नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी १०८ श्रीश्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज

प्रणाम
नमो ॐ विष्णुपादाय गौरप्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामीने नमः ।।
श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज पूर्वबंग ढाका शहर में अनुमानतः १३०६ बंगाब्द, सन् १९०० में एक विशिष्ट सम्भ्रान्त परिवार में आविर्भूत हुये थे। बाल्यकाल से वे जड़ विषयों में बहुत उदासीन थे। इनमें खेलने में अरुचि, गम्भीर, साधु-सज्जन को आदर और धर्मानुरागी प्रवृत्ति देखी गई। यह देखकर पिता-माता ने मन में विचार किया कि मेरे पुत्र के ऊपर किसी देवता की नजर पड़ी, या किसी ग्रह की शक्ति ने आश्रय किया। इसी विचार से पिता-माता सदा ही श्रीभगवत चरणों में अत्यन्त दीनतापूर्वक सन्तान के लिए मंगल प्रार्थना करते थे।
पूर्वाश्रम में इनका इन्दुबाबू नाम था। बाल्यकाल से उच्च प्रशंसा के साथ विद्याध्ययन समाप्त किया। १३१८ बंगाब्द, सन् १९१२, ४३५ गौराब्द दामोदर व्रत कार्तिक माह नियम सेवा व्रत में परमाराध्यतम श्रीलप्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने ढाका के प्रसिद्ध धनी जमींदार श्रीसनातन दास महाशय के घर में कुछ दिन के लिए श्रीमद्भागवत पाठ एवं व्याख्या की। इन्दुबाबू उसी सभा में उपस्थित होकर श्रीलप्रभुपाद के मुखारविन्द से अभूतपूर्व व्याख्या श्रवण करके बहुत आकर्षित हुये। फिर कुछ दिन त्रिदण्डिस्वामी भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज के मुखारविन्द से श्रीमद्भागवत पाठ एवं हरिकथा सुनकर इनका मन परिवर्तन हुआ। तुरन्त श्रीलप्रभुपाद के चरणाश्रित होकर हरिनाम दीक्षा ग्रहण करके श्रीगौरेन्दु ब्रह्मचारी नाम से वैष्णव समाज में परिचित हुये। १३२८ बंगाब्द, फागुन, मार्च, सन् १९२२ में इनकी विशेष प्रचेष्टा से ढाका श्रीमाध्व गौड़ीय मठ से शरणागति ग्रन्थ का चतुर्थ संस्करण मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ। जुलाई १९२४ सन् में सतीर्थ त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिविज्ञान आश्रम महाराज के साथ गञ्जाम जिला में श्रीमन्महाप्रभु के विशुद्ध प्रेमभक्ति धर्म की कथा का बृहद् रूप से प्रचार किया। १३३२ बंगाब्द, २६ माघ, २९ जनवरी, सन् १९२५ बृहस्पतिवार को श्रीवसन्त पञ्चमी, श्रीविष्णुप्रिया देवी के आविर्भाव तिथिवासर में परमाराध्यतम श्रीलप्रभुपाद की उपस्थिति एवं नियमानुगत्य से श्रीगौड़मण्डल परिक्रमा में श्रीगौरेन्दु ब्रह्मचारी जी ने भक्तमण्डलीके बीच मुख्यतम रूप से सेवा की। परिक्रमा के सातवें दिन द्वादश गोपाल के अन्यतम श्रील परमेश्वरी ठाकुर के श्रीपाट आँटपुर दर्शन के बाद रात्रि के समय आँटपुर स्टेशन पर बृहत सभा में श्रीलप्रभुपाद के निर्देशानुसार अंग्रेजी में प्रथम बार हरिकथा कीर्तन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनकी अंग्रेजी में हरिकथा श्रवण कर सब लोगों को बहुत सन्तोष हुआ और श्रील प्रभुपाद ने भी बहुत प्रशंसा की।
१३३२ बंगाब्द २९ भाद्र, ४ सितम्बर, सन् १९२५ शुक्रवार को श्रीलप्रभुपाद ने श्रीनन्दसूनु ब्रह्मचारी एवं श्रीगौरेन्दु ब्रह्मचारी को वैदिक विधानानुसार त्रिदण्ड संन्यास प्रदान करके श्रीनन्दसूनु ब्रह्मचारी को त्रिदण्डिस्वामी भक्तिहृदय वनदेव महाराज एवं गौरेन्दु ब्रह्मचारी को त्रिदण्डिस्वामी भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज दिव्य नाम प्रदान किया। इस समय भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों पर परम उत्साह पूर्वक श्रीलप्रभुपाद के निर्देशानुसार श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज ने श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का विपुल रूप से प्रचार किया। वे एक निर्भीक वक्ता थे। इनकी बादल के समान गम्भीर आवाज एवं ओजस्विनी भाषा में हरिकथा श्रवण करके श्रोताओं को बहुत सन्तोष प्राप्त होता था। इनकी सत्य में दृढ़ निष्ठा के कारण ब्रिटिश गवर्नर, वाइसराय आदि सभी लोग भयभीत हो जाते थे। श्रीलमहाराज के मुखारविन्द से परम सत्य हरिकथा सुनकर सन्तोष पूर्वक ब्रिटिश वाइसराय ने एक प्रशंसा पत्र दिया। यह पत्र लेकर श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद के चरणों में निवेदन किया। श्रील प्रभुपाद यह पत्र देखकर बहुत आनन्दित हुये।
१३३३ बंगाब्द, २४ कार्तिक भारत भ्रमण विषय में श्रीलप्रभुपाद ने लिखा कि भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज ने जो अंग्रेजी सर्टिफिकेट प्राप्त किया है, उसे देखकर मैं बहुत आनन्दित हूँ। इस प्रकार से विभिन्न स्थानों पर संन्यासी और ब्रह्मचारी अपने-अपने कृतित्व का परिचय दें तो श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का बहुत प्रचार-प्रसार होगा। तब हम सबके आनन्द की सीमा नहीं रहेगी। ब्रिटिश गवर्नर, वाइसराय अन्यान्य विशिष्ट राजपुरुषों ने बहुत से पत्रों के माध्यम से श्रील महाराज के प्रचार कार्य की उच्चतम प्रशंसा की एवं श्रीमन्महाप्रभु के सार्वभौमिक प्रेमधर्म प्रचार-प्रसार विषय में अत्यन्त उत्साह प्रदान किया। परमाराध्यतम श्रीलप्रभुपाद के प्रतिष्ठित श्रीधाम मायापुर आकर मठराज श्रीचैतन्य मठ एवं शाखा मठ में श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणाश्रित बहुत से उच्च शिक्षित अंग्रेजी भाषाविद कृति वक्ताओं के बीच श्रील गिरिमहाराज के अंग्रेजी स्टाइल लेख एवं बोलने की पद्धति अलग ही उच्चस्तर रूप से थी। कटक जिला रावेन्स कॉलेज में इतिहास के प्रवीण अध्यापक श्रीनिशिकान्त सान्याल (श्रीपद्मनारायण दास-भक्ति सुधाकर प्रभु) प्रमुख विशेषज्ञों ने श्रील महाराज के इस प्रकार के गुणों की बहुत प्रशंसा की। परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद एवं अन्यान्य गुरुभ्राताओं ने श्रीलमहाराज के मुखारविन्द से निःसृत हरिकथा की बहुत प्रशंसा की। लोगों को आकर्षित करने की शक्ति श्रीलमहाराज के अन्दर सुन्दर रूप से देखी गई। आप शुद्ध निर्मल चरित्र, शिशु सुलभ स्वभाव, यथा लाभ सन्तोष, गुरुसेवा निष्ठा, सर्वत्र हरिकथा कीर्तन एवं इसके साथ श्रील महाराज के पाखण्ड दलन कार्य की पराक्रमता, उत्साह, अनुराग आदि समस्त सदगुणों से भूषित थे। श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद के प्रतिष्ठित समस्त मठ-मन्दिर के कार्यभार, श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार, सत्शिक्षा प्रदर्शनी उन्मोचन, भक्तिग्रन्थ, सामयिक पत्रिकादि प्रकाशन और प्रचार, श्रीगौड़ मण्डल, क्षेत्रमण्डल, ब्रजमण्डल परिक्रमा का कार्यभार इत्यादि श्रीलगुरुदेव की मनोभीष्ट सेवा में श्रील गिरिमहाराज विशेष रूप से प्रशंसा के भाजन हुए। अनेक विशिष्ट लोगों ने श्रील महाराज के मुख से हरिकथा सुनकर श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणाश्रित होकर हरिनाम दीक्षा प्राप्त कर जीवन सार्थक किया। परमाराध्यतम श्रीलप्रभुपाद के अप्रकट लीला में प्रवेश के बाद गुरुभ्राता श्रीलमाधव गोस्वामी महाराज के साथ श्रीलगिरि महाराज का अत्यन्त मधुर सम्बन्ध रहा। उन्होंने श्रील माधव गोस्वामी महाराज के प्रतिष्ठित श्रीधाम मायापुर ईशोद्यान श्रीगौड़ीय संस्कृत विद्यापीठ की कार्यकारिणी समिति के एक प्रधान सदस्य के रूप में कार्य किया। श्रीलगिरि महाराज को पता चला कि अधिक समय इस संसार में नहीं रहेंगे, यह दिव्यानुभूति होने पर शिष्यादि रहने पर भी स्वतः स्वाभाविक रूप से गुरुभ्राता श्रीलमाधव गोस्वामी महाराज को अपने द्वारा प्रतिष्ठित कालीदह के पास स्थित श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ की रजिस्ट्री करके दे दी।
श्रील भक्तिसर्वस्व गिरिमहाराज कुछ दिन अस्वस्थ लीला करके १६ कार्तिक, ३ नवम्बर, सन् १९६७ शुक्रवार को श्रीधाम वृन्दावन स्थित कालीदह अपने विनोदवाणी गौड़ीय मठ में श्रीगिरिराज गोवर्धन पूजा और अन्नकूट महोत्सव पूरा कर शाम को ८ बजे शुक्ला द्वितीया तिथि में ६८ वर्ष की आयु में अप्रकट लीला प्रकाशित कर ब्रजरज रानी के श्रीचरण प्राप्त किये।