नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी १०८ श्री श्रीमद् भक्तिविज्ञान आश्रम गोस्वामी महाराज
प्रणाम
नमो ॐ विष्णुपादाय गौरप्रेष्ठ स्वरूपिने ।
श्रीमते भक्तिविज्ञान आश्रम गोस्वामीने नमः ।।
पूर्वबंग फरीदपुर जिलान्तर्गत सबडिवीजन मादारीपुर चौकीभांगा थाना – मुकसूदपुर अन्तर्गत बाटिकामारी नामक गाँव में एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण कुल में श्रील महाराज ने जन्म ग्रहण किया। उनके पिता श्रीयुत गंगाधर चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती विधुमुखी देवी थीं। चार पुत्रों में ये तीसरे थे। इन्हें बचपन में माता-पिता प्यार से साधु नाम से पुकारते थे। इनका शुभ नाम श्रीमहेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय था । ज्येष्ठ भ्राता श्रीशशधर चट्टोपाध्याय घर-गृहस्थी सम्भालते थे। मध्यम भ्राता एम. ए. पास करके गौहाटी कटन कॉलेज में आर्टस विभाग में प्रोफेसर पद पर नौकरी करते थे। कनिष्ठ भ्राता उसी कॉलेज में लाइब्रेरियन पद पर नौकरी करते थे। श्रीमहेन्द्र नाथ ने ग्राम्य स्कूल से छात्रवृत्ति परीक्षा में उत्तीर्ण होकर मातृदेवी की इच्छानुसार अपनी १२ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार के उपरान्त कुलगुरु श्रीचन्द्रनाथ देव शर्मा के निकट शक्ति मन्त्र दीक्षा ग्रहण की। चन्द्रनाथ देव शर्मा सुप्रसिद्ध सर्वविद्या सदानन्द ठाकुर के वंशधर में दशम विद्या दर्शन करके ‘सर्वविद्या’ नाम से परिचित हुए।
श्रीमहेन्द्रनाथ ने उच्च अंग्रेजी विद्यालय से अध्ययन समाप्त कर मातृदेवी के विशेष आग्रह से विवाह किया। उन्हें एक पुत्र एवं एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। उन्होंने कुछ समय ग्वालन्द रेलवे एवं स्टीमर विभाग में नौकरी की। फिर कुछ समय कोलकाता में महेश भट्टाचार्य के होम्योपैथिक औषधालय में काम किया। उसी समय उन्होंने होम्योपैथी में डाक्टरी पास कर कुछ समय अपने भ्राता के पास से रहकर गौहाटी में चिकित्सा कार्य किया। थोड़े ही दिन बाद उन्हें संसार से वैराग्य हुआ, जिससे वे साधु दर्शनाभिलाषी होकर उत्तराखण्ड के समस्त तीर्थों के दर्शन करते हुए केदारनाथ एवं बद्रीनाथ पहुँचे। कुछ दिन वहाँ रहकर वे कोलकाता लौट आये। वहाँ आकर रामकृष्ण कथामृत के लेखक श्रीमहेन्द्रनाथ गुप्त की ठाकुर बाड़ी में सपत्नीक रहने लगे। मार्टन स्कूल के रेक्टर गुप्त महाशय की सहायता से उसी स्कूल में शिक्षक का कार्य करने लगे। इसी समय उन्होंने वेलुर मठ में दीक्षा ग्रहण की और बागबाजार में शारदा देवी से मिले।
एक दिन कोलकाता के राजपथ में बड़े अक्षरों में लिखा गौड़ीय शब्द देखकर बहुत लोगों से इसका अर्थ पूछा, लेकिन किसी से सही उत्तर नहीं मिला। बाद में पता चला कि गौड़ीय नाम से एक साप्ताहिक पारमार्थिक पत्र उसी वर्ष श्रीहरिपद विद्यारत्न एम. ए. बी. एल. महाशय ( वर्तमान ८४ साल उम्र के त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिसाधक निष्किञ्चन महाराज — श्रीचैतन्य मठ वासी) द्वारा सम्पादित श्रीगौड़ीय मठ से प्रकाशित होता है। कुछ समय बाद एक दिन वे निज ग्रामवासी वैष्णव ब्राह्मण और स्कूल के मास्टर श्रीहेमन्त चट्टोपाध्याय महाशय के साथ श्रीपरेशनाथ मन्दिर में दर्शन कर लौटते समय १ नं उल्टाडिंग जंक्शन रोड स्थित श्रीगौड़ीय मठ में पहुँचे। वहाँ श्री श्रीगुरु – गौरांग – राधाकृष्ण श्रीमूर्ति के दर्शन एवं श्रीपाद यशोदानन्दन भागवत भूषण नाम के ब्रह्मचारी से हरिकथा श्रवण की। उस समय परमाराध्यतम श्री श्रील प्रभुपाद ढाका माधव गौड़ीय मठ में अवस्थान कर रहे थे। वे एकदिन फिर जब गौड़ीय मठ में पहुँचे तब सुना कि श्रील प्रभुपाद ढाका मठ से आज वापस आ रहे हैं। यह सुनकर दर्शन की अभिलाषा से वे श्रील प्रभुपाद की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही देर बाद श्रीलप्रभुपाद मठ में आ गये। श्रीलप्रभुपाद के प्रथम बार दर्शन मात्र से ही उन्हें अपने एक नये जीवन की अनुभूति हुई। वे सभी भक्तों के साथ द्वितीय मंजिल स्थित श्रील प्रभुपाद के कमरे में पहुँचे एवं उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। श्रीलप्रभुपाद ने इनका परिचय पूछा। अपना परिचय देने के उपरान्त इन्होंने श्रीलप्रभुपाद से एक प्रश्न पूछा । तैतीस कोटि देवताओं में सबसे बड़ा देवता कौन है ? श्रील प्रभुपाद ने इसके उत्तर में श्रीब्रह्म संहिता ग्रन्थ के एक श्लोक उद्धरित करके कहा- ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारण कारणम् ।। फिर श्रीमद् भागवत के — एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । ( भा. १ / ३ / २८) इन दो श्लोकों की व्याख्या करके सुनाई । श्रील प्रभुपाद के मुखारविन्द से इस प्रकार सुन्दर व्याख्यापूर्ण हरिकथा श्रवण कर उन्हें अपने पूर्व जीवन के समस्त जप-तप आदि साधनासमूह अत्यन्त तुच्छ प्रतीत हुए। समस्त भक्तों के साथ महाप्रसाद ग्रहण कर विशेष आनन्दित होकर वे अपने घर वापस पहुँचे।
कुछ दिन बाद कोलकाता वास भवन में निमोनिया रोग से ग्रस्त उनकी पत्नी को परलोक प्राप्ति हो गई। उसके बाद उन्होंने सहकर्मी स्कूल मास्टर गोस्वामी से श्रीधाम मायापुर की महिमा एवं श्रीमन्महाप्रभु की कथा सुनकर सोचा, मैंने श्रीकृष्ण एवं श्रीराम जन्म भूमि के दर्शन तो किये हैं, परन्तु श्रीमन्महाप्रभु के जन्म स्थान श्रीमायापुर का दर्शन अभी तक नहीं किया। श्रीधाम मायापुर के दर्शन हेतु कृत संकल्प होकर एक दिन दोपहर १ बजे श्रीधाम नवद्वीप मायापुर के श्रीयोगपीठ मन्दिर पहुँचे। वहाँ श्रीब्रह्मचारी जी के मुख से सुना कि श्रीठाकुर जी का शयन हो गया है, अब अपराह्न ३ बजे श्रीठाकुर जी के दर्शन होंगे। ब्रह्मचारी जी के निर्देशानुसार योगपीठ से श्रीचैतन्य मठ पहुँच कर सौभाग्यवश परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के श्रीपादपद्मों का दर्शन कर परमानन्दित हुए। उस समय श्रील प्रभुपाद श्रीचैतन्य चरितामृत का अनुभाष्य लिख रहे थे। दोपहर के समय प्रखर धूप से तप्त, थके हुए एवं क्षुधार्त समझ कर श्रील प्रभुपाद ने अत्यन्त स्नेह परवश होकर तत्कालीन मठ रक्षक श्रीपाद नरहरि सेवा विग्रह ब्रह्मचारी को शीघ्र ही इन्हें प्रसाद देने का आदेश किया। श्रीब्रह्मचारी जी ने प्रसन्न मुख से प्रसाद की व्यवस्था की। विश्राम के उपरान्त अपराह्न के समय श्रील प्रभुपाद की अनुमति लेकर योगपीठ दर्शन करने गये। इसी बीच श्रीअद्वैत भवन के पास एक गैरिक वस्त्रधारी मठवासी ब्रह्मचारी का दर्शन हुआ। वे ब्रह्मचारी के साथ योगपीठ पहुँचे। ब्रह्मचारी जी ने योगपीठ में आकर श्रीजगन्माता शचीदेवी, शिशु निमाइ, श्रीगौरांग विष्णुप्रिया – लक्ष्मीप्रिया, श्रीगुरु – गौरांग राधामाधव विग्रह आदि के दर्शन कराये एवं प्रेम पूर्वक बहुत समय तक हरिकथा कीर्त्तन कर सुनाई। उस समय श्रीयोगपीठ के रक्षक श्रीनित्यानन्द ब्रह्मचारी थे ।
दूसरे दिन प्रातः काल श्रीकीर्त्तनानन्द ब्रह्मचारी ने इनको शीघ्र ही श्रीचैतन्य मठ में जाने के लिए कहा। यह सुनकर वह अविलम्ब श्रीचैतन्य मठ पहुँचे। वहाँ देखा कि एक नाई अपना उस्तरा लिए इनके इन्तजार में बैठा है। श्रील प्रभुपाद ने इन्हें क्षौरकर्म कर गंगास्नान कर शीघ्र आने के लिए कहा। श्रील प्रभुपाद के कृपादेश अनुसार स्नान आदि करके पहुँचे। श्रील प्रभुपाद ने कृपा पूर्वक श्रीहरिनाम महामन्त्र और कृष्णमन्त्र दीक्षा प्रदान कर इनका श्रीपाद मुरली मोहन दासाधिकारी नाम रखा। दीक्षा के उपरान्त कुछ दिन श्रीधाम मायापुर श्रीचैतन्य मठ में सेवा की। फिर श्रील गुरुदेव के आदेश से समुद्रगढ़ चाँपाहाटी के श्रीगौरगदाधर जू मन्दिर का सेवा भार ग्रहण किया। थोड़े दिन बाद इनका निष्कपट सेवा अनुराग देखकर उनको त्रिदण्ड संन्यास दीक्षा प्रदान कर त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिविज्ञान आश्रम महाराज नाम से विभूषित किया। उसी दिन से वे श्रीमद्भक्तिविज्ञान आश्रम गोस्वामी महाराज नाम से समस्त वैष्णव जगत में आदरणीय हुये । उसी समय से श्रील महाराज श्रीचैतन्य मठ, श्रीयोगपीठ, ढाका जिला के बालियाटी स्थित श्रीगदाई गौरांग मठ, मद्रास गौड़ीय मठ एवं श्रीचैतन्य मठ के अन्यान्य शाखा मठ समूह में परिव्राजक रूप से परमोत्साहित होकर श्रीश्रीगुरु-गौरांग गान्धर्विका गिरिधारी जू का अर्चन, शृंगार आदि एवं भक्ति ग्रन्थ पाठ कीर्त्तन, भाषण द्वारा विभिन्न स्थान पर प्रचार कार्यादि सहित श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु एवं श्रील गुरुदेव श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर का मनोभीष्ट सम्पादन किया। ये श्रील प्रभुपाद के प्रवर्त्तित भक्तिशास्त्री एवं सम्प्रदाय वैभवाचार्य परीक्षा में उत्तीर्ण होकर श्रील प्रभुपाद के विशेष कृपा भाजन हुए लिखा-पढ़ी कार्य में भी इनका यथेष्ट उत्साह व कृतित्त्व परिलक्षित हुआ है। श्रील महाराज ने अनेक प्रबन्ध एवं भक्त चरित, श्रीचैतन्य लीलामृत नामक दो ग्रन्थ लिखकर प्रकाशित किये। अन्तिम समय शैया अवस्था में भी जीवेर दारुण संसार गति नामक एक प्रबन्ध लिखा । हरिकथा कीर्त्तन में इनका प्रबल उत्साह था। अन्तिम समय तक श्रील महाराज के हरि कीर्त्तनोल्लास एवं नृत्य दर्शन से समस्त लोग विस्मित होते रहे।
श्रील प्रभुपाद के प्रकटकालीन समय में एक बार श्रीनवद्वीप धाम प्रचारिणी सभा के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने परमाराध्यतम श्रीगुरुपादपद्म की इच्छा और अनुमति से उक्त सभा का सभापति रूप से संचालन किया। श्रील महाराज ने पुनः श्रील प्रभुपाद की अप्रकट लीला के बाद अनेक बार उक्त सभा का सभापतित्त्व किया। श्रील प्रभुपाद के प्रकट कालीन श्रीविश्ववैष्णव राजसभा के अन्यतम सम्पादक व कोलकाता बाग बाजार स्थित श्रीगौड़ीय मठ के तत्कालीन मठ रक्षक श्रीपाद कुंजविहारी विद्याभूषण महोदय ने श्रील आश्रम महाराज के ज्येष्ठ गुरुभ्राता होकर भी उनकी सरलता, उदारता एवं निष्कपट भ्रातृप्रेम से मुग्ध होकर विगत ४६१ गौराब्द, श्रीगौराविर्भाव पूर्णिमा तिथि में श्रील महाराज को संन्यास गुरु के रूप से वरण करते हुए उनसे त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया। श्रीपाद कुंजविहारी विद्याभूषण महोदय संन्यास के बाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति विलास तीर्थ गोस्वामी महाराज के शुभ नाम से समस्त वैष्णव जगत् में आदरणीय एवं श्रद्धा भाजन हुये। श्रील आश्रम महाराज का अपने स्वतीर्थ श्रीचैतन्य गौड़ीय मठाध्यक्ष श्रीमद्भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज के प्रति विशेष प्रेम था। इस कारण श्रील भक्तिविज्ञान आश्रम गोस्वामी महाराज एवं श्री माधव गोस्वामी महाराज के द्वारा प्रतिष्ठित एवं परिचालित कोलकाता, श्रीपुरी धाम, श्रीधाम वृन्दावन, गौहाटी एवं कामरूप जिलान्तर्गत सरभोग स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में दीर्घ समय तक अवस्थित रहकर उक्त मठस्थ ब्रह्मचारी सेवकों को निष्कपट रूप से श्रीहरि गुरु- वैष्णव सेवा का उपदेश आदि प्रदान कर परम उत्साहित किया करते थे। श्रील प्रभुपाद की प्रकट लीला के समय इन्होंने सरभोग स्थित गौड़ीय मठ के मठ रक्षक के रूप में विराजित होकर दीर्घकाल तक मठ का परिचालन किया। जीवन के अन्तिम समय में श्रीचैतन्य गौड़ीय मठाचार्य श्रील भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज के एकान्त सान्निध्य में रहने के लिए अत्यन्त व्याकुल हुये। यह देखकर श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने श्रील प्रभुपाद की भजनस्थली में अवस्थान कर जीवन का शेष समय बिताने के लिए परामर्श दिया। उनके परामर्शानुसार श्रील महाराज ने वहाँ रहकर जीवन के अन्तिमक्षण तक परमाराध्यतम श्री श्रीगुरुपादपद्म प्रभुपाद की सेवा की।
श्रील महाराज ने परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद की अप्रकटलीला के उपरान्त कुछ समय के लिए श्रीधाम वृन्दावनस्थ श्रीगिरिराज गोवर्धन में रहकर भजन किया। जीवन के अन्तिम समय में उसी भाव को लेकर श्रीधाम नवद्वीप मायापुर स्थित अभिन्न श्रीगिरिराज गोवर्धन एवं तत् निकटवर्ती श्रीराधाकुण्ड तट ब्रजधाम ब्रजपत्तन में रहकर भजन करते हुए श्रीगुरु पूर्णिमा उद्यापनान्ते पर दिवस १ श्रीधर ४८९ गौराब्द ५ श्रावण १३७४ बंगाब्द २२ जुलाई, सन् १९६७ शनिवार को सुबह ५ बजे श्री श्रीगुरु गौरांग गान्धर्विका गिरिधारी जू के श्रीचरणारविन्द का स्मरण करते हुए ८६ साल की उम्र में ब्रजाभिन्न श्रीगौरधाम रज को प्राप्त हुए। उनका निर्याण उत्सव श्रीचैतन्य मठ में आदरपूर्वक अनुष्ठित हुआ ।