नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी १०८ श्री श्रीमद्भक्तिविलास गभस्ति नेमि गोस्वामी महाराज

प्रणाम
नमो ॐ विष्णुपादाय गौरप्रेष्ठाय भूतले ।
श्रीमते भक्तिविलास गभस्ति नेमि गोस्वामीति नामिने ।।

पूर्व मे हावड़ा जिला के अन्तर्गत भूरसीट ब्राह्मण पाड़ा गाँव में रामकृष्ण सरकार नाम से एक जमींदार वास करते थे। रामकृष्ण सरकार के छह पुत्र थे। इनके प्रथम पुत्र का नाम श्रीअद्वैत सरकार एवं द्वितीय पुत्र का नाम गिरीन्द्र नाथ सरकार (श्रीमद्भक्तिविलास नेमि महाराज ) था । इन्टर तक अध्ययन किया। उस समय की समाज नीति के अनुसार किशोर अवस्था में ही हुगली जिला दक्षिण डिहि गाँव के धीरावाला वसुराणी के साथ इनका विवाह हुआ। संसार धर्म, नौकरी एवं गिरिधारी सेवामय जीवन बिताते, किन्तु संसार धर्म इनका बन्धन नहीं बन पाया। कुछ दिन बाद एक आश्रम का निर्माण कर गिरिधारी सेवा करते थे। एक समय श्रीलप्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने ब्राह्मणपाड़ा गाँव में श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार किया। उस समय श्रीगिरीन्द्र नाथ सरकार ने सपत्नी श्रीलप्रभुपाद के श्रीचरण में आश्रय लेकर हरिनाम दीक्षा ग्रहण की। श्रीलप्रभुपाद ने दीक्षा नाम श्रीपाद गौरगोविन्द दासाधिकारी (विद्याभूषण) एवं धनिष्ठा देवी रखकर षड्भुज गौरांग मूर्ति प्रतिष्ठा की एवं आश्रम का नाम श्रीप्रपत्राश्रम रखा। कुछ साल बाद श्रील प्रभुपाद ने कलकत्ता बागबाजार गौड़ीय मठ में त्रिदण्ड संन्यास प्रदान कर श्रीमद्भक्तिविलास गभस्ति नेमि महाराज नाम से विभूषित कर श्रीमन्महाप्रभु की वाणी प्रचार कार्य में नियुक्त किया। सौम्य दर्शन, सुगायक एवं प्रचार कार्य में एकान्त निष्ठा देखकर श्रील प्रभुपाद को बहुत सन्तोष हुआ।

एक समय श्रीलप्रभुपाद को पाँच सौ रुपया की जरूरत पड़ी। इसके लिए श्रीलमहाराज अपने कनिष्ट गुरुभ्राता श्रीपाद राधारमण प्रभु ( श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज) को साथ लेकर एक मारवाड़ी के घर पहुँचे। दोनों ने मिलकर श्रीभगवान् की सेवा के लिए उसे बहुत समझाया किन्तु वह मारवाड़ी बिलकुल नहीं समझा और गेट भी नहीं खोला एवं बहुत सी गाली देकर भगा दिया। श्रील महाराज जी दूसरे दिन उसी मारवाड़ी के पास पुनः गये आज भी उसी प्रकार का व्यवहार किया। श्रील महाराज तीसरे दिन भी मोटर गाड़ी करके आये, तब चपरासी ने गेट खोल दिया एवं महाराज जी ने ऊपर जाकर उच्चस्वर से उस मारवाड़ी को बहुत हरिकथा सुनाई। श्रीलमहाराज के मुखारविन्द से अति मधुर हरिकथा मारवाड़ी अत्यन्त लज्जित हुआ और अपने आपको धिक्कारते हुए महाराज के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी एवं श्रीमठ की सेवा के लिए पाँच सौ रुपया दिया। उसके बाद उसने सपत्नी श्रील प्रभुपाद का चरणाश्रय ग्रहण कर, हरिनाम दीक्षा प्राप्त की एवं हरिभजन करके अपना जीवन सफल बनाया।

श्रीलगुरुदेव भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद के अन्तर्धान के बाद श्रीलमहाराज ने पुनः ब्राह्मणपाड़ा प्रपन्नाश्रम में आकर श्री श्रीराधागोविन्द विग्रहों की प्रतिष्ठा की। प्रतिदिन नियम पूर्वक पाठ-कीर्त्तन, श्रीविग्रह सेवा एवं श्रीमन्महाप्रभु की वाणी, श्रीलप्रभुपाद की कथा प्रचार करके समस्त लोगों का बहुत से कल्याण किया। इस प्रकार श्रीलप्रभुपाद की सेवा करते हुए १३४५ बंगाब्द १३ वैशाख को प्रातः ७ बजे अपनी अप्रकट लीला प्रकाश की।