीगुरुदेव मर्त्य जगत के नहीं हैं। वे अमर एवं नित्य वस्तु हैं । श्रीगुरुदेव नित्य हैं, उनकी सेवा नित्य है और उनके सेवक भी नित्य हैं। अतः हमें कितनी आशा – भरोसा रखनी चाहिए कि कोई भी नाशवान् वस्तु हमारी नहीं है ? अर्थात् एकमात्र नित्यवस्तु श्रीगुरुपादपद्म एवं उनके सेवकों के प्रति ही हमें आशा एवं भरोसा रखना चाहिए।
हम वश्य तत्त्व (अधीन तत्त्व) हैं, श्रीगुरुदेव ईश्वर वस्तु (सेवक भगवान) हैं। श्रीकृष्ण विषय-विग्रह तथा श्रीगुरुदेव आश्रय-विग्रह हैं, जिनका आश्रय ग्रहण करने से हम भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं भगवान कृष्ण विषय-विग्रह होने पर भी आश्रय-विग्रह गुरुतत्त्व के रूप में विराजमान हैं । श्रीगुरुदेव ईश्वर एवं भगवान होने पर भी स्वयं भगवान की सेवा का आचरण करके हमें शिक्षा देते हैं। वर्तमान में हमारी संसार के प्रति आसक्ति एवं कर्त्ता अभिमान है। इसलिए हमें इतना दुःख एवं उद्वेग प्राप्त हो रहा है। इस भयंकर कर्त्ताभिमान से गुरुदेव ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। किन्तु क्या हम रक्षा चाहते हैं ? हम तो इसी संसार में ही अटके रहना चाहते हैं। यदि हमारी संसार से मुक्त होने की इच्छा होती, तो साक्षात् भगवत्स्वरूप गुरुदेव भगवद् अवतार श्रीगुरुदेव, भगवान के प्रतिनिधि श्रीगुरुदेवकी जी जान से सेवा करने पर भी हमारा मन नहीं भरता । क्या हमारी चित्तवृत्ति ऐसी हो रही है ? गुरुदेव को सोलह आना (शत – प्रतिशत) देने की बात तो दूर रहे, हमारे हृदय में एक आना देने की भी प्रवृत्ति नहीं है। यदि हम सारवस्तु को सार न करें, तो सारवस्तु कैसे प्राप्त की जा सकती है ? अर्थात् गुरुदेव ही सारवस्तु हैं, यदि हम उनका आश्रय ग्रहण न करें, तो सारवस्तु भगवान को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? श्रीगुरुदेव के प्रति भगवत् बुद्धि न रहने के कारण ही हमारी ऐसी दुर्गति हो रही है, संसार के प्रति आसक्ति क्षण – प्रतिक्षण बढ़ रही है, इसलिए में कह रहा हूँ-श्रीगुरुदेव के प्रति मर्त्यबुद्धि या साधारण मनुष्य बुद्धि मत करो । वे तुम्हारे अनन्तजीवनदाता हैं, तुम्हारे भवरोग के वैद्य हैं। सब प्रकार से तुम्हारे रक्षक, पालक, उपकारक तथा तुम्हारे निःस्वार्थ बन्धु हैं।
हम यदि पूर्णरूप से श्रीगुरुदेव के श्रीचरणकमलों का आश्रय ग्रहण करने के लिए तैयार न हों, तो जितने परिमाण में हम कपटता करेंगे, उतने परिमाण में स्वयं ही ठगे जायेंगे । हमें यह बात सर्वदा स्मरण रखनी चाहिए । अन्यथा सद्गुरु चरणाश्रय करने पर भी हमारा कुछ विशेष उपकार नहीं हो सकता । समस्त मंगलों के भी मंगलस्वरूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कृपापूर्वक हमारे कल्याण के लिए हमें जिनके हाथों में अर्पण किया है, यदि में सम्पूर्णरूप से उन श्रीगुरुदेव के श्रीचरणकमलों का आश्रय ग्रहण न करूँ, समर्पण न करूँ, अपना सर्वस्व उन्हें न देकर कपटता करूँ, तो वे सम्पूर्णरूप से हमारा मंगल कैसे करेंगे ? यदि हम हृदय से संसार के प्रति आसक्त होकर बाहर से लोगों को दिखाने के लिए भक्ति का ढ़ोग करें, तो सर्वज्ञ श्रीगुरुदेव हमारे इस ढोंग को जानकर हमारी वञ्चना कर देंगे- ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।’ हम गुरु-वैष्णवों की सेवा न कर माया अर्थात् आत्मीय बन्धु – बान्धवों की सेवा में ही व्यस्त रहकर जब गुरु और वैष्णवों की वञ्चना करते हैं, तब अन्तर्यामी श्रील गुरुदेव कृपापूर्वक हमसे कहते हैं- “तुम मेरे शिष्य नहीं बने, तुम मेरा शासन स्वीकार नहीं करते हो, मेरी बात तुम नहीं सुनते हो, तुम्हारे हृदय में पाप है। विश्वासघातक मन की बात एवं सांसारिक लोगों के आदर्श एवं विचारों की बात सुनने के कारण तुम्हारे कान मेरी बात सुनने के योग्य नहीं रह गये । अतः तुम वञ्चित हो गये हो”।
इसलिए मैं पुनः कह रहा हूँ कि इसलिए मैं पुनः कह रहा हूँ कि श्रीगुरुदेव निष्कपटरूप से हमारे लिए जो आदेश निर्देश प्रदान करते हैं, उन्हें आदरपूर्वक नतमस्तक होकर ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा अकल्याण निश्चित है। हे मेरे बन्धुवर्ग ! तुमलोग भोगी मत बनो। इन्द्रियों के द्वारा विषय भोग मत करो। क्योंकि यह सारा जगत श्रीगुरुसेवा का उपकरण है और कृष्णसेवा की वस्तु है। गुरुसेवा की वस्तुओं में भोगबुद्धि होने से मंगल नहीं हो सकता । प्रत्येक वस्तु में गुरुसम्बन्ध दर्शन नहीं करने से अमंगल अनिवार्य है।