नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी १०८ श्री श्रील भक्तिप्रदीप तीर्थ गोस्वामी महाराज
प्रणाम
नमः ॐ विष्णुपादाय मुकुन्द प्रिय रूपिने ।
श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ गोस्वामीति नमः ।।
गौरनामामृतास्वाद प्रचार मुदितात्मने ।
सारल्यमयशीलेन सर्वाह्लाद विधायिने ।।
मुकुन्द प्रिय ॐ विष्णुपाद तीर्थ गोस्वामी महाराज आप गौर नामामृत आस्वादन और प्रचार में सदा ही आनन्दित हैं। सरल स्वभाव द्वारा सबके आनन्द विधानकारी आपको सहस्र प्रणाम ।
पूर्वबंग नवाखाली जिला अन्तर्गत सन्दीप हातिया ग्राम में चैत्र १२८३ बंगाब्द में अपने पिता श्री रजनी ने पुत्र का नाम श्रीजगदीश बसु रखा। श्रीरजनी कान्त बसु महाशय सरकारी नौकरी करते थे। इनका सारा बसु एवं माता श्रीमती विधुमुखी बसु के यहाँ पुत्र रूप से जन्म ग्रहण किया। उस समय पिता-माता परिवार पहले वामन पाड़ा गोस्वामी से दीक्षित था। बाद में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का चरणाश्रय कर उनसे श्रीहरिनाम दीक्षा प्राप्त की। सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त कर वे श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के निकट बाबाजी भेष ग्रहण कर श्रीराधागोविन्द दास बाबाजी नाम से परिचित हुए। अन्तिम समय में पुरीधाम जाकर आपने वहाँ अवस्थान किया। इनकी पत्नी श्रीमती विधुमुखी बसु ने अन्तिम समय में श्रीनवद्वीप धाम में वास किया।
श्रीयुत रजनी कान्त बसु के सुपुत्र श्रीजगदीश चन्द्र बसु ने बाल्यावस्था में अत्यन्त मेधावी छात्र के रूप से विद्या अध्ययन में अभूतपूर्व पारदर्शिता के साथ कोलकाता विश्व विद्यालय से बी. ए. डिग्री प्राप्त कर शिक्षक का कार्य किया। वे सपत्नीक कोलकाता में रहते थे । ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के परम प्रिय कृपाभाजन श्रीजगदीश चन्द्र बसु की पत्नी की अकस्मात् मृत्यु हो गई । तब इन्होंने श्रीमन्महाप्रभु की अशेष करुणा समझकर श्रील प्रभुपाद सरस्वती ठाकुर के पास त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण कर श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ गोस्वामी महाराज नाम से श्रील प्रभुपाद के जीवन में प्रथम त्रिदण्डि संन्यासी के रूप से परिचित हुये। इन्होंने अत्यन्त अनुगत और अनुकम्पित त्रिदण्डिपादों के अग्रणी रूप में श्रील प्रभुपाद के आदेश से पाश्चात्य देश में श्री श्रीगुरु-गौरांग वाणी का प्रचार किया। परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज ने विदेश में प्रचार करते समय अपनी स्मृति से पूजनीय गुरुभ्राता श्रीमद् सुन्दरानन्द विद्याविनोद प्रभु को एक पत्र लिखा। उस पत्र में लिखा था-
बंगला १३१६-११ चैत्र, २५ मार्च, सन् १९१० फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन मैं धुबुलिया स्टेशन से पैदल ही श्रीधाम मायापुर दर्शन करने आया। त्रिपुरा राज्य के उस समय के सभा पण्डित श्रीयुत वैकुण्ठ नाथ घोषाल, भक्ति तत्त्व वाचस्पति महाशय मेरे साथ थे। इनके साथ मेरी चाँदपुर में प्रथम बार बातचीत हुई। इन्होंने मुझे ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के अनेक जीवन चरित्र श्रवण कराये एवं अपने को श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के अनुगत रूप से परिचय दिया। मैं उक्त पण्डित महाशय के साथ श्रीमन्महाप्रभु के आविर्भाव दिवस पर श्रीधाम मायापुर योगपीठ में पहुँचा। वहाँ देखा कि, ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर श्रीयोगपीठ में श्रीमन्महाप्रभु के निकट विराजमान हैं। उनके सम्मुख ॐ विष्णुपाद श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद एवं टाँकी के विख्यात जमींदार राय यतीन्द्र नाथ चौधुरी एन. ए. बी. एल. महाशय कतिपय प्रमुख सज्जनों के साथ उपस्थित हैं। वे सभी श्रील भक्तििवनोद ठाकुर के मुखारविन्द से निःसृत श्रीहरिकथा सुन रहे थे। पण्डित श्रीयुत वैकुण्ठ नाथ घोषाल महाशय ने श्रील ठाकुर से मेरा परिचय कराया। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर दोनों ने ही मेरे प्रति अतिशय स्नेह एवं करुणा प्रकट की। उस समय मैंने श्रील प्रभुपाद का महा ज्योतिर्मय नैष्ठिक ब्रह्मचारी रूप देखा था । उनके एक अलौकिक अतिमर्त्य प्रभाव ने मुझे श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के श्रीचरणों में विशेष रूप से आकर्षित किया। उस समय मैंने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के श्रीचरणों में पतित होकर रो-रो कर उनकी करुणा प्राप्त करने को कहा। श्रील ठाकुर ने मुझे आश्वासन देकर कहा कि आप शिक्षित व सम्मानित व्यक्ति हैं। अतः आपके द्वारा श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार होने से संसार के बहुत से लोगों का उद्धार होगा। आज श्रीमन्महाप्रभु आविर्भाव दिवस पर आप कुछ हरिकथा कीर्त्तन करके सुनाइये ।
ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के आदेश से ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में मैंने कुछ कीर्त्तन किया। अतिमर्त्य नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद अहर्निश श्रीहरिनाम ग्रहण का आचरण एवं आदर्श प्रदर्शन कर श्रील हरिदास ठाकुर के अनुसरण में श्रीनाम माहात्म्य का प्रचार करते हैं, इस विषय में भी कुछ कहा। इन दोनों महाशय को कृपा और करुणा से प्रभावित होकर मैंने कहा-3 आत्म निवेदन के क्षेत्र अन्तद्वीप श्रीधाम मायापुर से समस्त पृथ्वी पर्यन्त आछे यत देश ग्राम सर्वत्र प्रचार हइवे मोर नाम।। आगामी दिनों में श्रीमन्महाप्रभु की यह भविष्यवाणी परिपूर्ण रूप से साधित होगी। तब मेरे मुख से यह सुनकर श्रील प्रभुपाद ने मेरे प्रति विशेष कृपा दृष्टि की। उन्होंने मुझसे कहा— भक्तिविनोद ठाकुर का आदेश लेकर आगामी कल गंगा के उस पार कुलिया में ॐ विष्णुपाद श्रील गॉरकिशोर दास बाबाजी महाराज के नाम से एक अति अद्भुत चरित्र वाले परमहंस प्रवर के श्रीपादपद्म का अवश्य दर्शन करें। मैं श्रील प्रभुपाद के आदेशानुसार एवं श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की अनुमति लेकर जब कुलिया जाने के लिए तैयार हुआ, तब श्रील ठाकुर ने मुझसे कहा कि बाबाजी महाशय के दर्शन के बाद श्रीगोद्रुम स्वानन्द-सुखद कुंज में वापस आ जाना।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का कृपादेश पाकर मैं श्रील बाबाजी महाराज के पास एक तरबूज लेकर उनके दर्शन करने पहुँचा। वहाँ पहुच कर देखा कि वे गंगा किनारे एक छई को उन्होंने बहुत आदर पूर्वक ग्रहण कर मेरे प्रति कृपादृष्टि की। मैं श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर और श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के आदेश से उनके श्रीचरण दर्शन के लिए पहुँचा, यह सुनकर श्रील बाबाजी महाराज ने श्रील नरोत्तम ठाकुर के प्रार्थना नामक ग्रन्थ से एक कीर्त्तन करने का आदेश किया। श्रील बाबाजी महाराज की इच्छानुसार श्रील ठाकुर महाशय के गौरांग बलित ह’ बे पुलक शरीर हरि हरि बलिते नयने ब’वे नीर। इस पद का कीर्त्तन करके सुनाया। कीर्त्तन श्रवण करके श्रील बाबाजी महाराज ने मुझे कुछ विशेष उपदेश प्रदान किया। गुरु- वैष्णव- भगवान् में आन्तरिक निष्कपट रूप से अनन्य शरणागति के साथ अत्यन्त श्रद्धा रखना । तृणादपि सुनीच एवं वृक्ष के समान सहिष्णु होकर सदैव श्रीहरिनाम कीर्त्तन करना । सर्वदा काय मन वाक्य से असत् संग से दूर रहना। मैंने कहा, मेरा आज तक गुरुकरण नहीं हुआ। यह सुनकर उन्होंने कहा- ने श्रीधाम मायापुर में श्रीमद्भक्तिविनोद ठाकुर के दर्शन किये हैं। श्रीधाम मायापुर आत्म निवेदन का स्थान हैं। जब वहाँ आपने श्रीमद्भक्तिविनोद ठाकुर के श्रीचरणों में आत्म निवेदन कर दिया, तब आपका अभी गुरुपादपद्म आश्रय नहीं हुआ यह कैसा है? आपको उसी दिन ही गुरुपादपद्म प्राप्त हो गया। सुनो! श्रील भक्तिविनोद ठाकुर आपके लिए इन्तजार कर रहे हैं, जाइये और जल्दी उनकी कृपा ग्रहण कीजिये। यह सुनकर मैं अपने आपको रोक नहीं सका और आँखों से अश्रुपात होने लगा एवं शरीर रोमाञ्चित हो गया। श्रील बाबाजी महाराज ने मुझसे फिर कहा- भविष्य में आपको सद्गुरु के निकट संन्यास ग्रहण करके पृथ्वी पर सर्वत्र श्रीमन्महाप्रभु का नाम एवं वाणी का प्रचार करना होगा। यह कहकर मेरे सिर पर हाथ रखकर प्रचुर आशीर्वाद प्रदान किया। मैंने सुना है कि श्रील बाबाजी महाराज के चरण स्पर्श करने का कोई प्रयास करे तो वे क्रोधपूर्वक कहते थे कि तेरा सर्वनाश होगा, तेरा घर-द्वार उजड़ जायेगा। किन्तु जब मैंने श्रील बाबाजी महाराज के चरण स्पर्श कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया तो उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की और मुझे आनन्द पूर्वक कृपादृष्टि प्रदान की ।
मैं उनसे विदाई लेकर कुलिया में ही मस्तक मुण्डन कर गंगा स्नान करके श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पास श्रीगोद्रुम पहुँचा। श्रील ठाकुर ने मुझे तत्क्षणात् काम बीज, काम गायत्री मन्त्र दीक्षा प्रदान क अत्यन्त कृपा की। श्रील ठाकुर के निकट उनके शिष्य श्रीयुत कल्याण कल्पतरु दास ब्रह्मचारी (श्रीकुम कान्त भौमिक ) महाशय उपस्थित थे। उन्होंने मुझे श्रील ठाकुर के अधरामृत प्रसाद को देकर मेरे ऊपर की। कुछ समय बाद टाँकी के जमींदार श्रीयुत यतीन्द्र राय चौधरी एन. ए. बी. एल. महाराव भी गोद्रुम में श्रील ठाकुर के पास आये। दिन के दो बजे श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने श्रीमन्महाप्रभु के शिक्षाष्टक की व्याख्या सुनाई। अपराह्न में उनके अनुगत शिष्य एवं सेवक श्रीमद् कृष्णदास बाबाजी महाशय ने श्रील ठाकुर के आदेश से श्रीचैतन्य चरितामृत से श्रीसनातन शिक्षा का पाठ किया। श्रील ठाकुर ने उसकी व्याख्या कर हम सबको समझाया। कुछ दिन बाद ग्रीष्म के समय मैंने कोलकाता भक्ति भवन में द्वितीय बार श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के श्रीचरण दर्शन किये। श्रील ठाकुर के साथ जब गोद्रुम में पहुँचा तब श्रील ठाकुर ने मुझे एवं श्रीमद् कृष्णदास बाबाजी महाशय को प्रतिदिन प्रातः काल में-
नदिया – गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन ।
पातियाछे नामहट्ट जीवेर कारण ।।
श्रद्धावान् जन हे ! श्रद्धावान् जन हे !
प्रभुर कृपाय भाइ मागि एइ भिक्षा।
बल कृष्ण, भज कृष्ण, कर कृष्ण-शिक्षा ।
अपराधशून्य हये लह कृष्णनाम ।
कृष्ण माता, कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण ।।
कृष्णेर संसार कर छाड़ि अनाचार ।
जीवे दया कृष्णनाम सर्वधर्म सार ।।
यह कीर्तन गाकर श्रीधाम के चारों ओर घूमकर सबके निकट हरि कीर्त्तन करने का उपदेश प्रदान किया। प्रतिदिन श्रीगोद्रुम में दिन के १ बजे से ४ बजे तक श्रीचैतन्य चरितामृत का पाठ एवं बाद में श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृन्द ।। यह पंचतत्त्वात्मक श्रीनाम संकीर्त्तन होता था। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ताली बजा-बजाकर अप्राकृत भाव में गद्गद होकर यह कीर्त्तन सुनकर घूम-घूमकर नृत्य करते थे। ॐ विष्णुपाद श्रीलसरस्वती ठाकुर अनेक समय गोद्रुम में श्रीठाकुर के पास आया करते थे एवं बहुत से उपदेश देकर मुझपर कृपा करते थे। श्रील सरस्वती ठाकुर के भक्ति सिद्धान्त एवं अतुलनीय सहज पाण्डित्य ने उस समय मुझे अतिशय मुग्ध किया ।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर प्रायः गम्भीर स्वर से हम सबको शासन करते हुए बताते कि आप सब प्रजल्प परित्याग कीजिये। सर्वक्षण कृष्णकथा बोलिये। सर्वदा कृष्ण कोलाहल होना ही सर्वोत्तम मंगल है।
श्रील ठाकुर ने कभी भी प्रजल्प को लेशमात्र भी प्रश्रय नहीं दिया। श्रीनामसंकीर्तन ही कलियुग का एकमात्र धर्म है, प्रत्येक जीव मात्र का यह श्रीनाम संकीर्त्तन साधन एवं साध्य है, इस विषय में खूब कहा करते थे। असाधु संग में कभी भी नाम नहीं होता है। श्रील जगदानन्द पण्डित के प्रेम विवर्त ग्रन्थ से असाधु संगे भाइ कृष्णनाम नाहि हय। नामाक्षर बाहिराय वटे नाम कभु नये । इस पद द्वारा असाधु संग परित्याग का उपदेश करते थे। विशेष रूप से ॐ विष्णुपाद श्रील सरस्वती गोस्वामी ठाकुर का आदर्श उल्लेख कर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर हम सबको कहते थे- देखिये सरस्वती किस प्रकार दुःसंग का परित्याग कर एकान्त में श्रीधाम मायापुर में दस नामापराध शून्य होकर श्रीनाम का भजन करते हैं। आप सब उनका आदर्श अनुसरण कीजिये । निरपराध हुये बिना कृष्णनाम करने से कृष्णनाम नहीं होता है। अपराधयुक्त नाम ग्रहण करने से उसके फल स्वरूप धर्म-अर्थ- काम और अधर्म ही प्राप्त होता है। अनर्थ के रहते कामनाओं से तृप्ति नहीं होती। सरस्वती ने यह सब उपलब्ध किया है। इसलिए उसमें अपतित भाव से श्रीरूपानुग नाम भजन अनुशीलन का आदर्श एकान्त रूप में देखा जाता है। आप सब उनका आदर्श अनुसरण कर श्रीनाम एवं श्रीनाम की सेवा में नियुक्त रहें। अतः आप सब उसी प्रकार स्वयं श्रीनाम ग्रहण करें एवं सर्वत्र श्रीनाम का प्रचार करें, यह उपदेश किया। श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज उस समय कुलिया नवद्वीप के नाट्य मन्दिर में एक छाया के नीचे रहते थे। श्रीगोद्रुम में रहने के समय एकदिन मैं श्रील ठाकुर से आदेश प्राप्त कर श्रीपाद कृष्णदास बाबाजी के साथ श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के श्रीचरण दर्शन के लिए नवद्वीप कुलिया पहुँचा। मुझे श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की कृपा प्राप्त हो गई है, यह जानकर श्रील बाबाजी महाराज ने अत्यन्त आनन्दित होकर मुझसे कहा -आप हमेशा सरस्वती प्रभु का संग करें। वे मेरे गुरुदेव एवं आदर्श वैष्णव हैं। देखिये राजा के पुत्र होकर भी किस प्रकार वैराग्य का चरम आदर्शमय जीवन बिता रहे हैं। समस्त प्रकार से असत् संग परित्याग करके श्रीधाम मायापुर का आश्रय कर एकान्त में श्रीनाम सेवा करते हैं। उनका वैराग्य अनुशीलनीय है। वे श्रीरूप सनातन एवं मेरे महाप्रभु के निज जन हैं। आप काय-मन वाक्य से हमेशा वैष्णव सेवा और नाम संकीर्तन करना, उच्चस्वर से नाम कीर्त्तन करना । यह उपदेश कर मुझे बहुत आशीर्वाद दिया ।
कुछ दिन बाद मैं श्रील ठाकुर के साथ गोद्रुम से भक्ति भवन कोलकाता पहुँचा। वहाँ श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के शिष्य श्रीयुत बसन्त कुमार घोष भक्ताश्रम एवं साहित्यिक श्रीयुत मन्मथ नाथ राय के साथ साक्षात्कार हुआ। दोनों ही मेरे सहपाठी हैं। यह सुनकर श्रील ठाकुर महाशय बहुत आनन्दित हुए। मैं जब श्रील ठाकुर के साथ कोलकाता आया, तब श्रील ठाकुर ने एक दिन श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती को बुलाकर मेरा उपनयन संस्कार कार्य उन्हें सौंपा। श्रील सरस्वती गोस्वामी प्रभु ने श्रील ठाकुर के आदेश से श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी रचित सत्क्रियासार दीपिका में वर्णित पद्धति अनुसार मेरा उपनयन संस्कार पूर्ण किया एवं ठाकुर की आज्ञानुसार ब्रह्मगायत्री, गुरुगायत्री एवं गौरगायत्री मन्त्र प्रदान किया।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने मुझे अनेक बार कहा कि श्रीसरस्वती प्रभु दैव वर्णाश्रम धर्म एवं शुद्ध वैष्णव समाज के संस्थापन कर वैष्णव जगत् में शुद्ध श्रीनाम प्रचार के लिए आये हैं। श्रीगौरसुन्दर ने उन्हें ये दोनों कार्य पूर्ण करने का दायित्व सौंपकर संसार में भेजा है। मुझे उस समय श्रील ठाकुर की सभी बातें समझ में नहीं आई। मैंने अनेक बार श्रीचैतन्य शिक्षामृत पढ़ लिया एवं श्रील ठाकुर के मुखारविन्द से दैव वर्णाश्रम धर्म के सम्बन्ध में अनेक बार सुना, किन्तु सम्पूर्ण रूप से उसे मैं समझ नहीं पाया। परवर्ती काल में यह गुरु वाक्य जब श्रील सरस्वती ठाकुर के आचारमय प्रचार लीला में प्रतिफलित देखा तब श्रीचैतन्य शिक्षामृत शास्त्र का उपदेश सम्पूर्ण रूप से मेरे हृदयंगम हुआ। मेरी दीक्षा के दिन श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने दैव वर्णाश्रम धर्म पालन की आवश्यकता के सम्बन्ध में मुझे बहुत उपदेश प्रदान किया। फिर श्रील सरस्वती ठाकुर के निकट भविष्य में और उपदेश ग्रहण करने के लिए श्रील ठाकुर ने मुझे आदेश प्रदान किया।
कोलकाता भक्ति भवन में अनेक दिन तक मैं श्रीचैतन्य चरितामृत का पाठ किया करता था एवं श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उसकी व्याख्या करके सुनाते थे। श्रीचैतन्यचरितामृत पाठ के समय कई प्रकार के आश्चर्यमय भाव श्रील ठाकुर में देखे। कभी श्रील ठाकुर महाशय भाव विह्वल होकर उच्चस्वर में रोते, कभी लोकापेक्षा न कर करुण भाव से गीत गाते हुए श्रीगौरहरि को पुकारते, कभी उच्चस्वर में हँसते, कभी नृत्य करते थे। इसी प्रकार एकदिन भाव विह्वल अवस्था में मेरे समान पतिताधम को आलिंगन प्रदानकर असीम कृपा की। एक समय श्रील ठाकुर में अष्ट सात्विक भाव एक साथ लक्षित हुए। किन्तु उन्होंने कभी सहजिया सम्प्रदाय की कृत्रिम भावुकता को प्रश्रय नहीं दिया। आराध्यदेव गोविन्द के साथ जहाँ वृषभानु नन्दिनी नहीं हैं, उन्होंने इस प्रकार के भाव को कभी आदर नहीं किया। श्रीवृषभानु नन्दिनी की कथा श्रवण मात्र से वे उच्चस्वर से क्रन्दन करने लगते थे। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर और श्रील भक्तिविनोद ठाकुर दोनों में ही श्रीवार्षभानवी दयित का दासत्व भाव देखा है। श्रीवृषभानु नन्दिनी की सेवा सम्पत्ति को वे अपने हृदय में अत्यन्त यत्नपूर्वक छुपाकर रखते, कारण जहाँ तहाँ वे अनधिकारी के पास श्रीराधानाम उच्चारण नहीं करते थे। एक दिन मुझसे कहा— जिस दिन आप सब शरणागति में वर्णित आमि तो स्वानन्द – सुखद वासी इसका भाव समझ पाओगे उसी दिन आप सबका सर्वोत्तम मंगल होगा । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के प्रति श्रील सरस्वती ठाकुर के विचार में कभी भी काय मनो वाक्य से एक मुहूर्त्त समय के लिए भी मर्त्य बुद्धि नहीं देखी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के श्रीमुख से बार-बार मैंने सुना कि सरस्वती प्रभु के समान शुद्ध वैष्णव इस संसार में अत्यन्त विरल हैं। वे भविष्य में पृथ्वी के बहुत लोगों को वैष्णव करेंगे। श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज ने अपने पत्र में श्रीसुन्दरानन्द प्रभु को फिर लिखा कि श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का संग लाभ करने के पूर्व श्रीचैतन्य भागवत व श्रीचैतन्य चरितामृत पाठ में श्रीगौर प्रेष्ठ के रूप से जो दिव्य मूर्ति मेरे मानस पट में अंकित थी, नित्य श्रीधामवासी श्रीनाम भजन रत तत्कालीन श्रीलप्रभुपाद के उस तप्त काञ्चनवत नैष्ठिक ब्रह्मचारी रूप के दर्शन से मेरा जीवन धन्य हो गया। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पादपद्म दर्शन के लिए मैं जब भक्ति भवन में जाता था, तब श्रील ठाकुर प्रायः मुझसे कहते थे— कभी भी असत् संग मत करना, वृथा प्रजल्प मत करना । श्रील रूप गोस्वामी के उपदेशामृत में वर्णित – उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् श्लोक को हमेशा याद रखना, सर्वदा साधु संग में उच्चस्वर से श्रीहरिनाम संकीर्तन करना ।
२३ जून, सन् १९१४ को ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कोलकाता भक्ति भवन में अपनी अप्रकट लीला आविष्कार की। उस समय में श्रील ठाकुर के पास उपस्थित था। उस दिन श्रील के पत्र प्राप्त मात्र से श्रील प्रभुपाद संध्या के समय श्रीधाम मायापुर से कोलकाता भक्ति भवन में पहुँचे। उनके श्रीचरण दर्शन कर मैंने श्रील ठाकुर के अन्तर्धान लीला का समस्त विषय उन्हें सुनाया । उस दिन श्रील प्रभुपाद ने अधिक रात्रि तक भक्ति भवन में रहकर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की अनेक गुणावली कीर्त्तन कर हम सबको सुनाई। श्रील प्रभुपाद ने कर्म जड़ मतानुसार अशौच धारण, प्रेत श्राद्धादि अनुष्ठान एवं शुद्ध वैष्णव सदाचार विरुद्ध आचार समूह का खण्डन कर शाश्वत वैष्णव स्मृति-निबंध, श्रील सनातन गोस्वामी एवं श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी के श्रीहरिभक्ति विलास तथा सत्क्रियासार दीपिका के सदाचार मूलक उपदेशावली से हम सबको समझाया। उसी विचार से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के दिव्य कलेवर को श्रीधाम नवद्वीप गोद्रुमस्थ स्वानन्द – सुखद कुँज में समस्त रात्रि जागरण कर श्रील ठाकुर समस्त शुभ कृत्य सुसम्पन्न करके श्रीधाम मायापुर लौट आये।
सन् १९१४ से सन् १९१७ तक मैं सरकारी कार्य करते समय कहीं भी रहूँ, परन्तु प्रत्येक साल श्रीमन्महाप्रभु के जन्मोत्सव में श्रीधाम मायापुर ब्रजपत्तन में आकर श्रील प्रभुपाद के श्रीचरण दर्शन एवं उनके मुखारविन्द से हरिकथा श्रवण अवश्य करता था। श्रील प्रभुपाद के उपदेशानुसार हम सब श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का अप्राकृत साक्षात् संग लाभ अनुभव करते थे। मेरी शास्त्रानुशीलन एवं साधु-गुरु- वैष्णव सेवा वृत्ति देखकर श्रील प्रभुपाद ने विशेष कृपाशीर्वाद एवं स्नेह पूर्वक मुझे भक्ति प्रदीप उपाधि प्रदान की। उसी दिन से मैं भक्ति प्रदीप नाम से परिचित हुआ। श्रील प्रभुपाद द्वारा आयोजित भक्ति शास्त्र एवं सम्प्रदाय वैभवाचार्य परीक्षा में मैंने विद्या विनोद भक्ति शास्त्री सम्प्रदाय वैभवाचार्य पदवी भी प्राप्त की।
जब मुझे संसार बंधन छोड़ने में देर होने लगी और नाना प्रकार विघ्न-बाधा मेरे हरिभजन में आने लगी तब अहैतुकी कृपासिन्धु श्रील प्रभुपाद ने मुझे गोरा पहुँ ना भजिया मैनु श्री ठाकुर महाशय का यह पद स्वयं कीर्त्तन करके सुनाया। सन् १९१७ में ग्राम्य कोलाहल प्रद विषय कार्य तथा कर्म जीवन से अवसर ग्रहण कर मैं श्रीधाम मायापुर ब्रजपत्तन में श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणानुगत्य में श्रीधाम वास करने की अभिलाषा से श्रीमायापुर पहुँचा। उस समय श्रील प्रभुपाद कोलकाता उल्टाडिंगि १ नं, जंक्शन रोड गौड़ीय मठ में अवस्थान कर रहे थे। मैं श्रीधाम मायापुर से कोलकाता गौरीबेड़ लेन उल्टाडिंगि पहुँचा। वहाँ श्रील प्रभुपाद की कृपा से श्रीपाद कुंजविहारी विद्याभूषण प्रभु तथा कुंज दा के साथ साक्षात्कार हुआ। सौभाग्यवशतः वैष्णव संग में निरन्तर श्रीहरि कीर्त्तन करने का अपूर्व सुयोग मिला। उसके बाद १ से वैष्णवों आनुगत्य शुद्ध नं, उल्टाडिंग जंक्शन रोड स्थित श्री भक्तिविनोद आसन में श्रील प्रभुपाद के साथ अवस्थान करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय श्रील प्रभुपाद द्वारा रचित मायावाद शतदूषनी, भाई सहजिया, कथाबोलि आदि भुवन मंगल साहित्य समूह प्रकाशित करने के लिए मेरा हृदय अत्यन्त व्याकुल हुआ। वृद्धावस्था में अपने को सामर्थ्य हीन समझ कर श्रृंगाल, कुक्कुर के खाने योग्य इस देह के प्रति शत-शत धिक्कार देकर मैं अश्रु विसर्जन करने लगा। सन् १९१९ में परम करुणामय भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा से पत्नी कहछ स्वधाम प्राप्त होने के कारण मैंने संसार बंधन से हमेशा के लिए परित्राण पाया। श्रील प्रभुपाद और वैष्णवों का आनुगत्य कर परिव्राजक वानप्रस्थ अवस्था से श्रीगौडमण्डल के विभिन्न स्थानों पर श्रीचैतन्यवाणी का प्रचार करने का आदेश प्राप्त हुआ। अन्तर्यामी श्रीभगवान की असीम कृपा एवं इच्छा से मुझे काय मन वाक्य से नित्यकाल श्री श्रीहरि गुरु वैष्णव सेवा में नियुक्त होने के लिए प्रेरणा दी।
१ नवम्बर सन् १९२० को श्रील प्रभुापद ने कृपापूर्वक श्रीधाम मायापुर श्रीचैतन्य मद में मुझे संन्यास दीक्षा प्रदान की। उस समय श्री प्रभुपाद के कतिपय अन्तरंग सेवक उपस्थित थे। उसी महीने में श्रील प्रभुपाद के आदेश से कतिपय ब्रह्मचारियों के साथ परिव्राजक संन्यासी वेष में पूर्वरंग ढाका नगरी में प्रचार के लिए गया। उसी समय आपके साथ प्रथम साक्षात्कार हुआ। आपकी अशेष कृपा से मैंन पूर्वबंग में विभिन्न स्थान पर श्रीचैतन्य भागवत एवं श्रीचैतन्य चरितामृत पाठ एवं व्याख्या के साथ परमार्थ अनुशीलन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परलोक गत लालमोहन साह शंखनिधि महाशय की ठाकुर बाड़ी में श्रीमाध्वगौड़ीय मठ प्रतिष्ठा कार्यानुष्ठान में आपका एवं श्रीमद्भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज आदि शुद्ध भक्तों के साथ मेरा मिलन हुआ। वहाँ श्रील प्रभुपाद के मुखारविन्द से एक माह तक श्रीमद्भागवत के जन्माद्यस्य श्लोक की व्याख्या आदि विषय निश्चय ही आपको स्मरण में होंगे। तत्पश्चात् श्रील प्रभुपाद के आदेश से भारतवर्ष में सर्वत्र श्रीचैतन्यवाणी प्रचार आदि कार्य समूह साप्ताहिक गौड़ीय पत्रिका में यथा सम्भव प्रकाशित हुये।
यद्यपि मैं कीर्त्तन करने में निपुण नहीं था, परन्तु समस्त भक्तगोष्ठी के साथ प्रसाद सेवन के समय मेरी भोग बुद्धि निरसन हेतु प्रसाद की महिमा सूचक पदावली का उच्च संकीर्तन मेरे मुख से श्रवण करने का श्रील प्रभुपाद ने विशेष आग्रह प्रकाश किया। श्रील प्रभुपाद नारद मुनि बाजाय वीणा नामक संगीत को श्रवणकर अति आनन्दित हुए। श्रील प्रभुपाद के अन्तरंग एकनिष्ठ सेवकों के बीच श्रीकुंज दा एवं श्री वासुदेव प्रभु प्रमुख महा महोपदेशक भी मेरे जीवन के ध्रुवतारा स्वरूप नयनतारा के सेवा-सौभाग्य प्राप्त होने में सबसे प्रधान सहायक हैं। बंगला १३२९ में वार्षिक श्रीधाम नवद्वीप परिक्रमा एवं श्रीगौरजन्मोत्सव का समय उपस्थित हुआ। १० फाल्गुन से १८ फाल्गुन तक श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा एवं १९ फाल्गुन से २१ फाल्गुन तक तीन दिवस श्रीमायापुर योगपीठ में श्रीगौर जन्मोत्सव अनुष्ठित हुआ । १४ फाल्गुन १३२९ सोमवारवर्धमान जिला के काईग्राम निवासी जमींदार श्रीयुत तीर्थनाथ बसु महाशय की कृपा से हाथी की पीठ पर श्री श्रीराधागोविन्द जू को स्थापित कर श्रीकोलद्वीप परिक्रमा हुई। यह सब निश्चय ही आपके स्मरण में होगा।
श्रील प्रभुपाद के श्रीधाम वृन्दावन से कोलकाता लौटने के बाद नियम सेवा के समय ढाका श्रीमाध्व गौड़ीय मठ के वार्षिक उत्सव (१४ आश्विन से १८ कार्त्तिक १३२९) में उन्होंने कृपा पूर्वक शुभ विजय की। उस समय श्रील प्रभुपाद ने श्रीमाध्व गौड़ीय मठ में दो सप्ताह तक अवस्थान किया। श्रील प्रभुपाद के आगमन से केवल ढाका नगरी में ही नहीं, पूर्वबंग के प्रसिद्ध ग्राम एवं नगर समूह में उनके मुखारविन्द से हरिकथा रूपी गंगा प्रवाहित हुई। सत्यानुरागी एवं परम सत्य में प्रतिष्ठित सिंहगर्जनी श्रील प्रभुपाद हरिकथा द्वारा श्रीमन्महाप्रभु के विशुद्ध प्रेम भक्ति की बाढ़ जब समस्त पूर्वबंग मे आई तब बंगदेश के बहुत की प्राचीन धर्म व्यवसायी, वैष्णव धर्म विद्वेषी, भागवत व्यवसायी अवैदिक एवं पंचोपासक असद् व्यक्तियों को असुविधा हुई। उन्होंने दलबद्ध होकर श्रीमाध्व गौड़ीय वैष्णव धर्म के विरुद्ध ढाका के लक्ष्मी बाजार में दो बार प्रतिवाद सभा का आयोजन किया। इससे पूर्व ही श्रील प्रभुपाद पूर्वबंग से कोलकाता पहुँच चुके थे। उक्त स्थान पर द्वितीय सभा में ढाका जार्जकोर्ट के वकील लक्ष्मी बाजार निवासी परलोक गत प्रसिद्ध नामी श्रीगोविन्द चन्द्र भावाल ने उस समय विरोधी पक्ष से प्रतिवाद करके कहा हम सब संस्कृत नहीं समझते हैं, बंगला भाषा में स्वामीजी की कथा सुनेंगे। यह सुनकर मैंने सभा के बीच खड़े होकर प्रथम में ही केवल मात्र शास्त्र प्रमाण से कर्म- जड़ स्मार्त सम्प्रदाय के एकत्रित हुए व्यवसायी, कथक, संस्कृत भागवत पाठक सम्प्रदाय के अशास्त्रीय अपसिद्धान्त समूह को श्रील प्रभुपाद की शास्त्र युक्ति एवं सिद्धान्त मूलक श्रवण की हुई कथा से ओजस्विनी भाषा में प्रवचन कर वास्तविक सिद्धान्त स्थापन किया। यह सुनकर ढाका के तत्कालीन जार्ज सर अनंग मोहन लाहिड़ी महाशय आदि शिक्षित सज्जन ब्राह्मणों द्वारा जन साधारण के पक्ष में पुनः पुनः जगद्गुरु श्रीश्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद की जय ध्वनि से समस्त सभा मण्डप मुखरित हो गया।
श्रील प्रभुपाद ने १३ मार्च, १९३३ में त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज, श्रीयुत सम्विदानन्द दासाधिकारी भक्तिशास्त्री एम. ए. महोदय को साथ में देकर मेरे समान एक अयोग्य जरातुर भृत्य को लंदन एवं यूरोप के विभिन्न स्थान पर कर्म-यन्त्र प्राण महानगरी में श्रीगौरवाणी प्रचार के लिये भेजा। श्रील प्रभुपाद की कृपा से लंदन आकर श्रील गुरुदेव की इच्छानुसार श्रीहरिकथा कीर्त्तन एवं कतिपय सत्यानुसंधानकारी के निकट मैंने विशेष रूप से श्रीचैतन्यवाणी की आलोचना की। उसी समय मैंने श्रीगुर्वाष्टक, श्रीचैतन्याष्टक, श्रीनामाष्टक, वन्दना, प्रार्थना, प्रेमभक्ति चन्द्रिका एवं समस्त श्रीमद्भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसके अलावा (५०) अंग्रेजी प्रबन्ध भी लिखे। सपार्षद श्रील प्रभुपाद की कृपाशिरोधार्य कर श्रीचैतन्य भागवत का अवलम्बन कर सरल अंग्रजी भाषा में कैरियर एण्ड एक्टिविटिज् आफ श्रीकृष्णचैतन्य एण्ड हिज टीचिंग्स नामक कहानी रचना की। उसी समय श्रील प्रभुपाद ने बहुत पत्रों के माध्यम से अत्यन्त कृपापूर्वक मुझे सदुपदेश एवं प्रचार प्रणाली समूह की शिक्षा प्रदान की। उनके कृपा पत्रों में से एक दो पत्र अभी मेरे पास हैं एवं लंदन गौड़ीय मठ में विभिन्न समय प्राप्त हुये कृपा पत्रों से उनके जो उपदेश मैंने प्राप्त किये वे कुछ कथा उपदेश संग्रह कर आपके पास भेज रहा हूँ।
श्रीभगवान् सर्वव्यापी हैं, एकांश के कार्य में व्यस्त रहने से श्रीकृष्ण सेवा की धारणा विलुप्त होकर श्रीगर्भोदकशायी विष्णु की सेवा हो जाती हैं। श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा से वञ्चित हो जाते हैं। श्रीकृष्ण उपासना से गर्भोदकशायी व नारायण सेवा सम्पूर्ण पृथक् है । अपने को एकदेश-दर्शिता का परामर्श देने से कृष्णार्थे अखिल चेष्टा विशिष्ट होने के स्थान पर कृष्ण की आंशिक सेवा व्यतीत सर्वाधिक सेवा नहीं कर पाओगे। वर्सटाइल् अर्थात् सर्व विषय में सेवा कुशल न होकर कूप मण्डुक होने पर श्रीवार्षभानवी की सर्वतोमुखी सेवा से वैमुख्य प्राप्त होगा। एक चक्षु विशिष्ट होने पर समस्त प्रकार के कार्यों में आलस्य आ जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर, सर्वावतारी एवं सर्वव्यापी हैं। श्रीवार्षभानवी के हृदय धन की प्राप्ति श्रीवार्षभानवी के एकान्त आनुगत्य में ही होती है।
कोलकाता श्रीगौड़ीय मठ से श्रीधाम मायापुर को लिखित पत्र तारीख-८/६/३१
मेरे विचार से श्रील प्रभुपाद के इस अमूल्य उपदेश से हम सब लोगों की भ्रमपूर्ण धारणा यथा— अमुक सेवा कार्य अमुक व्यक्ति करेगा, मैं नहीं एवं अमुक सेवा के लिए संग्रहित भिक्षा द्रव्य उसी निर्दिष्ट सेवा में न लगाकर अन्यान्य सेवा में क्यों लगता है आदि एक देशीय दर्शिता मूलक बुद्धि सम्पूर्ण रूप से हटा कर श्रीवार्षभानवी नयनतारा सखी के आनुगत्य में हम सभी में सर्वतोमुखी सेवा बुद्धि उदित होगी। जो अपना सर्वस्व ही नहीं त्रिभुवन का यथा सर्वस्व सर्वक्षण श्रीकृष्ण सेवा में नियुक्त करने के लिए व्यस्त हैं। वे ही श्रील गुरुपादपद्म हैं। फिर जो अपना यथा सर्वस्व एवं त्रिभुवन का यथा सर्वस्व श्रील गुरुपादपद्य की सेवा में नियुक्त करने के लिए सर्वक्षण व्यस्त हैं, वही गुरुदास हैं अर्थात् श्रीकृष्ण के अधिक प्रिय हैं। बहुत लोगों के बीच हरिकथा कहते-कहते दो एक अच्छे व्यक्ति ही श्रीभागवत कथा में मनोयोगी हो पायेंगे, यह मेरे मन में विश्वास है। इसका फल इन दोनों आत्मा को प्राप्त होगा ।
(१९/३/३४) स्मरण रखें – आपके सह कर्मीद्वय के शुभानुध्यायी एवं सत परामर्शदात्री सूत्र में आपके निर्वाचन में ही हम सबका साफल्य निर्भर है। आपके न होने से यहाँ विशेष कार्य बहुत प्रकार से न होने पर भी आपके समान अभिज्ञ व्यक्ति का परामर्श नवीन उद्योगी को बहुत प्रकार से सहायता करेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। (७/७/३३) गौरलीला एवं कृष्णलीला ये दोनों विषय कई दिनों तक आलोचना के विषय थे। संज्ञा वियुक्त होने पर इस गौरकृष्ण सेवा की कथा मन में और स्मरण नहीं होगी, इसलिए संज्ञा रहते समय तक ही गौरकृष्ण सेवा चिन्तन करेंगे। आप दन्ते तृण धारण पूर्वक द्वार-द्वार विनयपूर्वक परम दैन्य के साथ श्रीमन्महाप्रभु की कथा कीर्त्तन करते रहें। आप योग्य पुरुष की कृपा अवश्य ही पायेंगे। भगवान् के यहाँ से पत्र नहीं आते। उनके अत्यन्त प्रियजन के माध्यम से उनका संवाद पाया जाता है। हमारे संवाद भी भगवद् भक्त के द्वारा उनके पास पहुँचते हैं। बंगला १३३४, १ जनवरी, १९३६ सन् जगद्गुरु श्रीश्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने अपनी अप्रकट लीला विस्तार की। उस समय श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज श्रील प्रभुपाद के चरणों में ही उपस्थित थे। उनको एवं अन्यान्य शिष्य को कृपाशीर्वाद प्रदान करके परम उत्साह के साथ श्रीरूप-र सबको आदेश देकर श्रील प्रभुपाद ने नित्यलीला में प्रवेश किया।
– रघुनाथ की कथा प्रचार करने के लिए
बंगला १३४७ २९ फाल्गुन, सन् १९४१ को श्रीचैतन्य मठ में प्रातः बाग बाजार गौड़ीय मिशन के (सन् १८६० के आइन अनुसार रजिस्ट्रीकृत) सभ्यवृन्द ने सम्मिलित होकर प्रथम वार्षिक उत्स अनुष्ठित किया। मिशन के सभापति के रूप से त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज निर्वाचित हुए। शरणागत शिष्य एवं सेवक के प्रति सहस्र पिता-माता के समान इनका स्नेह था। श्रीमहाराज ने कहा है— प्रथम साधु-गुरु-वैष्णव सेवा, उसी के साथ श्रीभगवद् ग्रन्थ अनुशीलन एवं कथा श्रवण आदि करना होगा। शुश्रुषा अर्थात् सेवा और श्रवण करने की जिनकी इच्छा है वास्तविक रूप में उसी को शुश्रुषु व्यक्ति कहते हैं। श्रीमहाराज सेवकों का हाथ पकड़-पकड़ कर सेवा की शिक्षा देते थे। वे सद्ग्रन्थानुशीलन एवं श्रीमद्भगवद् गीता के पठन-पाठन के विषय में बहुत ध्यान देते थे।
श्रीमहाराज सबको हरिकथा नोट करने के लिए हमेशा निर्देश देते थे। फिर कहते थे कि जिनकी स्मरण शक्ति नहीं है, उनका हरिभजन होना बहुत मुश्किल है।
वे प्रतिदिन गौड़ीय मठ के श्रवण सदन में सभी मठवासियों को लेकर इष्टगोष्ठी की कक्षा लेते थे सब से पूछते थे, जब माधुकरी करने गये तब किसके साथ किस-किस कथा की आलोचना हुई ? सेवकों ने उसके उत्तर में कहा, रात्रि में आपके मुखारविन्द से जो-जो कथा सुनी थी, लोगों को वही कथा सुनाई है, तब यह सुनकर श्रीमहाराज बहुत आनन्दित होते थे। उत्साहित करते हुये कहते हरिकथा एकान्त मनोयोग पूर्वक हृदयंगम करके सुनना चाहिये, नोट करना चाहिये। तब तुम दूसरे लोगों को समझा सकते हो। प्रथम अपने आप सुन्दर रूप से हरिकथा श्रवण करनी होगी, तब दूसरों को कथा सुना सकते हो एवं सेवा करा सकते हो। एक समय किसी सेवक ने मायापुर जाकर संस्कृत टोल में व्याकरण पढ़ने का आदेश माँगा । यह सुनकर श्रील महाराज ने कहा— शुद्ध मन से निष्कपट भाव लेकर श्रीहरि – गुरु- वैष्णव सेवा करो । श्रीहरि गुरु- वैष्णव कृपा से तुम्हारे अन्दर सर्वतत्त्व स्वयं स्फुरित होंगे। सेवोन्मुखी के हृदय में सर्वतत्त्व – ज्ञानमय वस्तु स्वयं ही प्रगटित हो जाती है। प्रतिदिन जो सब शास्त्र आलोचना तथा हरिकथा होती है, उसको एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो, उसी में तुम्हारा पढ़ने का कार्य पूरा हो जायेगा।
श्रीचैतन्य मठ के नाट्य मंन्दिर में श्रील महाराज प्रतिदिन पाठ करते थे। कभी-कभी मठ के सभी सेवकों को लेकर इष्टगोष्ठी के माध्यम से सभी को भाषण देने के लिए शिक्षा देते हुए, प्रत्येक सेवक को पाँच मिनट का समय देकर भाषण देने को कहते थे। उन्होंने कहा- -आज थोड़ा, कल थोड़ा भाषण करते-करते यदि तुम्हारा अध्यवसाय एवं अकपट चेष्टा रही, तो तुम एकदिन अच्छे वक्ता बन जाओगे। श्रील महाराज सेवा एवं पाठ वक्तृता में समस्त सेवकों को बहुत उत्साह प्रदान करते थे। वे अतिशय सरल थे। सेवक को थोड़ा शासन करते हुए कहते थे- तुम लोग बहुत आलसी हो हम सब पहले श्रीलगुरुदेव के साथ श्रीचैतन्य मठ में रहते हुए श्रीभगवान् की रसोई, अर्चन, पूजा, भोगराग आदि सम्पन्न करके श्रील प्रभुपाद को भोजन कराकर श्रीनवद्वीप बाजार में दैनिक नदिया प्रकाश पत्रिका विक्रय करने के लिए जाते थे। फिर लौटकर मठ में श्रीठाकुर जी को जगाना, रसोई बनाना, प्रबन्ध लिखना, कीर्त्तन करना, श्रीलगुरुदेव की कथा श्रवण करना और एक लाख श्रीहरिनाम पूरा करना, तब विश्राम करते थे। उस समय श्रीमायापुर श्रीचैतन्य मठ, श्रीवास अंगन, योगपीठ पक्का घर व मंन्दिर नहीं था। घाँस के ही बने घर एवं मन्दिर | मजदूर के साथ बगीचा और खेती का काम करना पड़ता था उसमें धान, मूंग, मटर, बेगुन, आलू आदि लगाते थे। उसी से पूरे सालभर श्रीमन्महाप्रभु की सेवा होती थी। इतना कुछ करके हम सब प्रशान्त चित्त से श्रीलगुरुदेव की सेवा एवं मठवास करते थे। तुम सबको भी इसी प्रकार करना होगा, यह सब हम सिखायेंगे। आज-कल तो बहुत सुविधा हो गई, फिर भी तुम सभी हरिभजन करने में चेष्टा शून्य दिख हो, यह बड़े ही दुःख की बात है।
थे।
श्रील महाराज परम दयालु थे। सबको हरिभजन कराने के लिए उनका अत्यन्त आग्रह व चेष्टा हमेशा -आज तुम्हें रहती थी। किसी सेवक ने पाठ-कीर्त्तन में योगदान नहीं किया, यह देखकर उसे कहते थे- प्रसाद नहीं मिलेगा। पाठ -कीर्तन के समय कोई ब्रह्मचारी को नींद में देखकर श्रील महाराज एकदिन प्रसाद पाने के समय उसी स्थान पर श्रीचैतन्य चरितामृत लाकर पाठ करने लगे। सबके सामने प्रसाद की थाली -अभी पहले कथा श्रवण करो फिर प्रसाद पाना जो सेवक क्लास में थी और महाराज ने कहा सुन्दर रूप से कथा नहीं बोल सके और श्लोक भी याद नहीं कर सके, उसे सबके सामने खड़ा करके श्लोक उच्चारण कराते एवं कभी कभी पिटाई भी करते थे। श्रील महाराज शिक्षागुरु के रूप से समझाते कि, दही के पानी से भरे हुए कलश को गंगा में डुबाने से क्या होगा, जितना टट्टी का पानी कम होगा, उतना ही गंगाजल भरेगा। तुम्हारे कान के द्वारा जितना हरिकथा रस अंदर जाकर हृदय कलश भरता रहेगा, उतनी ही भक्ति के रूप में सेवा वृत्ति जाग्रत होगी। विषय रूपी विष्ठा के पानी से हृदय कलश भरा रहेगा तो उसमें भक्ति रूपी गंगा का कथा रस कैसे भरेगा ?
श्रील महाराज ने हरिकथा के माध्यम से कहा- -सम्बन्ध ज्ञान नहीं होने से भक्ति जाग्रत नहीं होती. है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी को सर्वतोभाव से सब प्रकार का अभिमान छोड़ना होगा। में नित्य श्रीकृष्ण के दासों का दास हूँ अर्थात् नित्य श्रीगुरुदास हूँ, यह अभिमान चौबीसों घंटे मन में रखना चाहिये। यह अभिमान जितना कम होता जायेगा, उतना ही माया का विस्तार होता जायेगा। श्रीकृष्ण की सेवा करना ही प्रत्येक जीव मात्र का स्वधर्म है। जैसे पति की सेवा करना पतिव्रता नारी का धर्म है. जो परम पति श्रीकृष्ण की सेवा नहीं करते, वे स्व-धर्म त्यागी असती स्त्री के समान हैं। साधु-गुरु एवं श्रीकृष्ण को अपने कान से देखो अर्थात् श्रौत पथ से देखो, यह सभी शास्त्रों का निर्देश एवं उपदेश है। यह श्रीलप्रभुपाद एवं सकल महाजनों का उपदेश है। आँखों से देखोगे तो पाप बनेगा एवं कान से सुनकर देखोगे तो असली दर्शन होगा। पहले श्रवण उसके बाद दर्शन । हरिकथा श्रवण में जिनकी रुचि नहीं है, उन्हें हरि-गुरु- वैष्णव का वास्तविक दर्शन नहीं होता, जड़ वस्तु का दर्शन होता है।
श्रील महाराज सेवकों का कभी भी अनादर नहीं करते थे। वे सबको प्रभु सम्बोधन करते थे। पत्र लिखने के समय पत्र के प्रारम्भ में, श्रीभागवत चरणे दण्डवत् प्रणति पूर्विकियम् एवं पत्र के शिरोनामा में परम भागवत् इस प्रकार लिखते थे। श्रील महाराज के जीवन में जीव के प्रति दया एवं परोपकारिता की तुलना स्वयं अपने से ही है। लम्बी अवधि तक श्रीगौड़ीय मिशन के प्रचार कार्य करने के बाद श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ गोस्वामी महाराज ने बंगला १३५० वैशाख महीना में श्रीजगन्नाथ धाम क्षेत्र में आगमन करके श्रील गुरुवर्गों के निर्देशानुसार वहाँ श्रीपुरुषोत्तम मठ में एकान्त भाव से केवल हरिनाम भजन किया। उस समय उनकी उम्र लगभग (८२) वर्ष थी।
सन् १९५४, श्रीपुरुषोत्तम धाम, पवित्र अग्रहयण महीना, पूर्णिमा तिथि इन सबका मिलकर एक अपूर्व संयोग हुआ। उस दिन प्रातः काल से श्रील महाराज का एक अभिनव वात्सल्य भाव सबके प्रति प्रकाशित हुआ। एक-एक करके सबको बुलाकर अत्यन्त स्नेहपूर्वक भगवद् भजन करने का उपदेश किया। प्रतिदिन नियमानुसार श्रीविग्रह दर्शन, दण्डवत् प्रणाम, स्तवादि पाठ समाप्त करके वे अपनी भजन कुटीर में बैठे और प्रात:काल में थोड़ा दूध मात्र पान किया। श्रीगौरांग स्मरण मंगल एवं श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी के स्वनियम दशकम् का पाठ करते समय अत्यन्त दैन्य भाव से बहुत रुदन करने लगे। उसके बाद श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से ब्रह्मा स्तवादि भावाविष्ट हृदय से पढ़ने लगे। दिन के साढ़े ग्यारह बजे तक पाठ किया। सेवक श्रीअनाथ नाथ दास ब्रह्मचारी ने दोपहर में स्नान आदि के लिए जल तैयार कर श्रीलमहाराज के श्रीअंग में तेल मर्दन कर स्नान कराया। उस दिन महाराज ने सेवक को नया वस्त्र लाने के लिए कहा। सेवक ने तुरन्त नया वस्त्र लाकर उनको दिया। वे वस्त्र पहनकर नये आसन पर बैठकर अपने द्वादश अंग में तिलक धारण किये नित्य नियमित जप के अन्त में श्रीतुलसी में जल देकर श्रीतुलसी परिक्रमा की एवं वहाँ से ही भगवान् श्रीजगदीश के उद्देश्य से प्रणाम किया। फिर प्रसाद सेवन किया। अल्प समय विश्राम करने के बाद सेवक को बुलाकर नित्य नियमित श्रीचैतन्य चरितामृत पाठ करके सुनाने के लिए आदेश किया। पाठ श्रवण के लिए श्रील महाराज एक नये आसन पर बैठे। उनके हाथ में श्रीहरिनाम जप मालिका थी । श्रवण करते समय बीच-बीच में उच्चस्वर से हा गौरहरि हा नित्यानन्द ! बोलकर पुकारने लगे। उस समय श्रीचैतन्य भागवत के मध्यलीला में श्रीमन्महाप्रभु की नगर संकीर्तन की कथा का सेवक ब्रह्मचारी ने सुस्वर में पाठ किया—
तथाहि पाहाड़ राग
नाचे विश्वम्भर जगत ईश्वर,
भागीरथी तीरे तीरे ।
या पदधूलि हइ कौतुहली,
सबेइ धरिल शिरे ।।
अपूर्व विकार, नयने सुधार,
हुँकार गर्जन शुनि ।
हसिया हसिया, श्रीभुज तुलिया,
बले हरि हरि वाणी ।।
मदन सुन्दर, गौर कलेवर,
दिव्य वास परिधान |
चाँचर चिकुरे, माला मनोहरे,
न देखि पाँचवा । ।
चन्दन चर्चित, श्री अंग शोभित,
गले दोले वनमाला ।
दुलिया पड़ये, प्रेमे थिर नहे,
आनन्दे शचीर बाला ।।
काम शरासन, भ्रू-युग पत्तन,
भाले मलयज बिन्दु।
मुकुता दशन, श्रीयुत वदन,
प्रकृति करुणासिन्धु ।
क्षणे शत शत विकार अद्भुत,
कत करिव निश्चय ।
अश्रु कम्प- धर्म, पुलक वैवर्ण्य,
ना जानि कतेक हय ।।
त्रिभंग हइया, कभु दाड़ाइया,
अंगुले मुरली बाय।
जिनि मत्त गज, चलइ सहज,
देखि नयन जुड़ाय ।।
अति मनोहर, यज्ञ सूत्र धर
सदय हृदये शोभे ।
ए बुझि अनन्त, हई गुणवन्त,
रहिला परश लोभे ।।
नित्यानन्द चाँद, माधव नन्दन,
शोभा करे दुइ पाशे ।
यत प्रियगण, करये कीर्त्तन,
सदा चाहि चाहि हासे ।।
जाँहार कीर्तन, करि अनुक्षण,
शिव दिगम्बर भोला ।
से प्रभु विहरे, नगरे नगरे,
करिया कीर्त्तन खेला।।
(चौ. भा. २३ / २७१ / २८० )
इतना श्रवण करके श्रील महाराज ने प्रेम विगलित हृदय से अजस्र अश्रुपात करते करते अवरुद्ध कण्ठ से कहा, श्रीगौर सुन्दर के दायें-बायें श्रीनित्यानन्द एवं श्रीगदाधर, आहा ! कितनी अपूर्व शोभा विस्तार की। यह कहकर हाथ की जप मालिका सम्मुख स्थित चौकी पर रख दी। हाथ जोड़कर नत मस्तक होकर अत्यन्त करुण स्वर से – हा गौर! हा निताइ ! हा गदाधर ! ऐसा पुकार कर श्रीमहाराज निःशब्द होकर बैठे रहे। इधर श्रीचैतन्य भागवत का पाठ क्रमानुसार चल रहा था। पाठ के बीच कुछ समय तक श्रील महाराज की कोई आवाज न सुनकर पाठ करने वाले ब्रह्मचारी ने महाराज! महाराज! कहकर पुकारा। फिर भी कोई उत्तर न पाकर मन में सोचा कि क्या महाराज जी को निद्रा आ गई? इसी सन्देह से उनके अंग को स्पर्श कर ब्रह्मचारी ने अकस्मात् उच्चस्वर से महाराज ! महाराज! कहकर रोते हुए सभी को बुलाया। श्रील महाराज जी अब इस संसार में नहीं हैं। योगासन में बैठकर उन्होंने श्रीमन्महाप्रभु के नित्य महा-संकीर्त्तन रासस्थली में प्रवेश किया। उन्हें इस मर्त्यलोक में अब कभी नहीं देख पायेंगे, यह सोचकर सभी भक्त विरह-वेदनाश्रु बहाकर रुदन करने लगे। उस समय सबके अन्दर श्रील हरिदास ठाकुर के अन्तर्धान की कथा स्मरण हुई। श्रील महाराज जैसे एक महारत्न आज गौड़ीय वैष्णव जगत् से अन्तर्हित हो गये।