पूर्वबंग फरिदपुर जिला के कार्शियान ग्राम में १२८८ बंगाब्द में उनका आविर्भाव हुआ। भगवद्भजन के लिए अत्यन्त आग्रह से विह्वल होकर पहले बिना समझे असाधु सम्प्रदाय के साथ जुड़े हुये थे। सन् १९१५ में अतिमर्त्य महापुरुष श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के चरण दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रील प्रभुपाद के दिव्य दर्शन, शुद्ध भजनादर्श, अत्यन्त दैन्यता पूर्वक मधुर व्यवहार और श्रीमुख से भीर्यवती हरिकथा सुनकर एवं वह समझकर जगत् में शुद्ध-अशुद्ध वैष्णव, सत्यधर्म एवं धर्मव्यवसायी, सद् गुरु एवं व्यवसायी गुरु इस विषय में सखीचरण राय को सम्पूर्ण रूप से पता चला और वास्तविक ज्ञान प्राप्त हुआ। तब उन्होंने सब कुछ छोड़कर एकान्त भाव से श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के चरण में नित्यकाल के लिए पूर्ण शरणागतिपूर्वक आश्रय लेकर उनसे हरिनाम और पांचरात्रिक दीक्षा ग्रहण की। उसके पश्चात् श्रील प्रभुपाद से बहुत महदुपदेश एवं शिक्षा लेकर शुद्धभाव से श्रीकृष्णभजन करते रहे।

वह नमक का कारोबार करते थे। सद्‌गुरु के चरणाश्रय से कृपा प्राप्त होकर श्रीहरिनाम ग्रहण के पश्चात् उनका कारोबार भगवान् की इच्छा से बहुत जोरदार जम गया। उनके वाणिज्य का सखीचरण राय एण्ड सन्स प्राईवेट लिमिटेड नाम दिया। कारोबार का सारा अर्थ श्रीसखीचरण प्रभु ने श्रील गुरुदेव प्रभुपाद के आनुगत्य से प्राण भरकर श्रीधाम मायापुर में श्रीमन्महाप्रभु एवं श्रीचैतन्य मठ की सेवा में उत्सर्ग कर दिया। इस प्रकार परम सेवा उत्साह से सन्तुष्ट होकर श्रीनवद्वीप धाम प्रचारिणी सभा में श्रील प्रभुपाद ने उनको भक्तिविजय उपाधि से विभूषित किया। श्रीधाम मायापुर स्थित श्रीमन्महाप्रभु की आविर्भाव स्थली, श्रीयोगपीठ श्रीमन्दिर, श्रीचन्द्रशेखर भवन, श्रीचैतन्य मठ में समस्त बिजली की व्यवस्था वैद्युतिक आलोकमाला एवं श्रीचैतन्य मठ में बृहद् भक्तिविजय भवन ये सब श्रीपाद सखीचरण प्रभु के अर्थानुकूल्य से हुआ। उनके अर्थानुकूल्य में श्रीचैतन्य चरितामृत का बृहद्रूप से चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हुआ। सन् १९३३ में श्रील प्रभुपाद के निर्देश से समस्त विदेश प्रचारकों के लिए अर्थानुकूल्य में श्रीपाद सखीचरण प्रभु सबसे अग्रणी थे। श्रीचैतन्य मठ एवं अन्यान्य शाखामठ समूह के एवं क्षेत्रमण्डल, ब्रजमण्डल के विभिन्न स्थानों पर स्मृति फलक स्थापन में समस्त प्रकार का व्ययभार वहन किया। इस प्रकार श्रीगुरु वैष्णव भगवान् एवं श्रीधाम की सेवा में एक उज्ज्वल आदर्श स्वरूप दृष्टान्त स्थापित किया।

श्रील प्रभुपाद के अन्तर्धान के पश्चात् अपने पुत्र को संसार की सारी विषय सम्पत्ति समर्पण करके श्रीधाम वृन्दावन में आश्रय लेकर ८/९ वर्ष अत्यन्त भाव विह्वल अवस्था में श्रीमती राधारानी के श्रीचरणों का ध्यान कर एकान्त रूप से हरिभजन में निमग्न होकर जीवन सार्थक किया। अन्त में १३६८ बंगाब्द ९ भाद्र, श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु के शुभाविर्भाव तिथि पर श्रीधाम वृन्दावनस्थ इमलीतला सेवाकुंज के सेवाध्यक्ष एवं सभापति परम पूज्यपाद श्रीमद्भक्तिसारंग गोस्वामी महाराज से निष्किंचन बाबाजी वेष ग्रहण करके श्रीमद् सखीचरण दास बाबाजी नाम से समस्त गौड़ीय वैष्णवों में सुख्याति प्राप्त की। उसी वर्ष में १५ कार्त्तिक बुधवार ८० वर्ष की आयु में उन्हें ब्रजरज प्राप्त हुई।