श्री श्री सारस्वत गौड़ीय आसन और मिशन के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद १०८ श्री श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज
प्रणाम
नमो ॐ विष्णुपादाय गौरप्रेष्ठ प्रियाय च ।
श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामीने नमः ।।
वैष्णवाचार्य पादाय गुरुसेवैक जीविने ।
श्रीसारस्वत गौड़ीयासन स्थापन कारिने ।।
श्रीगुरोराज्ञया नित्य निष्ठा योगेन सर्वथा ।
वाणी प्रचार कार्याय श्रीरूप – रघुनाथयोः ।।
श्रीमद्भक्तिविवेक भारती स्वामी त्रिदण्डिने ।
भृत्या वयं नमामि हि सनम्र भक्ति योगेन ।।
श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज बंगला देश यशोहर जिला के एक मध्यवित्त बसु परिवार में आविर्भूत हुये। मातापिता ने इनका नाम रखा श्रीअमलाकान्त बसु । बाल्यकाल में ही इनके पिता का अन्तर्धान हो गया। ज्येष्ठ भ्राता एवं विधवा माता जी के साथ कुछ समय रहकर अतिशय पारदर्शिता के साथ अध्ययन समाप्त किया। उस समय सामाजिक व्यवस्था के अनुसार माता जी ने उनकी अल्प आयु में ही विवाह कर दिया था। अतः उन्होंने किसी विशेष सरकारी पद पर कार्यरत रहते हुए संसार में प्रवेश किया। उस समय ब्रह्ममाध्व गौड़ीय सम्प्रदाय के आचार्य चूड़ामणि श्री श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के मुखारविन्द से विश्वप्रेमिक श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के निर्मल प्रेमभक्ति धर्म की प्रचार वार्ता श्रवण कर दुर्लभ मानव जीवन के वास्तविक कर्त्तव्य विषय का ज्ञान हुआ। संसार की अनित्यता समझकर उन्होंने समस्त प्रकार के बंधन और भोगवासना का मलवत् त्याग कर छब्बीस वर्ष की आयु में श्रील प्रभुपाद के दिव्य दर्शन और वाणी से आकृष्ट होकर उनके श्रीचरणों में नित्य आश्रय ग्रहण किया। श्रील प्रभुपाद ने उन्हें अपना समझकर अति शीघ्र हरिनाम व कृष्णमन्त्र पाञ्चरात्रिक वैष्णव दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के पश्चात् श्रील प्रभुपाद ने उनको श्रीपाद नयनाभिराम दास ब्रह्मचारी पारमार्थिक नाम दिया। श्रील गुरु पादपद्म प्रभुपाद के चरणों में अवस्थान करते समय एकदिन प्रबल तूफान और वर्षा के कारण मठ में श्रीविग्रहों को भोग एवं रसोई के बर्तनों को कोई सेवक परिस्कार नहीं कर पाये। इस अवस्था में श्रीपाद नयनाभिराम ब्रह्मचारी ने उसी तेज वर्षा में भीगते हुए बर्तन पात्र आदि सुन्दर रूप से साफ करके भगवान् के भोग को प्रस्तुत करने में सहायता की। जिससे भयंकर प्राकृतिक दुर्योग विपद के बीच श्रीभगवान् का मध्याह्न भोगराग ठीक समयानुसार निवेदन कर आरती आदि सुसम्पन्न हुई। श्रीपाद नयनाभिराम की इस प्रकार सहिष्णुता एवं अनुराग पूर्ण सेवा का आदर्श देखकर श्रील प्रभुपाद अतिशय सन्तुष्ट हुए। श्रील प्रभुपाद के जीवन में द्वितीय संन्यासी के रूप से बंगला २९ कार्त्तिक १३२, १५ नवम्बर सन् १९२१, ३० दामोदर ४३५ गौराब्द मंगलवार श्रीरास पूर्णिमा एवं ऊर्जाव्रत समाप्ति के दिन श्रीपाद नयनाभिराम भक्तिशास्त्री प्रभु को श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद ने यथा विहित वैदिक एवं पाञ्चरात्रिक विधानानुसार दिव्य त्रिदण्ड संन्यास दीक्षा प्रदान की। संन्यास के बाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति विवेक भारती गोस्वामी महाराज नाम से विद्वत् वैष्णव जगत् में सुख्याति प्राप्त हुए। दर्शने पवित्र कर एइ तोमार गुण यह वास्तविक सत्य है। श्रील भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज के सुदीर्घ आजानुलम्बित भुजा एवं दिव्य संन्यासी रूप के दर्शन जिस व्यक्ति ने जीवन में एकबार कर लिये, वह उन्हें कभी नहीं भूल पाया। जिन्होंने एक बार उनके मुखारविन्द से एकान्त रूप से हरिकथा श्रवण की, तो उन्हें संसार जीवन में शुद्ध वैराग्य अवश्य ही प्राप्त हो गया। श्रील महाराज अपने मीठे वचन और सरल व्यवहार द्वारा सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । इन्हीं गुणों से सन्तुष्ट होकर आप श्रील प्रभुपाद के विशेष रूप से कृपा और स्नेह पात्र हुए। श्रीचैतन्य मठ में श्रीचैतन्यवाणी, श्रीमद्भक्तिविनोद वाणी, कीर्त्तनीया, वक्ता और पाठक की योग्यता अर्जित कर एक श्रेष्ठ प्रचारक के रूप में आप प्रतिष्ठित हुए । उनके मुखारविन्द से हरिकथा, नाम संकीर्त्तन व प्रवचन श्रवणकर एवं अलौकिक नृत्य दर्शन करके श्रोता और दर्शकवृन्द अतिशय मुग्ध हो जाते थे। विशेष अवसरों पर विभिन्न प्रदेश के भक्ति पिपासु सज्जनवृन्द उनके मुखारविन्द से भागवत कथा श्रवण करने के लिए यथायोग्य सम्मान पूर्वक उन्हें ले जाते थे ।
एकदिन उनकी माता ठाकुराणी एवं सहधर्मिणी दोनों ढाका स्थित श्रीमाध्वगौड़ीय मठ में उनके श्रीभागवत पाठ करने के समय श्रोता के रूप में उपस्थित थीं। यह देखकर सभी मठवासी भयभीत होकर सोचने लगे कि आज अवश्य ही श्रील महाराज का मन चंचल हो जायेगा या आकस्मिक कोई दुर्घटना उपस्थित हो सकती है। किन्तु आश्चर्य की बात है अकाले सकाल पथ बहु दूर नदी बहुत भयंकर एवं तरंग संकुल । माझि बड़ शख्त इस दृष्टान्त के अनुसार उस समय नवीन संन्यासी महाराज को मायादेवी किसी प्रकार से प्रभावित नहीं कर सकी। उनकी माता और पत्नी दोनों ही विशेष श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक श्रील महाराज के मुखारविन्द से मधुर हरिकथा श्रवण एवं उनके दिव्य संन्यासी रूप का दर्शन कर लौट गये। श्रील महाराज का दिव्य श्रीमूर्ति दर्शन, सुमधुर वचन भंगी से भक्तिवार्ता कीर्त्तन एवं वैष्णवोचित व्यवहार के द्वारा सबके निकट वे अतिशय श्रद्धा के पात्र हो गए। महाराज के मुखारविन्द से हरिकथा श्रवण कर कालान्तर में पूर्वाश्रम की गर्भधारिणी माता एवं सहधर्मिणी ने श्रील प्रभुपाद के चरणों में आश्रय ग्रहण कर हरिभजन आरम्भ किया। महाराज प्रचुर परिमाण में सेवानुकूल्य वस्तु संग्रह कर श्रीहरिगुरु- वैष्णव सेवा में लगाते थे। यह देखकर श्रील प्रभुपाद ने सन्तुष्ट होकर उनको कृपाशीर्वाद दिया।
श्रील महाराज ने बहुत से व्यक्तियों को श्रीमन्महाप्रभु के प्रचारित शुद्ध भक्ति मार्ग में आकर्षित किया। बहुत सारे विद्वान, धनवान, कुलवान, गुणवान व्यक्ति उनके श्रीचरणों में नतमस्तक हुए। उनके प्रचार के समय कूचविहार की महारानी साहिबा अपने महल में त्रिदण्डि संन्यासी श्रील महाराज के दिव्य दर्शन कर अचम्भित हो गई। मन में भिक्षार्थी सोचकर बहुत मूल्यवान सेवानुकूल्य उपहार स्वरूप भेंट लेकर जब उनके पास महारानी उपस्थित हुई, तब महाराज ने महारानी के सम्मुख बज्र के समान गम्भीर स्वर में कहा— रे हतभागिनी ! जड़ अर्थ भिक्षा ग्रहण के लिए भिक्षार्थी होकर तेरे द्वार पर नहीं आया तेरे वैभव जनित दुःख-कष्ट देखकर तुझे उससे परित्राण करने के निमित्त श्रीमन्महाप्रभु की परमार्थ शिक्षा एवं उनके श्रीचरणारविन्द में नित्य आश्रय के साथ विशुद्ध प्रेमभक्ति धर्म में दीक्षित करके परम शान्ति सुखमय, आनन्दमय दिव्य जीवन दान करने के लिए तेरे पास आया हूँ। यह सुनकर तत्क्षणात् भोग प्रमत्ता महारानी के हृदय में श्रीलमहाराज के बज्र गम्भीर वाक्य एक विद्युतशक्ति के समान चुभ गये। तब महारानी ने अत्यन्त लज्जित होकर नवीन संन्यासी श्रीलमहाराज के चरणों में नतमस्तक होकर कहा- मैंने केवल आपको ही मेरे जीवन में एकमात्र परम हितैषी और परम बान्धव के रूप में देखा है। आज तक मुझे अन्य सभी ने चापलूसी करके प्रशंसा और सम्मान देकर उच्च शिखर पर उठा कर रख दिया था । प्रायः सभी मुझ से भय करते हैं, किन्तु आपके मुखारविन्द से निर्भीक सम्बोधन रूपी उपदेश वाणी को सुनकर आज मुझे वास्तविक चैतन्यता प्राप्त हुई है। इतना कहकर विदुषी महारानी ने श्रीलमहाराज के चरणों में नित्य आश्रय पाने की भिक्षा की।
इस प्रकार श्रील महाराज ने बहुत से स्थानों पर निर्भीक रूप से प्रचार करके विश्वव्यापी श्रीगौड़ीय मठ समूह के आचार्य भास्कर परमाराध्यतम श्री श्रीलगुरु पादपद्म श्री श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर को प्रचुर आनन्द प्रदान किया। १ जनवरी १९३७ सन् को श्रील सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के अन्तर्धान होने पर निर्भीक प्रचारक के रूप में गुरुभ्राताओं के साथ कुछ समय तक प्रचार किया। सर्वत्यागी विरक्त
संन्यासी श्रीलमहाराज एकान्त में हरिभजन करने की इच्छा से श्रील गुरुपादपदा के आविर्भाव स्थान एवं श्रीमन्महाप्रभु की दिव्य लीला भूमि श्रीपुरुषोत्तम धाम पहुँचे। श्रीश्रीजगन्नाथ देव का आश्रय कर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की समाधि मन्दिर के निकट वाणी भवन में रहने लगे। श्रीमद्भागवत शास्त्र का आश्रय कर मन ही मन वे नील मेघवर्ण अपने प्राणधन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण मूर्ति का ध्यान करते हुए अकिंचन भाव से माधुकरी भिक्षा द्वारा जीवन बिताने लगे। महाराज को इस प्रकार अत्यन्त दीन भाव से भजन करते हुए देखकर आली की महारानी ने उनको अपना वाणी भवन सौंप दिया। श्रील महाराज महारानी की इस प्रकार की सेवा से अतिशय सन्तुष्ट होकर कृतज्ञता प्रकट कर साधोचित व्यवहार से उनको हरिभजन करने के लिए विशेष शिक्षा प्रदान करने लगे। महारानी ने शिक्षा ग्रहण कर उनके श्रीचरणों में आश्रय लेकर हरिनाम – दीक्षा ग्रहण कर हरिभजन करने लगीं। महारानी ने अपने श्रीलगुरुदेव से अन्यत्र माधुकरी भिक्षा न करने के लिए विनम्र भाव से प्रार्थना की एवं उनकी सभी आवश्यकता पूर्ति की व्यवस्था कर दी।
इस प्रकार श्रीलमहाराज को वाणी भवन में रहते हुए नौ वर्ष का समय बीत गया। एकदिन चपरासी ने आकर उनके हाथ में एक पत्र दिया। उस पत्र को खोलकर देखा कि उनके अभिन्न विग्रह संन्यासी गुरुभ्राता श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन मिशन के सभापति व आचार्य देव त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति श्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज ने वह पत्र भेजा है। उन्होंने अत्यन्त विनम्र भाव से लिखा था कि, पत्र पढ़ते ही आप कृपा पूर्वक कोलकाता आकर श्रीचरण दर्शन दीजिये। आपका दिव्य दर्शन एवं संग पाने के लिए आपके आने में अधिक विलम्ब होने पर मैं अवश्य ही प्राण त्याग कर दूँगा। यह पढ़कर श्रीलमहाराज की आँखों से आँसू बहने लगे। श्रीमद्भक्तिवैभव नारायण महाराज को उस पत्र का ममीर्थ सुनाया कि, श्रीसिद्धान्ती महाराज ने पत्र में लिखा है कि यदि मैंने उन्हें संग लाभ एवं शीघ्र दर्शन नहीं दिये तो वे अवश्य ही प्राण त्याग करेंगे। इस धर्म संकट के समय मेरा क्या कर्त्तव्य है? अपनी एकान्त में हरिभजन करने की अभिलाषा त्यागकर उनसे शीघ्र मिलने के लिए एक पत्र लिखकर भेजा। श्रीलमहाराज कुछ दिन बाद वाणीभवन को त्यागकर कोलकाता पहुँचे एवं अपने गुरुभ्राता के साथ मिलकर रहने लगे। दोनों ने परामर्शपूर्वक श्रील गुरु पादपद्म प्रभुपाद के संकल्पित अवशेष अभीष्ट पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प लिया। कुछ दिन बाद २४ परगना वासुदेवपुर स्थान पर एक अस्थायी आसन मठ स्थापित किया। कालक्रम से कुछ अमांगलिक घटना के कारण वह स्थान छोड़कर श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद के अभीष्ट अनुसार शुद्धभक्ति प्रचार के लिए कोलकाता महानगरी के भवानीपुर में श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन मिशन की स्थापना कर श्रीविग्रह प्रतिष्ठा की।
कुछ दिन बाद पुरीधाम श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन मिशन की शाखा मठ स्थापन के लिए एक भूमिखण्ड लेने का संकल्प लिया। इस विषय में एक आश्चर्यपूर्ण घटना घटित हुई। मठ के लिए भूमिखण्ड मिल गया लेकिन भूमि स्वामी का कोई पता नहीं था । स्थानीय लोगों से महाराज को पता चला कि भूमि स्वामी हावड़ा जिला में रहता है, किन्तु हावड़ा जिला में उसके रहने का सही पता किसी के पास नहीं है। श्रीलमहाराज ने अपने आश्रित श्रीपाद कालीयदमन प्रभु एवं वकील बाबू श्रीपाद भूतनाथ प्रभु को भूमि स्वामी की खोज करने हावड़ा जिला जाने का आदेश किया। आदेश पाकर दोनों बातचीत करने लगे कि हावड़ा जिला बहुत बड़ा स्थान है, इस व्यक्ति का पता कैसे और कहाँ मिलेगा । महाराज ने इन दोनों को विशेष चिन्तित देखकर सर्वज्ञता रूप से कहा आप दोनों चिन्ता कर रहे हैं? आप लोग हावड़ा जिला तो जाइये, जैसे ही आप दोनों हावड़ा स्टेशन पर उतरोगे, वहीं पर आपको भूमि का मालिक मिल जायेगा। वास्तव में श्रील महाराज के कथनानुसार ऐसा ही हुआ। वे दोनों जब हावड़ा पहुँचे, गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरते ही अचानक इन दोनों से एक व्यक्ति ने पूछा- आप लोग कहाँ से आ रहे हैं? इन्होंने कहा हम दोनों पुरीधाम से एक जमीन के मालिक को खोजने के लिए आये हैं। यह सुनकर उस व्यक्ति ने कहा – मैं ही उस जमीन का मालिक हूँ। यह सुनकर ये दोनों आश्चर्य चकित हो गये। पुरी लौटकर इन दोनों ने सारी घटना महाराज को सुनाई, जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हो गए। आज उस जमीन पर श्रीमन्दिर विराजित होकर सुशोभित हो रहा है।
कोलकाता श्रीगौड़ीय आसन मिशन के श्रीमन्दिर निर्माण का कार्य समाप्त हुआ। श्रीविग्रह का प्रतिष्ठा दिन निश्चित हो गया, किन्तु श्रीविग्रह कहाँ से एवं कैसे प्राप्त होंगे इसका कोई पता नहीं था। श्रीमद्भक्ति श्रीरूप सिद्धान्ती महाराज ने श्रील महाराज से पूछा कि इतने कम समय में श्रीविग्रह कहाँ से प्राप्त होंगे। यह सुनकर महाराज ने कहा आप सब कालीघाट चलिये गंगा के किनारे आपको श्रीविग्रह का दर्शन होगा। यह सुनकर श्रील सिद्धान्ती महाराज सभी भक्तों को साथ में लेकर गंगा के किनारे कालीघाट पहुँचे। पहुँच कर सभी ने देखा कि एक पीपल वृक्ष के नीचे एक अपूर्व सर्वचित्ताकर्षक परम सुन्दर श्री श्रीराधाकृष्ण युगल विग्रह विराजित हैं। वही श्रीविग्रह कोलकाता हाजरा रोड स्थित श्रीगौड़ीय आसन मिशन में आज भी विराजित होकर सभी भक्तों को दिव्य दर्शन प्रदान कर रहे हैं।
श्रील महाराज किसी को जब पत्र लिखते थे, तब प्रत्येक पत्र में माया से छूटने का उपाय एवं श्रीहरिपादपद्मों में उन्मुख होने के लिए उपदेश अवश्य लिखते थे। वे सभी को समान रूप से देखते थे। कोई गरीब – दुःखी व्यक्ति उनकी कृपा से कभी वंचित नहीं हुआ। श्रीनित्यानन्द से अभिन्न तत्त्व महाराज दीनों पर अधिक दया करते थे। एक दिन सरसों के तेल का अभाव देखकर तेल लेने एक सेवक को बाजार भेजने का विचार किया। ठीक उसी समय एक तेल व्यवसायी ने दरवाजा पर आकर कहा- -आप को तेल चाहिये ? मैं तेल लाया हूँ। यह देखकर श्रील महाराज की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने सभी को बुलाकर कहा – देखिये श्रीकृष्ण कैसे कृपालु हैं। तेल की चिन्ता करने से भगवान् श्रीहरि ने तेल विक्रेता को यहीं भेज दिया। श्रीकृष्ण के प्रियजन श्रील महाराज किसी की थोड़ी सी सेवा को भी बहुत बड़े रूप से मानते थे । सर्व महागुणगण वैष्णव शरीरे । कृष्णभक्ते कृष्णेर गुण सकलि संचारे ।। कृपालु अकृत द्रोह सत्यसार सम । निर्दोष वदान्य मृदु शुचि अकिंचन । सर्वोपकारक शान्त कृष्णैक शरण अकाम निरीह स्थिर विजित षड्गुण ।। मितभुक् अप्रमत्त मानद अमानी । गम्भीर करुण मैत्र कवि दक्ष मौनी । अतः कृष्णभक्त के महद्गुण समूह श्रील महाराज के शुद्धभक्तिमय दिव्य जीवन में पूर्ण रूप से हम सबने देखे हैं। श्रील महाराज के स्वरचित भक्ति विवेक कुसुमांजलि प्रकाशित होने के समय उनके श्रील गुरुपादपद्म जगद्गुरु श्री श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के द्वारा लिखित एक कृपाशीर्वाद लेख प्राप्त हुआ।
प्रागवृन्त
कर्णाट राजप्रिया के निकट प्राकृत कवि कालिदास यश एवं प्रतिभा मण्डित होकर जब पहुँचे तब कर्णाट राज्ञी उनका आदर नहीं कर पाई आदर न करने का कारण यही है कि उस समय नलिन के एक कवि की महिमा सुनी थी, फिर पुलिन के एक दूसरे कवि की महिमा जानती थी। बाल्मीक के तीसरे एक कवि की महिमा भी जानती थी। इसके अलावा अन्यान्य कवियों का सम्मान एवं समादर करने की प्रयोजनीयता उसने नहीं समझी। ग्राम्य वार्तावाही कवि कालिदास परमार्थ कवियों के निकट कभी भी उनकी बराबरी नहीं कर सकते। कुछ दिन पहले बहरमपुर के साहित्यिक श्रीरूप प्रभु प्रमुख वैष्णव कवियों की कथा वर्णन करते हुए कालिदास आदि ग्राम्य कवियों के साथ वैष्णव कवियों की तुलना करके वैष्णव कवियों के चिन्मय शोभा दर्शन से वंचित हुए हैं। चुंचुड़ा का साहित्यिक मान्य एक व्यक्ति बुरी नजर से वैष्णव महाजन कवियों का आदर नहीं कर पाया। भवानीपुर के कवि समालोचक पाश्चात्य देश में बहुमान्य कवि का भी आदर नहीं कर पाये। ग्राम्य कवि और ग्राम्य साहित्यिक चिरदिन ही रुचि अनुसार किसी के द्वारा प्रशंसित, गर्वित, पुरष्कृत, और तिरष्कृत होते रहते थे। किन्तु परमार्थ जगत् में आचार-प्रचार में उत्सर्गिकृत उदीयमान हाथों द्वारा रचित कविताएँ निन्दा – प्रशंसा के समान नहीं है। जिस व्यक्ति के हृदय में परमार्थ का अंकुर हो चुका है, केवल वही इस नवीन कवि की रचना के सम्बन्ध में विशुद्ध भाव से निरपेक्ष अभिमत प्रकाश कर पायेंगे।
कवि का परिचय इतना ही बता सकता है कि वे कभी भी जड़ रस से दीक्षित व शिक्षित होकर आधुनिक कवियों के साथ प्रतियोगिता करके साहित्य शोभा वर्धन का उद्देश्य लेकर कविता नहीं लिखते। वे यथार्थ रूप से आचारवान, आदर्शवान एवं शुद्ध भगवद्भक्ति प्रचारक प्रवर हैं। इनकी भाषा व वाग्मिता से श्रोतागण सर्वदा के लिए मुग्ध होते हैं, इतना ही मैंने सुना । अतः आशा है कि इनकी कविता समूह का सौन्दर्य प्रेमिक भक्त समाज में विशेष आदरणीय होगा। संसार रूपी मरुस्थल में भ्रमण करते हुए अनेक समय हम सब कटु, तिक्त, कषाय रूपी अनुपादेय रस में डूब जाते हैं। परन्तु कभी सौभाग्य से श्रीगुरुपादपद्म व श्रीमद्भागवत की कथा हृदय में जाग्रत होने पर उसी प्रकार प्राकृत मदोन्मत्त साहित्यिक एवं कवियों की निपुणता हम सबके निकट विषयान्ध व्यक्ति के समान प्रतिफलित होने पर उस चिन्मय वस्तु का अनुसरण जागतिक इन्द्रिय सुखाभिलाषी व्यक्तियों के साथ एकमत स्थापन में असमर्थ होता है। अतः हम सब त्रिदण्डि संन्यासी कवि की कविता समूह का पाठ करने में अधिक आनन्द पाते हैं। उस आनन्द प्राप्ति के साथ ही इन कविता समूह पूर्व रचना समूह तथा श्रीमद् भागवत हरिभक्ति रूपी कल्पलतिका एवं वैष्णव महाजन कवियों की रचना में पुनरावृत्ति देखकर ग्राम्य कवियों की प्रशंसा विमुख होने के कारण हम सबमें त्रुटि देखते हैं। सुतरां वर्तमान नश्वर इन्द्रिय परायण नया साहित्यिक समाज क्षमा करने पर सुखी होगा।
स्नेह विग्रह त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज बंगदेश के बहुत साहित्यकारों के निकट, बहुत से कवियों के निकट एवं बहुत अभिज्ञ शिक्षितों के निकट विशेष श्रद्धा के पात्र हुये हैं। मैं आशा करता हूँ वे जिस प्रकार वाग्मिता के प्रभाव से शिक्षितों के चित्त को आकर्षण करने में सामर्थ्यवान हैं, ठीक उसी प्रकार वे स्नेहवारि विवर्जिता काम्यलतिका भाव राज्य में अग्रसर होकर मानव समाज को परमार्थ पथ पर लाने में रुचि फल उत्पन्न करेंगे।
बाग बाजार, कोलकाता
गौर षष्ठी, पुरुषोत्तम
४४५ गौराब्द
श्रीगौड़ीय मठ, श्रीरूपानुग सेवा निरत
के चिरदास अकिञ्चन नित्याशीर्वादक
इसके अतिरिक्त श्रीलमहाराज द्वारा सम्पादित श्रीउद्धव संवाद और श्रीमद्भगवद् गीता पाठ करने से उनकी शुद्धभक्ति सिद्धान्त स्थापन में विशेष निपुणता देखी जाती है। श्रीलमहाराज ने बंगला १३३५, ५२ वर्ष की आयु में माघी शुक्ला श्रीपञ्चमी तिथि का आश्रय कर श्रीजाह्नवी देवी के तट प्रदेश में कोलकाता महानगरी स्थित श्रीगौड़ीय आसन मिशन में अरुणोदय के समय श्रीहरिनाम जप करते हुए श्री श्रीराधागोविन्द की प्रातः कालीन लीला में प्रवेश किया।
श्रीआसन प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्री श्रील भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज के कतिपय उपदेशामृत
(1) स्वराट व स्वाधीन श्रीभगवान् केवल भक्ति के ही अधीन हैं। उस भक्ति के आधार एवं पात्र एकमात्र उनके भक्त ही हैं। वास्तव में उनके भक्त संग अतिरिक्त भक्ति प्राप्त करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
(2) भक्त कृपा और भक्त संग में भक्तिलता बीज रूपी श्रद्धा प्राप्त होती है। भक्त सेवा में यही भक्ति क्रमानुसार वृद्धि पाकर भक्तिदेवी की कृपा से श्रीभगवद् दर्शन होता है।
(3) श्रीगुरुदेव की कृपा ही भगवान् की कृपा है। श्रीगुरुदेव ही श्रीहरि कीर्तनकारी श्रीविग्रह हैं। उनके ही आनुगत्य में हरि कीर्तन का होना सम्भव है।
(4) अप्राकृत वस्तु ज्ञान, बुद्धि के अतीत एवं इन्द्रियज ज्ञानादि के तर्कातीत है। उसमें दाम्भिकता, शौर्य, वीर्य एवं पाण्डित्य सभी पराभूत है। केवल भक्त और भगवान् की शरणागति ही उनकी कृपा प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।
(5) मानव जीवन दुर्लभ, किन्तु क्षणस्थायी है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति इस क्षणभंगुर जीवन में हरिभजन के लिए विशेष रूप से चेष्टान्वित हों। क्योंकि मानव जीवन श्रीहरिभजन का मूल है। केवल श्रीहरि की आराधना एवं हरिभजन के लिए ही यह नर तनु श्रीभगवान् ने अत्यन्त कृपा करके जीवात्मा को दिया है। अन्यान्य जन्म एवं देह में सहज रूप से सब कुछ भोग मिलते हैं, किन्तु मनुष्य देह के अतिरिक्त हरिभजन का सौभाग्य नहीं मिलता।
(6) श्रीभगवान् की इच्छा पर विश्वास एवं निर्भर रहकर चलना होगा। उनकी व्यवस्था विधान में सन्तुष्ट होकर उनका भजन करने पर समस्त अशान्ति दूर होकर परम शान्ति प्राप्त होती है।
(7) भगवान् की अहैतुकी दया से साधुसंग में कृष्ण भजन सम्भव होता है। साधु-गुरु-वैष्णव सेवा से भजन में उन्नति एवं उनके प्रति अपराध होने पर अधोगति होती है। साधु-गुरु-वैष्णव के चरणों में अपराधी होने पर उनके ही चरणों में शरणागत होने से अपराध मुक्त होकर भजन में उन्नति होगी।
(8) संसार में जीवन धारण करना सर्व प्रधान कर्तव्य है। यह अत्यन्त दुर्भागे संसारी लोगों का विचार है। किन्तु भगवान् का भजन ही जीवन का सबसे प्रधान कर्तव्य है। यह सज्जन व्यक्ति ही समझते हैं एवं जो साधु संग निष्कपट अन्तर से विश्वास व श्रद्धापूर्वक एकमात्र आत्म कल्याण के लिए करते हैं वे सज्जन व्यक्ति होते हैं।
(9) जिस दिन संख्या नाम पूर्ण नहीं होगी, उस दिन श्रीनामप्रभु के श्रीचरणों में क्षमा प्रार्थना कर दूसरे दिन बाकी संख्या पूर्ण करना उचित है। यह महाजनों का उपदेश है।
(10) सब समय श्रीभगवान् के स्मरण में मन को नियुक्त रखना ही प्रत्येक जीव मात्र के लिए उचित है। मन अशान्त होने पर भी अनन्त गुण निधान श्रीभगवान् परम दयालु एवं पतित पावन हैं। उनके शरणागत होने पर मेरे मन की सरलता एवं आर्ति दर्शन करके वे निश्चय ही मुझ पर कृपा करेंगे एवं उनकी कृपा से ही मेरे मन को तत्क्षणात् शान्ति मिलेगी।
(11) श्रीभगवान् पूर्ण चैतन्य, सर्वज्ञ एवं वाञ्छाकल्पतरु हैं। हम सब की निष्कपट सेवा वृत्ति देखकर वे तुरन्त स्वभक्ति प्रदान कर सेवा ग्रहण करते हैं।
(12) मनुष्य अपने-अपने कर्मानुसार धनी व दरिद्र होते हैं। किन्तु सुकृति न होने से किसी की हरिभजन में प्रवृत्ति नहीं होती, अतः दरिद्रता से दुखी न होकर भगवान् के विधान से अभी जिस व्यवस्था में हैं, उसी में प्रसन्न रहकर निष्कपट आर्ति व शरणागति एवं आग्रहपूर्वक हरिनाम करना । दयामय श्रीहरि अवश्य ही समस्त असुविधाओं को दूर करेंगे।
(13) निष्कपट साधु संग से भगवान् के भजन में मति लगती है, यह परम सत्य है। यदि भगवान् किसी जीवात्मा पर प्रसन्न हों तो वे अपने जन को भेजकर उसे अपना संधान देते हुए श्रीगुरुदेव के रूप में निज नाम एवं मंत्रदीक्षा देकर अपना कर लेते हैं। इसलिए भाग्यवान व्यक्ति ही भगवान् के भजन में अपना जीवन समर्पित करते हैं।
(14) संसार, भगवद् विमुख जीवों का अपने-अपने पाप एवं पुण्य कर्मफल भोग करने को आने-जाने का स्टेशन एवं क्षणिक विश्रामागार होता है, जिसको पन्थशाला कहा जाता है। यहाँ कोई भी हमेशा रहने के लिए नहीं आया है । पथिक के साथ पथिक का क्षणिक अनित्य मिलन स्थान ही यह संसार है। जो यह न समझ कर यहाँ हमेशा रहने के लिए आप्राण चेष्टा व बुद्धि का प्रयोग करते हैं, पथिक के साथ गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ते हैं, इससे केवल एकमात्र दुःख तथा शोक ही प्राप्त होता है । अन्त में सहस्र जन्मों तक महा भयंकर नरक भोगना पड़ता है।
(15) कृष्णभक्त संग रहित कृष्णकथा- कृष्णसेवा – कृष्ण सम्बन्ध शून्य संसार ही नरक का द्वार है और कृष्णभक्ति कृष्णकथा – कृष्णसेवा – कृष्ण कीर्त्तन मुखरित संसार श्रीगोलोक वृन्दावन का द्वार है। जीव नित्य कृष्णदास है, इस सम्बन्ध में ज्ञानाभाव ही संसार है।
(16) कृष्ण और भक्त सेवा में विषय वैभव में रति कम होती है। यह सेवा निष्कपट रूप से होना आवश्यक है। इसलिए हरिकथा, हरिनाम श्रवण कीर्तन एवं कृष्णभक्त सेवा ही प्रत्येक मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है, यह विशेष रूप से समझना चाहिये।