नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी १०८ श्रीब्रजविभूति श्रीमद् भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज

प्रणाम
राधामाधव-पादपद्म रसिकं रूपानुगं सर्वदा।
श्रीचैतन्य-मतानुसारी चरितं प्राज्ञं परिव्राजकम्।।
निर्दिष्टे रसराज हृदयितया कुञ्ज वसन्तं मुदा।
श्रीमन्तं प्रणतोऽस्मि भक्तिहृदयं भक्त्यावनाख्यं गुरुम् ।।

स्वरूप निर्णय
माधवी-मालती-तमाल-कुञ्जे
सखी-मंजरी पुञ्जे-पुञ्जे
राड़-कानु घेरि सतत-गुजे ।
लतिका मञ्जरी सेड़ निकुञ्जे
लीला-रसामृत हरषे-भुजे ।।

नित्याराध्य श्रील गुरुदेव श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज ने श्रीराधा-करुणा धारा से विश्व में प्रकट लाभ किया है। उनके हृदय वृन्दावन में अहर्निश श्रीश्रीराधागोविन्द प्रेमलीला विस्तार कर रही है। उनके दोनों नेत्र श्रीश्रीराधागोविन्द की लीला उद्दीपनकारी एवं सुशोभित वदनकमल श्रीश्रीराधावल्लभ के प्रेम मकरन्द उद्‌गीर्णकारी हैं। ब्रन के कुन्द-कुसुम-लतिका समूह श्रीगुरुदेव के (गालापाभ) गुलाब जैसी कान्ति श्रीश्रीराधाश्यामसुन्दर के उज्ज्वल प्रेम विलास पथ में आलोक प्रदानकारी हैं।

दशकम्

सुभास्यं-श्यामाङ्ग-गिरिज-वसनं-दण्डितकरं
यतीन्द्रानां-रत्नं प्रणतकरुणं-धीरनमितम् ।
स्वरूपानन्दं-वैष्णवं परमहंसं गुरुवरं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।।

शुभवदन, श्यामकान्ति, गैरिकवसनधारी, हाथ में त्रिदण्ड यतीन्द्ररत्न, प्रणतकरुण, धीरपूज्य, स्वरूपानन्दपूर्ण वैष्णव, परमहंस, गुरुवर श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का मैं भजन करता हूँ।। १।।

सतां-प्रेष्ठं राधाभजन-चतुरं चारुचरितं
श्रुतिप्राज्ञं-सौम्यं विमल-रसिकं शान्त-हृदयम्।
सहर्ष-वृन्दावनानि महिमोदगान-मुखरं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।।

साधु के प्रियतम, राधाभजनचतुर, मधुरचरित्र, श्रुति-शास्त्र में प्रज्ञावान, मधुरमूर्ति, विमलरसिक, कामादिमुक्त, शान्त हृदय, अतिशय उल्लसित भाव से श्रीवृन्दावन महिमा गान में चतुर शिरोमणि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरण कमलों का मैं भजन करता हूँ।। २॥

सदैव श्रीवृन्दावन वसति-लीलाकुलमतिं
गुणैर्गाम्भीर्याद्यै रविगणित-चित्तं चलधिकम् ।
महामान्य धन्यार्चित चरणपद्यं परहितं
भजामि श्रीभक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ३।।

सर्वदा लीलाधाम श्रीवृन्दावन में वास के लिए व्याकुलित चित्त, गाम्भीर्यादि गुण मण्डित, सूर्य से भी तीव्र गति-चित्त, महद् व्यक्ति के मान्यवर, धन्यगण के पूजित पादपद्म, परहित व्रती, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का मैं भजन करता हूँ।।३।।

प्रसिद्धं भूलोकेविदित परमार्थ पृधुदयं
गुरौ-गरि बृन्दाविपिन-युगले भक्तिभावितम्।
रसानन्दं-राधाचरितं गुण-संकीर्त्तनं सुखं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ४।।

पृथ्वी पर प्रसिद्धनामा, परमार्थवेत्ता, विपुलदमाशील, श्रीगुरु गौरांग-राधागोविन्द के अतिशय भक्तिपूर्ण हृदय, परा-रसानन्दी, राधा चरित गुण गान में सुखी हृदय, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का में भजन करता हूँ।।४।।

सुधी-वृन्दोङ्गीतं प्रणत भक्तिवरदं काव्य पुरुषं
क्षितौ श्रीमद्‌गौराचरितं परिचर्या प्रवनकम्।
परं श्रीमद‌गोपीश्वर चरणसेवा सुखभवं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ५।।

उल्लसित होकर सुधीगण जिनकी महिमा सदा ही गान करते हैं, जो प्रणतगण के कृष्णभक्ति वरदाता हैं, काव्यपुरुष, पृथ्वी पर श्रीगौरसुन्दर द्वारा आचरित परिचर्या विस्तारकारी, श्रीमद् गोपीचर के चरण सेवा-सुख वर्धनकारी, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का में भजन करता हूँ।। ५।।

प्रपन्नानां पार्थ विविध गुणगर्भ गतमदं
स्वभक्तानां चित्तं प्रथितगुण गोस्वामी-चरितम्।
रसज्ञानां श्रेष्ठः प्रणय-परिचर्या सुरतरूं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ६।।

शरणागतपालक, विविध वैष्णवगुणाधार, अभिमानमुक्त, निज भक्तों के हृदयधन, प्रेम परिचर्या के समय कल्पतरु स्वरूप, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का मैं भजन करता हूँ।। ६।।

सुहृदवर-सभ्यं क्षान्तं व्रजतिलक-रुपानुगवरं
मुनिव्रातं, वाग्मि-प्रवरमनुरागाप्लुत हशम्।
वदान्यं विद्वद्भिर्नमितं चरणं सत्य शरणं
भजामि श्रीभक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ७।।

सुहृदवर, सभ्य, क्षमाशील, ब्रजतिलक, रूपानुगवर, मुनिधर्म धाम, वाग्मिप्रवर, अनुरागपूर्ण आप्लुत नयन, वदान्यवर, विद्वानों के पूजनीय एवं सत्याश्रयी श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का मैं भजन करता हूँ।।७।।

कृतज्ञानां-कुंज कुमतिहर निष्किञ्चनपदं
दयामैत्री सेवासुखित सकलं संगपरमम्।
मुगरेर्माधुर्ये मथित-हृदयं मन्तहरणं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ८ ।।

कृतज्ञगण के कुंजस्वरूप, कुमतिहरणकारी, निष्किञ्चन, वैष्णवशिरोमणि, क्षमा, मैत्री एवं सेवा द्वारा सुखप्रदाता, संगदानश्रेष्ठ श्रीकृष्णमाधुर्य में मथितहृदय, संसार-तापहरणकारी, मृत्युञ्जयी, सन्तापहारी, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का में भजन करता हूँ।। ८।।

कृपाधारं सारस्वतगणवरं विक्रमपुरे
ब्रजादर्शाचार्य विनय-विवुर्ध बन्धु-हृदयम्।
वरेन्यानां वन्धं विपुलतर कीर्त्तिहितेपदं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। ९।।

कृपा के सिन्धु समान, श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्यों में अन्यतम, आचार-प्रचार-विचार में परम विक्रमी, ब्रनभजन के आदर्शवान आचार्यशिरोमणि, विनयी, पण्डित, बन्धुहृदय, वोन्द्रओं के वन्दनीय, विपुलकीर्ति सम्वलित श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरणकमलों का मैं भजन करता है।। ९।।

पराविद्या-शिक्षासदनं युग्म निर्माण सुहृदं
प्रकामं ब्रह्मण्यं विमल गुरुं वार्ता वितरकम् ।
सदानन्दस्यान्ते प्रणिहितपदं मानदवरं
भजामि श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी चरणम् ।। १०।।

वृन्दावन एवं नन्दग्राम में परमार्थ शिक्षादान के लिए दो विद्यालयों के निर्माण कार्य में सुहृदवर, ययेष्ट ब्रह्मण्य गुण गर्भा, विमलमति, सदा आनन्द परिपूर्ण हृदय, मानद अग्रगण्यं, परमाराध्य, श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी के श्रीचरण कमलों का मैं भजन करता हूँ।। १०।।

श्रीश्री वनस्तुति कादम्बिनी
प्रभुपाद पदाश्रित शिष्यतम, तमसावृत दुर्जनताघहर।
हरनारद वर्णित भक्तिवन, वनदेव जयोज्ज्वल भावधन ।। १।।

हे श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वतीप्रभुपाद के श्रीचरणाश्रित शिष्य प्रधान! हे अज्ञानावृत दुर्जन के पापहारी शिव-नारदादि वर्णित हरिभक्ति कीर्तनकारी! हे उज्ज्वलरस सम्पत्तिशिल्पी। श्रील भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी! आप की जय हो।

प्रतिभा तव सुन्दर भावधरा, प्रतिमा नव माधव यागपरा।
कविता जन पावन कीर्त्तिचरी, गुरुता जगतामध नाशकरी ।। २।।

आपकी वैष्णवी प्रतिभा अतिशय शोभामयी भावधारामण्डित, आपकी प्रतिमा अभिनव रूप से श्रीराधामाधव के प्रेमभारा परायण, आपकी कविता जनगण के पावन कीर्तिमय, आपका गुरुत्व जगत्जनः का पापनाशकारी है, श्रीमद्धकिादम वनदेव गोस्वामी। आपकी जय हो।। २।।

बदने तव नामरव प्रगति, नयने च कृपाजलधि प्रमुतिः ।
चरणे शरणागत शम्वसतिः, भवणे शुकभारति भावगतिः ।। ३।।

आपके बदन में श्रीहरिनाम रस की प्रगति, नयन में कृपासिन्धु का प्रवाह, चरणों में शरणागत के आनन्दप्रद निवास, श्रवण में शुकभारती भागवत भाव गति नित्य अवस्थित, हे श्रील बनदेव गोस्वामी। आपकी जय हो।। ३।।

जय भक्तिरसामृत मञ्जुमते, जय दैन्यदयोज्ज्वल पर्वपते।
जय मञ्जरीदास्य विलासगते, जय नेत्रमणीश्वरी सौम्यकृते ।। ४।।

भक्तिरसामृत द्वारा मञ्जुमधुर मतिमान आपकी जय हो, मञ्जरीदास्य विलास प्राप्त आपकी जय हो, दैन्य-दया के उज्ज्वल पर्वपति आपकी जय हो, नयनमणिमञ्जरी जिनकी ईश्वरी हैं, उन सौम्यमूर्ति आपकी जय हो ।।४।।

अपवर्गतमस्तुति मित्रवर, परमार्थ रसाम्बुधि चन्द्रकर।
प्रकटोत्सव मंगल पुन्य दिने, प्रणमामि शतं तव पादयुगं ।। ५।।

अपवर्ग रूप अन्धकार नाश भास्कर तुल्य, परमार्थ रूप रस समुद्र में प्रकाशित चन्द्र स्वरूप है गुरुदेव । आपको आविर्भाव तिथि में, आपके श्रीपादपद्म में शत-शत बार प्रणाम करता हूँ।। ५।।

उदितं तव भागवतार्थपरे, रचितं ब्रजनागर केलिभरम्।
चरितं चरणानित जीव्यगतं, फलितं भजनस्य विकुण्ठमतम् ।। ६ ।।

हे गुरुदेव ! आपके मुखारविन्द का भाषण भागवत के निगूढ़ अर्थ पर, आपकी रचना ब्रजनिकुञ्ज नागर श्रीगोविन्द के केलि विलास भारती स्वरूप, आपके चरित्र चरणाश्रितों के जीवन स्वरूप, आपके भजन फल वैकुण्ठ मत समूह अर्थात् सर्वतोभाव से वैकुण्ठ भावमय स्वरूप है।। ६।।

भजने निपुणं यजने निपुणं, चयने निपुणं धयने निपुणं।
वचने निपुणं रचने निपुणं, घटने निपुणं भज भक्तिवनम् ।। ७।।

श्रीहरिभजन में निपुण, हरि यजन में निपुण, शास्त्रार्थ चयन में निपुण, भक्तिरस पान में निपुण, कृष्णगुणगान में निपुण हरिसेवा-रचना में निपुण, भगवद्-सम्बन्ध स्थापन में निपुण, हे श्रीमद् बनदेव गोस्वामी! आपकी जय हो।। ७।।

प्रकटोत्सव वासर पुण्यदिने, शतभक्त समार्चित पादयुगम्।
शतकीर्त्ति गुणांकित पूज्यतम, शतदिक्षु जयध्वनि सेव्य नमे ।। ८ ।।

हे गुरुदेव! हे शत कीर्ति गुणांकित पूज्यतम। शतदिक् सहस्र-सहस्र भक्तों के मुखनिर्गत जयध्वनि से सेव्य, पवित्र आविर्भाव तिथि में समर्चित आपके पादपद्म में प्रणाम करता हूँ।। ८।।

सुधीवृन्द समीड़ित कीर्त्तिकथ, कुधिवृन्द समुद्धर चित्तरथ।
रुचिवृन्द समर्थित दिव्यप्रथ, कृतिवृन्द समाश्रय सेव्यजय ।। ९ ।।

हे गुरुदेव! आपकी जय हो, सुधीवृन्द आपकी पुण्य कीर्ति गाथा नित्य गान करते हैं, आपके मनोरथ सदा सुधीवृन्द के समुद्धारी यत्नवान, आपकी रुचि समूह सर्वदा दिव्य प्रथा समर्थित, आप सुकृतिवृन्द के समाश्रय स्वरूप, आपकी जय हो।। ९।।

यतिराज जयोज्ज्वल भाव वश, रतिराज जयोन्त्रत काव्यरस।
मतिराज जयोद्गत मानयश, कृतिराज जयाश्रय आर्यदृश ।। १०।।

हे मधुर भाव वशीभूत यतिराज! आपकी जय हो, मधुर मधुर रति विजयी उन्नत काव्यरस प्रणेता आपकी जय हो।। १०।।

जय वृन्दावनं रस वृन्दावनं, नति वृन्दावनं गति वृन्दावनं।
कृति वृन्दावनं धृति वृन्दावनं, गुण वृन्दावनं भज भक्तिवनम् ।। ११।।

जय वृन्दावन, रस वृन्दावन, नति वृन्दावन, गति वृन्दावन, कृति वृन्दावन, धृति वृन्दावन तथा गुण वृन्दावन स्वरूप श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी का मैं भजन करता हूँ।। ११।।

जयति जयति वृन्दावन्य वासैक धन्यो,
जयति युगल सेवानन्द कन्दो वरेण्यः ।
जयति यति नरेन्द्र स्वाश्रितानां शरण्यो,
जयति प्रकट पर्वो भक्तिधर्मेकधाम ।। १२।।

वृन्दावन वास में धन्य गुरुदेव जय युक्त होते हैं, युगल सेवानन्द के कन्द वरेण्य महोदय जय युक्त होते हैं, आश्रितों के एकमात्र आश्रय यतिराज जय युक्त होते हैं, उनका भक्तिधर्म धाम आविर्भाव पर्व नित्य जय युक्त हो।। १२।।

इति श्रीपाद भक्तिसर्वस्व गोविन्द महाराज विरचितं श्रील भक्तिहृदय वनदेव दशकम् एवं वनस्तुति कादम्बिनी अनुवाद सह सम्पूर्णम्

पूर्वबंग ढाका जिलान्तर्गत मुन्शीगञ्ज महकुमा राजबाड़ी थाना के अधीन विक्रमपुर परगना । इसके दक्षिण की ओर स्रोतवाहिनी पद्मावती नदी प्रवाहित होती है। ग्यारहवीं सदी में बंगाल के पालराजों के राजत्व काल में बंगाल के इतिहास में एक नये युग की शुरूआत हुई। इस समय बौद्ध धर्म एक नई जीवन शक्ति प्राप्त कर पालराजों के द्वारा वर्धित होकर सौ वर्ष के अन्दर क्रमानुसार क्षीण होने लगा। सूरवंशी नरपतिओं का राजत्व काल बंगदेश में मात्र पचास वर्ष तक रहा। आदिशूर नाम के सूरवंशीय सर्वश्रेष्ठ पराक्रमशाली नृपति थे। अपने पराक्रम के द्वारा अल्प दिनों में बंगाल के इतिहास में एक अप्रतिद्वन्द्वी नरपति के रूप से ख्याति प्राप्त की। महाराज आदिशूर ने उस समय बौद्ध धर्म ग्रसित बंगदेश के हिन्दूधर्म व संस्कृति की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प लिया। इन्होंने इस महद् उद्देश्य के साधन हेतु इस बंगदेश के याचक ब्राह्मण एवं पण्डितों को क्रियाहीन देखा। इसलिए उनके ऊपर निर्भर नहीं रहे। अतः विशेष प्रयास कर कन्नौज से यथार्थ शास्त्रज्ञ एवं क्रियावान वैदिक पाँच ब्राह्मणों को लाकर बौद्धधर्म के प्रभाव से हिन्दूधर्म की रक्षा के लिए जब दृढ़ संकल्प किया, उसी समय उनके मन में एक नये विचार ने जन्म लिया ।

महाराज आदिशूर ने पुत्र कामना से यजुर्वेदीय शास्त्र के अन्तर्गत पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पादन के लिए उस समय के बंगदेशीय ब्राह्मणों को वैदिक यज्ञानुष्ठान आयोजन के लिए निर्देश दिया। यह सुनकर वैदिक यज्ञ में ब्राह्मणों ने अपनी अयोग्यता प्रकट की। इस अवस्था में महाराज आदिशूर ने योग्य, सदाचारी, वेदज्ञ पाँच ब्राह्मण भेजने के लिए कान्यकुब्ज (कन्नौज) राजा वीरसिंह को एक पत्र लिखा ।

कन्नौज राजा ने पत्रोत्तर में कहा कि वैदिक धर्म से विमुख व स्खलित पद पाण्डव विवर्जित बंग देश में वेदज्ञ ब्राह्मण जाने के लिए सहमत नहीं हैं। यह पत्र प्राप्त कर महाराज आदिशूर ने कन्नौज के राजा वीरसिंह के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। राजा ने अवर कुलोद्भव अस्पृश्य सात सौ अनार्य व्यक्तियों के गले में यज्ञोपवीत एवं हाथ में धनुर्वाण से सज्जित कर बैलगाड़ी द्वारा युद्ध करने कन्नौज भेजा। गौ-ब्राह्मण की हत्या के कारण पाप वृद्धि और राज्य का अमंगल होगा, इस विचार से कन्नौज राजा ने युद्ध नहीं किया। सम्राट आदिशू महाराज सार्वभौम चक्रवर्ती थे। कन्नौज अधिपति महाराज वीरसिंह एक स्वाधीन राजा थे।
महाराज आदिशूर का काशीराज की कन्या से विवाह हुआ था, इसलिए आदिशूर राजा वीरसिंह के जामाता हुए। इस कारण राजा वीरसिंह ने आदिशूर से संधि कर ली एवं सारी सेना को विशेष सम्मानपूर्वक बंग देश लौटा दिया। उन सात सौ हीन वंश जात अस्पृश्य योद्धाओं ने वाराणसी लौटकर सम्राट आदिशू से निवेदन किया कि हे महाराज! आपने हम सबके गले में जो उपवीत पहनवाया, उसे हम लोग त्याग करें या रखें ? क्योंकि त्याग करें तो आपके दण्डभागी बनेंगे और यदि रखते हैं तो समाज से क्या कहेंगे? आप कृपया हम सबकी उचित विचारपूर्वक रक्षा कीजिये। तब चक्रवर्ती महाराज ने उन सात सौ उपवीत धारी अनार्य, हीन कुलोद्भूत सेना को ब्राह्मण के रूप से स्वीकार किया। इन लोगों के जीवन निर्वाह हेतु मेघना नदी के पूर्व तीर पर पाण्डव वर्जित देश में रहने के लिए सारी व्यवस्था कर दी। महाराज के निर्देशानुसार ये सब सप्तशती ब्राह्मण के नाम से परिचित हुए। महाराज के निर्देशानुसार ये लोग धोपा, नापित (नाई), नमशूद्र, आदि अपने कुल व जाति में पूजा-पाठ, विवाह आदि आदान-प्रदान पुरोहित्य का कार्य कर जीवन निर्वाह करने लगे।

आदिशूर के निवेदन के अनुसार युद्ध की वासना त्याग कर महाराज वीरसिंह द्वारा निर्वाचित कोलाञ्च प्रदेशान्तर्गत पाँच ब्राह्मणों को योद्धा के वेश में आदिशूर के पास भेजा। जमदग्नि तुल्य ब्रह्म तेजमय वे पाँच ब्राह्मण घोड़ों पर सवार होकर सर्वोत्कृष्ट रण सम्भार सहित सुसज्जित और स वर्मावृत होकर आदिशुर की सभा में उपस्थित हुए। ये सभी ब्राह्मण उन्नत मस्तकों पर स्वर्ण किरीट, विशाल पृष्ठ देश पर बाणपूर्ण तरकस, सुविस्तृत स्कन्ध पर शत्रुघ्न कोदण्ड एवं कटिबंध में तीक्ष्ण धार वाली तलवार से सुसज्जित थे। इन ब्राह्मणों के अपने-अपने पुत्र कलत्रादि भी पञ्च भृत्यों के साथ बैलगाड़ी में बैठकर पहुँचे।

आरुह्य पञ्चतुरगान सिवान तूणैः ।
कोदण्ड रम्यक वचानि किरीट वेशाः ।।
कोलञ्चतो द्विजवराः मिलिताहि गौड़े
राजादिसूर पुरतो जमदग्नि तुल्याः ।।

इन्ह पाँचों ब्राह्मणों के नाम – (१) शाण्डिल्य गोत्रज महाकवि भट्ट नारायण (२) काश्यप गोत्रज दक्ष (३) वात्स्य गोत्रज छान्दड़ (४) कुलश्रेष्ठ भरद्वाज गोत्रज सर्वचित्त आनन्दवर्धक श्रीहर्ष (५) सावर्ण गोत्रज वेदगर्भ। यथा

शाण्डिल्य गोत्रज श्रेष्ठ भट्ट नारायण कविः ।
दक्षोहत काश्यप श्रेष्ठो वात्स्य श्रेष्ठोहत छान्दड़ः ।
भरद्वाज कुलश्रेष्ठः श्रीहर्ष हर्षवर्धनः
वेदगर्भोहथ सावर्णो यथा वेद इतिस्मृतः ।।

पञ्च ब्रह्मर्षि के साथ सदगुण सम्पन्न एवं परम भक्त कायस्थ कुलोद्भूत पञ्च भृत्यों ने बंगदेश में आगमन किया। इनके नाम क्रमशः (१) भट्ट नारायण के भृत्य सौकालीन गोत्रीय मकरन्द घोष (२) दक्ष के भृत्य गौतम गोत्रीय दशरथ वसु (३) छान्दड़ के भृत्य मोद्गल्य गोत्रीय पुरुषोत्तम दत्त (४) श्रीहर्ष के भृत्य काश्यप गोत्रीय विराट व दाशरथी गुह (५) वेदगर्भ के भृत्य विश्वामित्र गोत्रीय कालिदास मिश्र ।

महर्षि श्रीहर्ष ने जब कन्नौज से बंगदेश में शुभ पदार्पण किया तब ये ९० वर्ष के वृद्ध थे। शुभ्र केश महा तेजस्वी अमित शक्तिशाली देहधारी ये साक्षात् भीष्म पितामह जैसे दिखते थे। अनिन्द कान्ति विशिष्ट श्रीहर्ष निरन्तर लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीनृसिंह देव के ध्यान में मग्न रहते थे। महागुणी भट्ट नारायण ८० वर्ष के वृद्ध थे। ये जितेन्द्रिय एवं सप्तर्षि के समान अलौकिक योग्यता सम्पन्न थे । ब्रह्मचर्य बल से बलिष्ठ ब्रह्मर्षि प्रजापति वेदगर्भ ५० वर्ष के थे। महामुनि छान्दड़ जितेन्द्रिय युवक एवं प्रवीण बुद्धिमत्ता से सर्वत्र विजयी थे। पञ्च ब्रह्मर्षि ५६ पुत्रों के पिता थे। श्रीहर्ष के ४, भट्ट नारायण के १६, दक्ष के १६, वेदगर्भ के १२ एवं छान्दड़ के ८ पुत्र थे। श्रीहर्ष के पुत्र राम, नान, जन एवं धाँधू श्रीगर्भ के समान प्रसिद्ध थे। परिवार परिजन सहित पञ्च महर्षि जिस प्रकार ससम्मान से एवं उपद्रवहीन होकर वेद प्रचार एवं वेद प्रतिपाद्य ब्राह्मण धर्म संस्थापन कर पायें, इस विचार से महाराज आदिशूर ने इनको पञ्चकोटि कामकोटि, हरिकोटि, कस्क गाँव एवं बटग्राम नाम से पाँच ग्राम दान में दिये।

भरद्वाज वंशीय महा तपस्वी कविशेखर श्रीहर्ष ने वाणकुण्डा (अधुना बाँकुड़ा) स्थित कस्क गाँव में सपरिवार वास करते समय श्रीधाम नवद्वीप की महिमा श्रवण की श्रीधाम नवद्वीप के अन्तर्गत अग्रद्वीप प्रसिद्ध हिन्दुओं के महा तीर्थ वाराणसी काशी के समान मुक्ति क्षेत्र के रूप से धन्यातिधन्य है। पतितपावनी गंगादेवी उस समय अग्रद्वीप में से होकर बहती थी। वेद प्रचार के लिए इस क्षेत्र में रहना उत्तम है, यह सोचकर श्रीहर्ष वानकुण्डा से सपरिवार अग्रद्वीप में आकर रहने लगे। साम वेदान्तर्गत कुसुम शाखाध्यायी महर्षि श्रीहर्ष की भरद्वाज गोत्रीय भरद्वाज, आंगिरस एवं बार्हस्पत्य तीन मुख्य शाखायें थीं। देवहूति व कर्दम ऋषि की कन्या का नाम श्रद्धा था। ऋषि अंगिरा से श्रद्धा का विवाह हुआ। श्रद्धा के गर्भ से वैश्य एवं भगवान् श्रीनारायण के मानस पुत्र देवगुरु बृहस्पति ने पुत्र रूप से जन्म लिया। देवगुरु बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज हुए। महर्षि भरद्वाज की वंश परम्परा में श्रीहर्ष ने जन्म लिया और तदीय गोत्र में वे प्रमुख रूप से प्रसिद्ध हुए। मुख्य वंशज श्रीहर्ष के पुत्र-पौत्रादि परवर्ती काल में अग्रद्वीप छोड़कर शान्तिपुर कुलिया गांव में आकर निवास करने लगे। इस कुलिया में बंगदेश के आदिकवि श्रीरामायण लेखक श्रीकीर्तिवास का जन्म हुआ। जिन्होंने बाल्मीक मुनि रचित संस्कृत रामायण का बंगला भाषा में अनुवाद किया।

कुलिया निवासी श्रीहर्ष के वंश में बहुत कृतविज्ञ ब्रह्मविद् भगवान् श्रीहरि के एकान्त प्रियभक्त महापुरुषों ने जन्म लिया। इनमें विशेष उल्लेख योग्य पद्मावती व अर्जुन मिश्र प्रसिद्ध हुए। अर्जुन मिश्र स्वस्त्रीक श्रीक्षेत्रधाम पुरी में रहने लगे। पाण्डित्य प्रतिभा में ये विशेष प्रसिद्ध हुए । इन्होंने बहुत सारे धर्म ग्रन्थों की रचना की । प्रत्यह भिक्षा में प्राप्त द्रव्यादि द्वारा धर्मपत्नी के साथ जीवन निर्वाह करते थे। एक समय श्रीगीता का यथायथ अनुवाद करते समय नवम अध्याय तक पहुँचे।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। (गी. ९ / २२ )

श्रीगीता के नवम अध्याय के इस श्लोक का अनुवाद करते समय योगक्षेमं वहाम्यहम् देखकर इनका मन सन्देह से आच्छादित हो गया। भक्त-वत्सल भगवान् अपने भक्त का पालन करते हैं, यह पूर्ण सत्य है। किन्तु भगवान् साक्षात् भक्त के लिए सारी वस्तुयें अपने सिर पर रख कर भक्त के घर पर पहुचाते हैं, यह कैसे सम्भव हो सकता है? इस विषय में मुझे भगवान् की इस वाणी में अत्यन्त सन्देह हो रहा है और बिलकुल विश्वास भी नहीं होता है। इस प्रकार सोचते हुए श्लोक की टीका रचना को बीच में छोड़कर श्लोक के योगक्षेमं वहाम्यहम् इन दोनों शब्दों को स्याही से काटकर भिक्षा के लिए चले गये । भक्तवत्सल भगवान् ने अपने वाक्य की सत्यता एवं मर्यादा रक्षा के लिए स्वयं बलराम सहित श्रीकृष्ण दो अनिन्द्य सुन्दर बालक के रूप से बहुत सारी खाद्य सामग्री के दो बोझ अपने सिर पर रख कर अर्जुन मिश्र के घर पहुँचे। बाहर से पुकारते हुए माँ ! माँ ! शीघ्र ही दरवाजा खोलकर आइये और हम दोनों के सिर से यह भारी वजन उतार कर रखिये। घर में पद्मावती ने बाहर से इतनी मधुर आवाज सुनकर के सिर से वह बोझ उतारकर पूछा- बालकों ने पद्मावती से कहा अति शीघ्र दरवाजा खोला और दो बालकों का दर्शन कर आश्चर्यमय हो गई। शीघ्र ही उन्होंने बालकों -आप दोनों कौन हो ! यह दोनों बोझ किसने भेजे ? यह सुनकर -माँ! हम दोनों भाई नदी के किनारे ग्वाल बालकों के साथ गायें चराते हुए सब मिलकर खेलते थे। साधु अर्जुन मिश्र ने भिक्षा करके उसी रास्ते में आते हुए हम दोनों भाइयों को बुलाकर कहा—ये सब सामग्री तुम दोनों मेरे घर पर पहुँचा दो। हम दोनों ने कहा इतना भारी बोझ हम दोनों नहीं ले जा पायेंगे। तब साधु ने हम दोनों की पीठ पर लाठी से प्रहार किया और जोर पूर्वक भिक्षा की सामग्री हम दोनों भाइयों के सिर पर चढ़ाकर आपके पास भेजी है। यह कहकर पद्मावती को बालक रूपधारी भगवान् कृष्ण-बलराम ने अपनी पीठ दिखाई। पद्मावती यह देखकर रोते हुए कहने लगी, ब्राह्मण इतने निष्ठुर कैसे हो गये? इतने सुन्दर अति कोमल बालकों के सिर पर यह भारी बोझ भी चढ़ाया और पिटाई भी की? ठीक है, ब्राह्मण के आने पर मैं पूछूंगी। अब तुम दोनों यहाँ बैठो, मैं कुछ खाने को लाती हूँ। कुछ खाकर और जल पी कर जाना। तब बालकों ने कहा- नहीं, नहीं माँ! हमें जल्दी जाना है, हम गाय-बछड़ों को चरते हुए छोड़कर आये हैं। फिर भी पद्मावती देवी इन्हें बैठाकर शीघ्र ही अन्दर गई उसी समय कृष्ण-बलराम दोनों अन्तर्हित हो गये। पद्मावती ने बाहर आकर देखा तो वहाँ वे दोनों बालक नहीं हैं। यह देखकर वे अत्यन्त दुःखी हृदय से दरवाजा बन्द कर घर में लौट आई।

अर्जुन मिश्र भिक्षा के लिए दिन भर गाँव-गाँव में घूमते हुए अतिशय क्लान्त अवस्था में कुछ समय बाद अपने घर पहुँचे एवं बाहर से पद्मावती को आवाज दी-पो ! शीघ्र दरवाजा खोल। पद्मावती ने उनकी आवाज सुनकर दरवाजा खोला। ब्राह्मण थकान के कारण भीतर बैठकर कहने लगे-पद्मे! आज दिनभर घूमने से भी किसी गाँव में कोई भिक्षा नहीं मिली। खाली झोली वापस आना पड़ा। भगवान् की न जाने क्या इच्छा है, आज उनकी सेवा कैसे होगी। यह सुनकर पद्मावती देवी विस्मय पूर्वक कहने लगी- आप यह क्या कह रहे हैं? कुछ समय पहले एक गोरे एवं एक श्याम वर्ण के दो बालकों के सिर पर रखकर भिक्षा द्रव्य के इतने बड़े-बड़े दो बोझ आपने ही तो भेजे थे और कह रहे हैं आज कुछ नहीं मिला। मुझे कुछ समझ में नहीं आता। उस भारी बोझ को वहन न कर पायेंगे, उनके ऐसा कहने पर आपने डण्डे से उन दोनों बालकों को मारा, जिससे उनकी पीठ से खून निकलने लगा। मैंने यह अपनी आंखों से देखा है। आप इतने निष्ठुर कब से और कैसे हो गये ? पहले तो ऐसे नहीं थे। आपके मन में थोड़ी भी दया नहीं है क्या? इतना सुनकर ब्राह्मण ने कहा- में घूमकर भी मुझे एक मुट्ठी भिक्षा नहीं मिली, मुझे देखकर कोई द्वार से लौटा देता, कोई द्वार बन्द कर – यह सब क्या कह रही हो? आज तो दिनभर गाँव-गाँव देता। खाली झोली लेकर वापस आया हूँ, यह तुम देख ही रही हो। फिर भी तुमने कहा कि मैंने बहुत भिक्षा की सामग्री भेजी। यह सुनकर ब्राह्मण से पद्मावती ने कहा तो ठीक है मेरे साथ आप अन्दर आइये और देखिये। अन्दर ले जाकर बालकों के द्वारा लाई हुए समस्त द्रव्य सामग्री को दिखाया और कहा आपने इतना सारा सामान भेजा और फिर भी मुझे खाली झोली दिखा रहे हो ।

यह देख-सुनकर अर्जुन मिश्र एकदम आश्चर्यचकित हो गये । उनको समझने में देर नहीं लगी कि यह सब मेरे प्रभु की लीला है। तब श्रीकृष्णचरण में अपराध और उनके विरह में जलते हुये हृदय से रो-रोकर पद्मावती के चरणों में गिरकर कहने लगे- – आप धन्य हैं। परम सौभाग्यवती हैं। आपने स्वयं दोनों बालकों के रूप में श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन किये हैं। भगवान् के वचन सर्वदा सत्य हैं, झूठे नहीं हैं यह मुझे आज पता चला। आपको पता नहीं है कि मैने गीता की टीका अनुवाद करते समय योगक्षेमं वहाम्यहम् भगवान् के इन दोनों वचनों में सन्देह किया। मैंने सोचा भगवान् भक्त का बोझ अपने सिर पर वहन करते हैं, यह कैसे हो सकता है। इसी विचार से मैं इन दोनों सत्य वचनों को लाल स्याही से काटकर भिक्षा के लिए चला गया। पद्मावती! मैं इतना दुर्भागा व मूर्ख हूँ कि मेरे अनुचित सन्देह को मिटाने के लिए एवं अपने वचन को त्रिकाल सत्य प्रमाणित करने के लिए स्वयं भगवान् को इतना कष्ट करना पड़ा। हाय! हाय! यह मैंने क्या किया। मेरे आराध्य, मेरे प्राणधन, मेरे जीवनधन भगवान् को इतना कष्ट दिया, दुख दिया। मैं कितना अभागा हूँ। समस्त जीवन तक इतनी सेवा आराधना करके भी आज तक उनके दर्शन नहीं मिले, फिर उनके चरणों में इतना बड़ा अपराध हो गया। यह कहकर गीता की टीका में तुरन्त सुधार कर लिखा -नहीं प्रभु! आप जैसे सत्य हो, वैसे ही आपके वचन भी त्रिकाल सत्य, सत्य, सत्य हैं।

वहाम्यहम् पाठे मुञि अवज्ञा करिल ।
ताहार प्रमाण स्कन्धे वहि देखाइल ।।
वहाम्यहम् वहाम्यहम् लिखे पुनः पुनः ।
अपराध क्षमाइते करये स्तवन ।। (भक्तमाल )

पद्मे ! तुम धन्य हो । यह कहकर ब्राह्मण ने अजस्त्र अश्रुधारा बहाते हुए पद्मावती के चरण पकड़कर उनकी चरण धूलि से अपने को अभिषिक्त किया ।

सम्राट आदिशूर ने कान्यकुब्जागत श्रीहर्ष प्रमुख वेदज्ञ ब्राह्मण के द्वारा वेदधर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया । अपुत्रक महा आदिशूर के समय से तत्परवर्ती अधस्तनयों के बीच तदीयात्मजा लक्ष्मीदेवी, अशोक सेन, शूरसेन, वीरसेन, सामन्त सेन, हेमन्त सेन एवं महाराज विजय सेन सभी वैदिक धर्मानुगत थे। किन्तु विजय . सेन का पुत्र महाराज बल्लाल सेन तान्त्रिक मत का बहुत आदर करने लगा। अवश्यम्भावी परिणामस्वरूप राजा द्वारा स्थापित शक्ति उपासना से कालान्तर में बंगदेश में धीरे-धीरे वेद विधान समूह अन्तर्हित हो गये और उसकी जगह तन्त्र शास्त्र व शक्ति पूजा की प्रधानता बढ़ने लगी । बल्लाल सेन ने सर्व प्रथम बंगदेश के समाज में कौलिन्य प्रथा का प्रवर्तन किया। शास्त्र में कुलीन संगा का निर्देश किया-

आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तीर्थ दर्शनम् ।
निष्ठा वृत्तिस्तनो दानं नवधा कुल लक्षणम् ।।

इन नवगुण सम्पन्न ब्राह्मण को कुलीन कहते हैं। कुलिया के मुख्य वंश में श्रीहर्ष के अधस्तन त्रयोदश पुरुष कोलाहल व कोलाई संन्यासीयों के सात पुत्रों में उत्साह एवं गरुड़ ने इस नवगुण सम्पन्न कौलीन्य मर्यादा को प्राप्त कर वंश की गौरव वृद्धि की । बल्लाल सेन के पूर्व ब्राह्मणों में कोई वंशगत उपाधि नहीं थी। उस समय उपाध्याय, ओझा, आचार्य, मिश्र, सार्वभौम, पण्डित, भक्त एवं महदाचार्य आदि पाण्डित्य व्यक्तिगत उपाधियाँ थीं। कुलिया के मुख्य वंश में उत्साह के राजा बल्लाल सेन ने उपाधि प्रदान की। बल्लाल सेन के राज्य काल से इनके वंशधर ने मुखोपाध्याय उपाधि से परिचित हुए।

बंगदेशीय महाराज आदिशूर के आमन्त्रण से कन्नौज से आगत पञ्च नैष्ठिक ब्राह्मणों में श्रेष्ठ एवं वयोज्येष्ठ श्रीहर्ष के ३६ अधस्तन पुरुष श्रीनरेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय थे। ये नरेन्द्रनाथ परवर्ती काल में संन्यासी रूप से समस्त विश्व में श्रीगौरवाणी के एकनिष्ठ प्रचारक त्रिदण्डि स्वामी श्रील भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज के नाम से विख्यात हुए। इनके पूर्व पुरुष के रूप में श्रीसुसेन पण्डित, श्रीजगदानन्द पण्डित एवं सार्वभौम श्रीमाधवानन्द पण्डित तीन सहोदर भ्राता श्रीगौरांग महाप्रभु के अन्तरंग पार्षद थे। द्वितीय भ्राता श्रीजगदानन्द पण्डित श्रीमन्महाप्रभु के सहपाठी थे, जो द्वापर लीला में श्रीकृष्ण महिषी वाम्यभावा सत्यभामा देवी थीं। श्रीनवद्वीप लीला में श्रीजगदानन्द पण्डित के रूप से नित्य ही महाप्रभु के साथ प्रेम कलह लीलाधारी थे। सार्वभौम माधवानन्द महाराज ने लक्ष्मण सिंह कर्त्तृक भरद्वाज गोत्र में श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप से ख्याति प्राप्त की। इनके अधस्तन पुरुष महर्षि स्वरूप चन्द्र के तृतीय पुत्र ब्रह्मर्षि श्रीरजनीकान्त मुखोपाध्याय थे। ये ज्योतिष शास्त्राचार्य श्रीहर्ष के अधस्तन ३५ वें पुरुष एवं कृष्ण ठाकुर के वंश प्रदीप थे। वे ब्रह्मर्षि रजनीकान्त के कनिष्ठ पुत्र श्रीनरेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय थे। श्रीरजनीकान्त के सरला सुन्दरी एवं सुरबाला देवी दो कन्याएं और श्रीकामाख्या चरण, श्रीविश्वेश्वर, गिरीन्द्र मोहन एवं श्रीनरेन्द्र नाथ चार पुत्र हुए। पूर्वबंग ढाका जिलान्तर्गत मुन्शीगञ्ज महकुमा के राजबाड़ी थाना के अधीनस्थ विक्रमपुर जिला के प्रसिद्ध बहर गाँव में कन्नौज से आगत वेदज्ञ भरद्वाज गोत्रज श्रीहर्ष की वंश परम्परा में ३५ वें अधस्तन श्रीरजनीकान्त के कनिष्ठ पुत्र के रूप से विशिष्ट ब्राह्मण परिवार में २३ मार्च, सन् १९०१, बंगला ११ चैत्र, १३०७ में श्रीनरेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय का आविर्भाव हुआ ।

पिता श्रीरजनीकान्त मुखोपाध्याय ज्योतिष शास्त्राचार्य, निष्ठावान सात्विक ब्राह्मणाग्रगण्य त्रिसन्धा स्नान- जप-पूजादि आचारवान एवं वेदज्ञ थे। पिता की इस प्रकार की साधना से बालक नरेन्द्रनाथ प्रभावित हुए। १९०० शताब्दी के प्रथम चरण में ब्राह्मण प्रभाव समृद्ध स्वनामधन्य विद्वद जन अध्यूसित अंचल के रूप से ढाका जिलान्तर्गत विक्रमपुर परगना था। ब्रह्मर्षि श्रीरजनीकान्त महोदय ५० वर्ष तक विक्रमपुर पंचायत के प्रधान सभापति के रूप में सभी के अत्यन्त श्रद्धाभाजन होकर विराजित रहे । श्रीनरेन्द्रनाथ की मातृदेवी दक्षिणाकाली देवी भी ब्रह्मर्षि के समान धर्म परायणा, निष्ठावान, आचारशीला, सर्वजन श्रद्धाभाजनीया, विदुषी महिला थीं। वे अतिशय कोमल हृदया, दयावती, सरल हृदय, पर दुःखहारिनी महिला थी । श्रीनरेन्द्रनाथ को माता-पिता शिशुकाल में प्यार से नसु नाम से पुकारते थे।

श्रीनरेन्द्रनाथ शैशव अवस्था से ही दीन-दुःखी, दरिद्र, साधु संन्यासी और वैष्णवों को अतिशय आदर पूर्वक दोनों हाथ भरकर दान करते थे। ब्रह्मर्षि पिता का अनुसरण कर त्रिसंध्या जप, नियमादि, शुद्धाहार हविष्यान्न ग्रहण एवं आचारादि भी करते थे। शैशव काल से बाल साथियों का साथ छोड़कर एकान्त रूप से तुलसी मन्दिर रचित कर तुलसी पूजा, भोग, परिक्रमा, प्रणाम एवं हरिनाम कीर्त्तन में मग्न रहते थे। भक्तिमति माता के साथ गंगा स्नान, गंगा पूजा एवं एकादशी आदि कार्य इनके स्वाभाविक रूप से स्वभाव सिद्ध थे। इनका इस प्रकार आचार व्यवहार देखकर पड़ौसी जब पूछते अरे नसु! बड़ा होकर तू क्या
बनेगा ? तो वे उत्तर में कहते कि मैं साधु बनूँगा । इनकी बड़ी बहिन बड़े भाई एवं भौजी दोनों इनके शुभ आचरण को देखकर बहुत प्रसन्न होते और अतिशय स्नेह एवं आदर पूर्वक उत्साहित करते थे। गाँव में कहीं श्रीहरिनाम संकीर्तन होता तो वे शीघ्र वहाँ पहुँच जाते एवं दिनभर श्रीहरिनाम संकीर्त्तन करते रहते। प्रतिदिन पिता अपने गृह देवता के मन्दिर में श्रीनारायण शालिग्राम की पूजा करने जब जाते तब बालक नसु अपने हाथों से रोपी हुई तुलसी से पत्र चयन कर पिता को देते हुए कहते कि मेरी तुलसी के पत्र श्रीठाकुर जी की पूजा में समर्पित कीजिये। बालक नसु प्रायः पद्मावती नदी के किनारे बैठकर ध्यान करते थे। बचपन से ही इनके हृदय में भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शुद्ध भक्ति व अनुराग धीरे-धीरे बड़ने लगा। इन्होंने मन को दृढ़ विश्वास पूर्वक स्थिर कर लिया कि भक्तिपूर्वक साधन करने से इसी जीवन में मेरे प्राणधन श्री श्रीराधाकृष्ण के युगलचरण को अवश्य ही प्राप्त करूँगा।

पिता श्रीरजनीकान्त ने छ वर्ष के बालक नरेन्द्रनाथ को विद्याध्ययन हेतु विद्यालय में भर्ती करा दिया। सात वर्ष की आयु से श्रीनरेन्द्रनाथ ने गीता, चण्डी एवं वैदिक पूजा के बहुत से मन्त्र व पूजा पद्धति आदि समस्त कण्ठस्थ कर लिये । अति शीघ्र प्राथमिक शिक्षा समाप्त कर उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए तेलीर बाग गाँव में कालीमोहन दुर्गामोहन अंग्रेजी विद्यालय में भर्ती हुए । विद्यालय के समस्त छात्रों में नरेन्द्रनाथ ने प्रत्येक विषय में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होकर विद्यालय के शिक्षक, अन्यान्य छात्रगण एवं अभिभावक आदि सभी को प्रचुर आनन्द प्रदान किया। नरेन्द्रनाथ नित्यप्रति पद्मावती नदी में बहुत समय तक तैरते रहते थे एवं तैरने की प्रतियोगिता में अपने सभी साथियों को पराजित कर देते थे ।

एक समय गले की कोई बीमारी होने से आपको बड़े भाई के साथ ढाका मेडिकल कॉलेज के डाक्टर के पास जाना पड़ा। वहाँ बड़े भाई के कर्वाटर में रहकर चिकित्सा कार्य पूर्ण हुआ। स्वस्थ होकर ढाका से अपने गाँव नाव से आने के समय पद्मावती नदी में अकस्मात् भयंकर प्राकृतिक दुर्योग के कारण नाव डूबने लगी जिससे सभी लोगों ने अपना मृत्यु निश्चित समझी। इस अवस्था में सलिल समाधि रूपी मृत्यु के भय से घबड़ाकर सभी यात्री जोर से रोते हुए चिल्लाने लगे। उसी समय बालक नरेन्द्र नाथ स्थिर- शान्त भाव से नाव के बीच पद्मासन में बैठकर आँखों को बन्द कर अपने भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न हो गये। कुछ समय बाद प्राकृतिक दुर्योग बन्द हो गया। सूरज निकल आया एवं समस्त यात्रियों के साथ शान्ति पूर्वक नदी के किनारे पहुँच गये। समस्त यात्रियों ने नरेन्द्रनाथ को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम कर कहा – ठाकुर ! आप न होते तो हम सब की आज मृत्यु अवश्य ही हो जाती। ठाकुर ! आप की कृपा से हम सबने आज भयंकर मृत्यु योग से रक्षा पाई। यह कहकर सभी यात्री नरेन्द्रनाथ को बार-बार प्रणाम कर अपने-अपने स्थान को चले गये। नरेन्द्रनाथ प्रायः पद्मावती के किनारे बैठकर अपलक नयनों से अश्रु विसर्जन के साथ अस्तगामी सूर्य को देखकर मन ही मन सोचते इसी प्रकार अति सुन्दर स्निग्ध ज्योति के बीच मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण निश्चय ही एक दिन मुझे दर्शन देंगे।

सन् १९१२ में नरेन्द्रनाथ की आयु ९-१० वर्ष की थी भारत सम्राट पञ्चम जार्ज एवं तत् पत्नी सम्राज्ञी के सिंहासन आरोहण का उत्सव विपुल समारोह के साथ दिल्ली में आयोजित हुआ। यह उत्सव भारत वर्ष के समस्त शहरों, कस्बों एवं गाँवों में मनाया गया। विक्रमपुर के कुम्भकार द्वारा सिंहासन में विराजित सम्राट सम्राज्ञी की मिट्टी से बनी हुई मूर्ति का प्रसिद्ध बहरगाँव जमींदारों के तत्त्वावधान में ग्राम पंचायत के सभापति ब्रह्मर्षि श्रीरजनीकान्त मुखोपाध्याय के अधिनायकत्व पूर्वक बहरगाँव में भी एक उत्सव सम्पन्न हुआ। बहरगाँव के कुम्भकार द्वारा निर्मित भारत सम्राट सम्राज्ञी की मूर्ति की छवि अखवार में देखकर सम्राट ने अत्यन्त सन्तुष्ट होकर बहरगाँव के कुम्भकार को बहुमूल्य उपहार प्रदान किया। श्रीनरेन्द्रनाथ ने पिता के साथ बहरगाँव के उत्सव में जाकर भारत सम्राट पञ्चम जार्ज व सम्राज्ञी मैरी की मिट्टी से बनी हुई मूर्त्तियों के दर्शन किये।

जहाँ भी श्रीहरिनाम संकीर्तन व श्रीमद्भागवत का पाठ होता वहाँ बालक नरेन्द्रनाथ पहुँच जाते और श्रद्धा पूर्वक श्रवण कीर्तन करते थे। नरेन्द्रनाथ बचपन में श्रीकृष्ण एवं शिव जी की छवि खाते-पीते, उठते-बैठते, पाठशाला जाते-आते, सोते-जागते आदि अवस्था में चौबीस घन्टे अपने साथ लिये रहते थे। शिव जी की ध्यानावस्था छवि देखकर नरेन्द्र भी उसी प्रकार पद्मासन में बैठकर ध्यान करते थे। ध्यान करते समय उनकी आँखों से अश्रु निकलते रहते, जिसे देखकर सभी आश्चर्य चकित हो जाते। बालक नरेन्द्र १०-११ वर्ष की आयु में ही नाव चलाने में पूर्ण दक्ष हो गये थे। पद्मावती नदी में अपने माता-पिता, बहिन आदि को नाव में बैठाकर इस पार से उस पार ले जाते और ले आते थे। एक समय बड़ी बहिन सरला देवी के ससुराल से लौटते समय माता-पिता और अन्य लोगों को लेकर नौका से बालक नरेन्द्र पद्मावती नदी को पार कर रहे थे। उसी समय भयंकर अन्धड़-तूफान आने से नौका डगमगाने लगी। सभी यात्री घबड़ाकर दुर्गा ! दुर्गा! बचाओ, बचाओ कहकर चिल्लाने लगे। बालक नरेन्द्र ने क्रोध पूर्वक कहा- चिल्लाना बंद करो, केवल हाथ से ताली बजाकर आप सब जोर से श्रीकृष्णनाम का कीर्त्तन करो। बालक नरेन्द्र के साथ सभी लोग ताली बजाकर श्रीकृष्णनाम संकीर्त्तन उच्च स्वर में करने लगे। थोड़ी ही देर में सारा तूफान आदि शान्त हो गया और नाव किनारे पहुँच गई। बालक नरेन्द्र का श्रीकृष्णनाम के प्रति इतना दृढ़ विश्वास देखकर सभी को आश्चर्य हुआ और बालक को बहुत आशीर्वाद करते हुए अपने-अपने घर चले गये।

पिता श्रीरजनीकान्त ने नरेन्द्रनाथ को उच्च शिक्षा हेतु राँची में अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीकामाख्या चरण के पास भेजा। कामाख्या चरण उस समय राँची शिक्षा परिषद के सुपरिन्टेन्डेन्ट के पद पर कार्यरत थे। इन्होंने अपने छोटे भाई नरेन्द्रनाथ को उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए राँची सेन्ट पल्स उच्च अंग्रेजी विद्यालय की पाँचवीं कक्षा में भर्ती करा दिया। उस स्कूल में प्रिन्सिपल उलियम् केनन कस्ग्रेभ साहिब हिन्दू छात्रों को बाइबिल पढ़ाते थे, बेनेट साहिब अंग्रेजी पढ़ाते थे। मिस्टर हेजल्टन इतिहास और भूगोल पढ़ाते थे, मि. मैकफरसन् गणित पढ़ाते थे, बिहारी पण्डित संस्कृत पढ़ाते थे एवं बंगाली शिक्षक बंगला पढ़ाते थे। बाइबिल परीक्षा में बालक नरेन्द्रनाथ हमेशा प्रथम पुरस्कार पाते थे । अन्यान्य सभी विषयों में भी नरेन्द्रनाथ के समान मेधावी छात्र कोई नहीं था इसलिए विद्यालय के सभी शिक्षक व छात्रगण नरेन्द्रनाथ से अधिक स्नेह रखते थे। नरेन्द्रनाथ स्कूल की खेल प्रतियोगिता में कोई सफलता नहीं पाते थे। किन्तु हाकी खेल में इनकी जोड़ी का कोई नहीं था। ज्येष्ठ भ्राता कामाख्या चरण छोटे भाई नरेन्द्रनाथ को अपने घर में गीता, मनु संहिता, वेद, उपनिषद, भागवत आदि भक्ति ग्रन्थ पढ़कर व्याख्या कर सुनाते एवं पढ़ाते भी थे। प्रत्येक रविवार सध्या समय बड़े भाई के साथ नरेन्द्रनाथ इरेन्डा हरिमंदिर में पाठ कीर्तन के समय योगदान करते थे।

प्रथम विश्व युद्ध के समय हेनल्टन साहब विद्यालय के छात्रों को प्रथम चार श्रेणी में प्लाटून के भाग करके फारमेशन मार्निंग सिखाने लगे। उसमें प्रत्येक प्लाटून में एक-एक कमाण्डर नियुक्त करके फारमेशन परेड कराते थे। कुछ दिन बाद कमाण्डर पद पर नरेन्द्रनाथ की योग्यता, निपुणता और पारदर्शिता देखकर हेनल्टन साहब ने चारों विभागों के छात्रों की परिचालना के लिए नरेन्द्र को प्लेटून मास्टर बना दिया। नरेन्द्रनाथ भी साहब के समान कहते हुए परेड सिखाने लगे। इस प्रकार परेड में विशेष इनकी निपुणता देखकर हेनल्टन साहब ने नरेन्द्रनाथ को नैपुण्य योग्यता स्वीकृति पत्र प्रदान किया।

उस समय विश्व युद्ध लेबर कोर विभाग में जाने के लिए स्कूल के योग्य वयस्क कोल-मुण्डा जाति के छात्रों ने नाम लिखाये। यह देखकर नरेन्द्रनाथ ने प्रिंसिपल कासग्रेव साहब के कर्वाटर जाकर उनसे कहा–मुझे युद्ध में जाने की अनुमति दीजिये। बालक नरेन्द्र से यह सुनकर साहब ने अच्छी तरह समझाकर मना किया। फिर भी नरेन्द्रनाथ ने युद्ध में जाने के लिए साहब से बहुत निवेदन किया। इससे कासग्रिप साहब ने नितान्त निरुपाय होकर एक पत्र के साथ नरेन्द्र को सिविल सर्जन भन साहब के पास भेजा। नरेन्द्रनाथ पत्र लेकर भन साहब के कर्वाटर पर पहुँच कर कालिंग बेल बजाई, जिसकी आवाज से साहब का कुत्ता जोर से भौंकते हुए नरेन्द्रनाथ के पास आया। नरेन्द्रनाथ कुत्ते से डरकर पीछे की ओर दौड़े। साहब ने बाहर आकर देखा और अपने कुत्ते को संभाल कर नरेन्द्रनाथ को अपने पास बुलाया। नरेन्द्रनाथ अत्यन्त भयपूर्वक धीरे-धीरे साहब के पास पहुँचे एवं पत्र साहब के हाथ में दिया। साहब ने पत्र का मर्म समझकर नरेन्द्रनाथ से कहा- -आप मेरे कुत्ते से इतना भयभीत होकर पीछे दौड़ने लगे तो युद्ध स्थल में बड़े-बड़े कमान (तोप) की आवाज में आप कैसे ठहर पायेंगे? आप अभी छोटे बालक हो, युद्ध में जाने के लिए योग्य नहीं हो। आपका साहस देखकर मैं खुश हुआ। अभी सरकार से भेजने के लिए कोई नोटिस नहीं आया। जब निर्देश आयेगा तब विचार करेंगे। अभी आप लौट जाइये एवं मनोयोग पूर्वक पढ़ाई करो। साहब ने फिर कहा आपका यह अस्वाभाविक साहस व उत्साह एक दिन आपको बहुत बड़े युद्ध का सामना करायेगा। इतना समझाकर साहब ने एक पत्र लिखकर नरेन्द्रनाथ को कासग्रेव साहब के पास भेज दिया। अत्यन्त स्नेह परायण प्रिंसिपल साहब एवं ज्येष्ठ भ्राता कामाख्या चरण बहुत चिन्तित थे । पत्र के साथ नरेन्द्रनाथ को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए।

बारह वर्ष की आयु में नरेन्द्रनाथ का उपनयन संस्कार हुआ। नाट्य व अभिनय में बहुत पारदर्शिता के साथ सबकी दृष्टि आकर्षित की। राँची उच्च विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर अस्वाभाविक कृतित्त्व के साथ मैट्रिक पास किया। इसके बाद पटना के बी. एन. कॉलेज में उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए भर्ती हुए। पटना विश्व विद्यालय में आई. ए. फाइनल परीक्षा में नरेन्द्रनाथ ने निगमात्मक तर्क में १०० / ९० और आगमात्मक तर्क में १००/८२ नम्बर लेकर प्रथमस्थान प्राप्त किया। अन्यान्य विषयों में इतिहास में ६४, अंग्रेजी में ५६ नम्बर से परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। लॉजिक के नम्बर देखकर बी. एन. कॉलेज के प्रिंसिपल ने इनको फिलोसफी में आनर्स लेकर पढ़ने को कहा। नरेन्द्रनाथ को दर्शन शास्त्र का पढ़ना अच्छा लगता था। इसके साथ अंग्रेजी में आनर्स लेकर पटना कॉलेज में भर्ती हुए अध्ययन के साथ ही साथ अध्यात्म चेतनामय कृष्ण भावना तथा श्रीकृष्ण अन्वेषण की चिन्ता से नरेन्द्रनाथ पागल जैसे हो गये। पटना कॉलेज के बी. ए. कोर्स के चतुर्थ वर्ष की परीक्षा का नरेन्द्रनाथ को कोई ध्यान नहीं था। सर्व समय केवल एक ही चिन्ता इन्हें पागल बनाये रहती जहाँ जहाँ नेत्र पड़े ताहाँ ताहाँ कृष्ण स्फुरे । कहाँ जाऊँ कहाँ पाऊँ ब्रजेन्द्र नन्दन। हमेशा इसी ध्यान में डूबे रहते थे। ये हमेशा ऐसा अनुभव करते कि श्रीकृष्ण खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते समय हमारे साथ ही हैं। एक दिन नरेन्द्रनाथ कॉलेज न जाकर अपने कमरे में बैठकर श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण ने कहा- चलो गंगा स्नान करने चलते हैं। यह कहकर कृष्ण के साथ गंगा स्नान करने गये। स्नान करते समय श्रीकृष्ण के साथ जल क्रीड़ा करते हुए गंगा के बीच पहुँच गये। जल क्रीड़ा करते समय नरेन्द्रनाथ के द्वारा उलीचा हुआ जल श्रीकृष्ण की आँखों में भर गया। आँखों को मलते हुए कृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये, तब नरेन्द्र रोने लगे। श्रीकृष्ण ने फिर नरेन्द्र को दर्शन दिया। नरेन्द्र कृष्ण के साथ गंगा से बाहर आये एवं कृष्ण से पूछा आँखों में पानी भरने से आपको कष्ट तो नहीं हुआ ? मुस्कुराते हुए कृष्ण बोले नहीं नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ, तुम चिन्ता न करो, यह कहकर कृष्ण अन्तर्धान हो गये। उसी समय बहुत जोर से वर्षा होने लगी। इसी अवस्था में गंगा किनारे स्थित काली मन्दिर में प्रवेश किया और देखा कि मन्दिर बन्द करके पुजारी अपने घर चले गये। नरेन्द्र, देवी के सामने नाट्य मन्दिर में बैठकर जोर से गाने लगे-

हरि तोमाय भालोवासि कइ ।
आमार लोक देखानो
भालो वासा मुखे हरि हरि कइ ।।
जे तोमारे भालो वासे, बाँधा थाको तारि पासे,
आमि यदि वासताम भालो,
जानताम ना आर तोमा बड़ भालोवासि कइ ?

यह गान करते-करते नरेन्द्र की आँखों से अश्रुपात होने लगा। अभी तक वर्षा हो रही थी। अकस्मात् नरेन्द्र को पीछे से किसी नारी स्वर में-वत्स! तुमने बहुत कठिन पथ चुना है, सावधानी पूर्वक चलना, यह सुना। यह सुनकर नरेन्द्र ने पीछे की ओर देखा, शुष्क शुभ्र वस्त्र पहने एक प्रौढ़ा नारी खड़ी हैं। उसे देख वह विस्मित हुए। नरेन्द्र ने पुनः वही वाणी सुनी, और देखा कि वहाँ महिला नहीं है। फिर नरेन्द्र ने उसे बहुत खोजा परन्तु उसका कोई पता नहीं चला। तब नरेन्द्रनाथ को मन में पूर्ण विश्वास हुआ कि जगज्जननी देवी ने ही मुझे सावधान किया है। यह सोचकर नरेन्द्र हाथ जोड़कर देवी के सम्मुख खड़े होकर कातर स्वर में प्रार्थना करने लगे-
देखा यखन दिले माँगो! हेन कृपा करि ।
पराण बँधूरे मिलाये मोर हृदय दाओ भरि ।।

हे जगज्जननी माँ । सन्तान के प्रति जब इतनी ही करुणा है, तब आप मेरे भविष्य जीवन में पथ निर्देशपूर्वक मेरे श्रीकृष्ण अन्वेषण के समय सब प्रकार की बाधा विपदाओं से रक्षा करना। इसके बाद नरेन्द्र अपनी स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर कॉलेज के होस्टल में आ गये।

नरेन्द्रनाथ सोच समझकर तुरन्त सद्गुरु पाने के लिए अत्यन्त व्याकुल होकर मन में सोचने लगे, श्रीगुरु पादपद्म की प्राप्ति न होने से मुझे कौन श्रीकृष्ण के पास ले जायेगा। मेरे आराध्यदेव श्रीगुरु पादपद्म कौन होंगे? मुझे कौन बतायेगा ? मन में सोचा जो मेरे गुरु पादपद्म होंगे उन्हें मैं दर्शन करते ही पहचान लूँगा, यह मेरा विश्वास है। हाँ, मेरे श्रीगुरु पादपदा कोई गृहस्थ नहीं, निश्चय ही वे जगत्पूज्य संन्यासी महापुरुष ही होंगे। परन्तु इतने बड़े विश्व में उन्हें मैं कहाँ खोजूँ, कहाँ जाऊँ? यह सोचकर मन में विचार किया— काशी में बहुत संन्यासी भजन करते हैं, वहाँ जाने से निश्चय ही मेरे संन्यासी गुरु पादपद्म के दर्शन होंगे। इधर बी. ए. आनर्स फाइनल परीक्षा के दिन निकट आ गये। इसका नरेन्द्र को कोई होश नहीं है। केवल कृष्ण चिन्तन, कृष्ण अन्वेषण एवं श्रीगुरुपादपद्म के चिन्तन में हमेशा डूबे रहते थे। एक दिन बाजार से एक कम्बल, एक लोटा खरीदकर काशी जाने के लिए निकल पड़े। काशी पहुँच कर इधर-उधर फिरने लगे, कोई परिचय व ठिकाना नहीं था। माह दिसम्बर में तीन दिन तीन रात इतनी ठण्ड के मौसम में अनिद्रा, अनाहार अवस्था में बिताये। मन में विचार किया गंगाघाट पर प्रतिदिन बहुत संन्यासी स्नान करने आते हैं, वहाँ मेरे श्रीगुरुपादपद्म मिलेंगे। किन्तु नरेन्द्रनाथ का यह प्रयास भी व्यर्थ हो गया। घूमते-घूमते नरेन्द्र रामकृष्ण मिशन में पहुँचे। मिशन के अध्यक्ष के पास समस्त विषयों पर चर्चा की अध्यक्ष ने समझाया कि विवेकानन्द ने कहा है— जीव सेवा ही भगवान् की सेवा है। जीव ही भगवान् है। जीव में प्रेम होना ही भगवान् में प्रेम होना है। इतना सब सुनने से नरेन्द्रनाथ को कुछ भी ठीक नहीं लगा और मिशन से बाहर आ गये। इसके बाद एक वैष्णव संन्यासी के साथ सत्संग हुआ। उनकी कथावार्ता एवं आचरण भी ठीक नहीं लगा। फिर एक व्यापारी भागवत पाठक के साथ सम्पर्क हुआ । उसकी भी कथावार्ता अच्छी नहीं लगी। आखिर व्यर्थ मनोरथ होकर नरेन्द्रनाथ पूर्ववत् कॉलेज के होस्टल में लौट आये।

सात वर्ष की आयु से नरेन्द्र साधु बनने का स्वप्न देखते रहे। आज इसी विचार से अत्यन्त निराश होकर मन में सोचने लगे कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, कहाँ जाने से मुझे श्रीगुरुपादपद्म के दर्शन होंगे। कौन बतायेगा ये प्रश्न मन में आने से चित्त में अशान्ति पूर्वक समय बिताने लगे। ठीक इसी समय बहरगाँव से संवाद आया कि पिता रजनीकान्त अत्यन्त अस्वस्थ अवस्था में हैं। इन्हें चिकित्सा के लिए ढाका मेडिकल कॉलेज में ले जाना पड़ेगा। ज्येष्ठ भ्राता कामाख्या चरण ने पिता की चिकित्सा का दायित्व नरेन्द्रनाथ को सौंपा। नरेन्द्रनाथ अपने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा शिरोधार्य कर पिता-माता एवं बड़ी दीदी सरला देवी को लेकर ढाका पेण्डेरिया सरजूबाला दास गुप्ता के कर्वाटर पर पहुँचे। वहाँ रहकर पिता की चिकित्सा धीरे-धीरे होती रही। नरेन्द्रनाथ प्रतिदिन पिता के लिए डाक्टर को दिखाने औषधि व्यवस्था आदि करने के साथ ही साथ अपने पारमार्थिक गुरुदेव की खोज भी करने लगे। नरेन्द्रनाथ को इस प्रकार निराश और चिन्ताग्रस्त देखकर ढाका डिप्टी मेजिस्ट्रेट की प्रौढ़ा कन्या सरजूबाला देवी चिन्तित होकर सोचने लगीं कि नरेन्द्र किस विषय में इतना चिन्तित है। नरेन्द्रनाथ के प्रतिदिन हाव-भाव देखकर सरजूबाला देवी ने अपने मन में निश्चय कर लिया कि वे अवश्य ही किसी सद्गुरु की खोज में सर्वदा चिन्ताग्रस्त रहते हैं। देवी ने नरेन्द्रनाथ को एक दिन अपने कमरे में बुलाया और कहा तुम जिस विषय में इतने चिन्तित हो वह मुझे पता चल गया है। यह सुनकर नरेन्द्रनाथ ने पूछा कि मेरे मन की बात आपको कैसे पता चली? तब देवी ने कहा – तुम्हारे मन की स्थिति देखकर मेरी अन्तरात्मा ने कहा है कि तुम किसी सदगुरु की खोज में हो। तुम संसार छोड़ना चाहते हो । सुनो एक ठिकाना तुम्हें बताती हूँ। उसी ठिकाने पर सीधे चले जाने से तुम्हारे मन का भाव अवश्य ही पूर्ण होगा। तुम ढाका रेलवे स्टेशन के पास नवाबपुर माध्य गौड़ीय मठ में चले जाओ। तुम्हें शान्ति मिलेगी और तुम्हारे परम आत्मीय आराध्य देव का पता भी मिल जायेगा। यह सुनकर नरेन्द्रनाथ चमत्कृत हो गये। क्योंकि इसके पहले किसी गौड़ीय मठ का नाम कभी नहीं सुना था। गौड़ीय मठ का नाम सुनने मात्र से ही उनका हृदय अत्यन्त आनन्द से भर गया और विचार करने लगे, अरे ! इसी स्थान की तो मैं खोज कर रहा था। सरयूवाला देवी के निर्देशानुसार नरेन्द्रनाथ वहाँ जाने के लिए तैयार हो गये। दूसरे दिन प्रातः पिता के लिए औषधि, चिकित्सा की सब व्यवस्था करके बड़ी दीदी को पिता की देखभाल करते रहने की बात कहकर नरेन्द्रनाथ नवाबपुर जाने को तुरन्त निकल गये।

नरेन्द्रनाथ का छात्र जीवन एक धनाढ्य व्यक्ति के समान बीता। ये वेश कीमती वस्त्र, जूते आदि का उपयोग करते थे। इसी पहनावे में नरेन्द्रनाथ पेण्डेरिया से ढाका माध्व गौड़ीय मठ तक पहुँचे। मठ के बाहर रोड पर खड़े होकर देखा मठ की प्रथम मंजिल के बरामदे में गेरुवा कपड़े पहने एक साधु माला में जप करते हुए टहल रहे हैं। नरेन्द्रनाथ ने निःसंकोच उल्लसित भाव से मठ के सीढ़ी से ऊपर प्रथम मंजिल पर पहुँचकर साधु के चरणों में हाथ जोड़कर प्रणाम किया। साधु इन्हें देखकर विस्मित हुए और इन्हें किसी सम्भ्रान्त धनाढ्य शिक्षित परिवार का समझकर नरेन्द्रनाथ से कहा कि मठ रक्षक अभी बाहर गये हुए हैं, आप थोड़ा इन्तजार कीजिये। नरेन्द्रनाथ ने कहा आप इतने परेशान न हों, मैं मठ रक्षक से साक्षात्कार करके ही वापस जाऊँगा। यह सुनकर साधु जी श्रीपाद राधावल्लभ दास ब्रजवासी ने आनन्दपूर्वक नाट्य मन्दिर का दरवाजा खोल कर उनके विश्राम आदि की सारी व्यवस्था कर दी।

नरेन्द्रनाथ ने नाट्य मन्दिर में विश्राम करते समय सामने दीवाल पर सौम्य प्रशान्त मूर्ति, उज्ज्वल मुख कान्ति विशिष्ट, विशाल आयत नेत्रद्वय समन्वित, आजानुलम्बित करकमल में त्रिदण्ड धारी संन्यासी वेश में एक परम ज्योतिर्मय दिव्य महापुरुष के सुदीर्घ कलेवर, स्वर्ण कमल पर विराजित वृहद् आकृति विशिष्ट एक चित्रपट देखा। विस्मय पूर्वक यह दर्शन कर नरेन्द्रनाथ के चिर आराध्य परम आत्मीय अपने श्रीगुरुपादपद्म को पहचानने में एक पल की भी देर नहीं लगी। दर्शन करके वे कहने लगे यही तो मेरे नित्य आराधनीय श्रीगुरुदेव हैं जिनकी खोज करते हुए दिग दिगान्तर, स्थान-स्थानान्तर भटकता रहा, वे इतने निकट हैं मुझे पता नहीं चला। तुरन्त नरेन्द्रनाथ ने उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम पूर्वक रोते हुए कहा- हे गुरुदेव ! नित्य काल के लिए अपने श्रीचरणों में आश्रय प्रदान कर मुझ पर कृपा कीजिये। यह कहकर उसी दिन नरेन्द्रनाथ ने अपना समस्त जीवन श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद के चरणों में समर्पण कर दिया। कुछ समय के लिए परमानन्द में पुलकित और रोमाञ्चित होकर कण्ठावरुद्ध अवस्था में आँसू बहाते हुए अपने श्रीगुरुदेव का दर्शन करने लगे और मन में कहने लगे-

प्रभु
ये दिन तोमार प्रथम परश
पाइनु पराणे आमि।
बुझिनु तखन तुमिइ आमार
नित्य जीवन स्वामी ।।
कत ना घुरेछि प्रथम वयसे
पाइनि खुजिया मोर ।
सकल जनमेर गुरुके कोथाओ
भाविया हइनु भोर ||
येखाने शुनेछि साधुर संबाद
छुटिया गिछि त्वरा |
देखिया बुझेछ से नहे आमार
हृदयेर ध्रुव – तारा ।।
हताश पराणे फिरिया एसेछि
काँदिया हयेछि सारा ।
बुझि वा जनम विफले काटिल
इये प्रभुके हारा ।।
बुझिया बुकेर वेदना आमार
तुमि हे करुण प्रभु ।
देखा यदि दिले परा राखिले
छाड़िया दिओना कभु । ।

गुरुदेव ! कि आर वलिब आमि ।
जनमे जनमे जीवने मरणे
पराण प्रभु हे तुमि ।।
तोमार चरणे पड़िया रहिव
सतत सेबार लागि ।
(तुमि ) करुण नयने नेहार किंकरे
एइ तो करुणा मागि । ।
चिर जनमेर प्रभु हे तुमि
आमि ये तोमार दास ।
नियत चरणे राखिबे ताहारे
एइ तो परम आश ।।

इस प्रकार श्रीगुरुपादपद्म के चिन्तन से भावमय अवस्था में डुबे हुए अपने आँखों की आँसू से समस्त वस्त्र गिला हो गया। कुछ समय बाद मठ रक्षक श्रीपाद सत्येन्द्रनाथ ब्रह्मचारी आ गये। श्रीपाद राधावल्लभ ब्रजवासी ने नरेन्द्रनाथ का मठ रक्षक से परिचय कराया। नाट्य मंदिर में उभय प्रणाम के अन्त में बैठकर मठ रक्षक ने नरेन्द्रनाथ को बहुत कुछ उपदेश दिये। किन्तु नरेन्द्रनाथ के मन में एक ही चिन्ता थी कि मैं अपने श्रीगुरुपादपद्म के कब दर्शन करूँगा। कुछ समय बाद मंदिर के पट खुलने पर नरेन्द्रनाथ ने श्रीठाकुर जी के दर्शन कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। श्रीमंदिर के सिंहासन पर अति अपूर्व नयनानन्दकर, हृदय हरणकारी केवल श्रीगौरसुन्दर के श्रीविग्रह विराजित हैं। नरेन्द्रनाथ ने अपने हृदय के निष्कपट भाव से अति आदर के साथ पूर्ण कातर होकर श्रीगौरांग महाप्रभु के श्रीचरणों में श्रीगुरुदेव के दर्शन के लिए निवेदन किया। मठ रक्षक ने नरेन्द्रनाथ को अन्न प्रसाद खिलाया। प्रसाद पाने के उपरान्त मठ रक्षक के साथ नरेन्द्रनाथ नाट्य मंदिर में आकर बैठे। नरेन्द्रनाथ ने मठ रक्षक से दीवार में लगे हुए चित्रपट के बारे में जिज्ञासा की। यह किसका चित्रपट व छवि है? यह सुनकर सत्येन्द्रनाथ प्रभु ने कहा- ये महापुरुष हम सबके श्रीगुरुदेव आचार्य जी महाराज हैं। इनका नाम परमहंस परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्री श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद हैं। श्रील प्रभुपाद वर्तमान में कोलकाता श्रीगौड़ीय मठ एवं श्रीमायापुर श्रीचैतन्य मठ में अवस्थान कर रहे हैं। नरेन्द्रनाथ ने पूछा प्रभुपाद कौन हैं एवं उन्हें प्रभुपाद क्यों कहते हैं? मठ रक्षक ने उत्तर में कहा— श्रीलगुरुदेव ने हम सबको उन्हें प्रभुपाद कहकर पुकारने को कहा है। इसलिए हम सब उन्हें श्रीगुरुदेव न कहकर प्रभुपाद से सम्बोधित करते हैं। नरेन्द्रनाथ ने पूछा कि कोलकाता जाने से उनके दर्शन होंगे या नहीं? मठ रक्षक ने बहुत उल्लसित होकर कहा, हाँ उनके दर्शन अवश्य ही होंगे। यह सुनकर उसी क्षण नरेन्द्रनाथ ने मन में संकल्प लिया कि तुरन्त कोलकाता जाकर मैं अपना मन प्राण, जीवन सबकुछ श्रीगुरुदेव के श्रीचरणों में नित्यकाल के लिए समर्पित कर दूँगा। यह सोचकर नरेन्द्रनाथ नवाबपुर से देर रात्रि में पेण्डेरिया अपने वास भवन में लौट आये।

दूसरे दिन डाक्टर प्रतुलपति गांगुली ने मृत्यु शैयाग्रस्त उनके पिता को देखकर नरेन्द्रनाथ से कहा- आपके पिता के लिए विशेष औषधि कोलकाता ट्रपिकल मेडिकल स्कूल से लानी पड़ेगी। यह औषधि ढाका में उपलब्ध नहीं है। आप कोलकाता जाकर उसे तुरन्त लाइये। फिर कहा अब आप पिता को लेकर घर जा सकते हैं। यहाँ रखने की आवश्यकता नहीं है। नरेन्द्रनाथ ने यह सुनकर मन में सोचा कि मेरे संकल्प को पूरा करने के लिए भगवान् को बहुत कष्ट करना पड़ता है, उन्होंने मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की। तत्क्षणात नरेन्द्रनाथ ने अपने जीजा जी श्रीमनमोहन बन्दोपाध्याय को टेलिग्राम देकर ढाका पेण्डेरिया में बुलाया। श्रीमनमोहन ‘बाबू के आने पर नरेन्द्रनाथ ने पिता के बारे में सब कुछ समझाकर अपने पिता माता और बहिन को बहरगाँव ले जाने के लिए सम्पूर्ण दायित्व देकर नाव में बैठा दिया। नाव चलने के समय माता ने रोते हुए अचानक नरेन्द्र से कहा – नसु ! नौका में बैठाकर तुम हम सबको छोड़कर भाग तो नहीं जाओगे? माता के मन में नरेन्द्रनाथ का भविष्य संकल्प पता चल गया। माता, बहिन आदि रोते-रोते नरेन्द्रनाथ को देखते हुए घर चले गये।

नरेन्द्रनाथ पिता की औषधि लाने के बहाने हमेशा के लिए माया के संसार बंधन से मुक्त होकर जन्म-जन्मान्तर के परमाराध्यतम श्रीगुरुपादपदा का श्रीचरणाश्रय ग्रहण करने के लिए कोलकाता जाने से पहले ढाका नवाबपुर माध्वगौड़ीय मठ में पहुँचे। वहाँ श्रीपाद राधावल्लभ ब्रजवासी एवं श्रीसत्येन्द्रनाथ ब्रह्मचारी मटरक्षक से दो परिचय पत्र लिये। उस समय नरेन्द्रनाथ की आयु २३ वर्ष ५ महिना थी । बंगला आषाढ़ १३१३ प्रातः निकलकर कोलकाता १ नं, उल्टाडिंग जंक्शन रोड पर परेशनाथ मंदिर के निकट स्थित गौड़ीय मठ में पहुँचे। मठ के प्रवेश द्वार पर पहुँच कर सौभाग्यवश एक साधु के दर्शन हुए उन साधु के हाथ में नरेन्द्रनाथ ने दोनों परिचय पत्र दिये। पाँच मिनट बाद मस्तक पर तिलक, धोती कुर्ता पहने एक साधु बाहर आये एवं नरेन्द्रनाथ को अपने साथ अन्दर ले गये। हाथ-पाँव धोकर आसनघर में बैठने को कहा। नरेन्द्रनाथ के दिये दो पत्र साधु के हाथ में हैं। साधु ने नरेन्द्रनाथ के सामने वे दोनों पत्र पढ़े, इससे पता चला कि नरेन्द्रनाथ किस उद्देश्य से आये हैं। फिर साधु ने नरेन्द्रनाथ को अपना परिचय दिया कि मेरा नाम श्रीसुन्दरानन्द विद्याविनोद है। मैं पहले ढाका में था। अब मैं मठवासी हूँ। मठ के सभी निवासी श्रीगुरुपादपद्म को प्रभुपाद कहकर सम्बोधित करते हैं। इस समय श्रीलप्रभुपाद श्रीधाम मायापुर श्रीचैतन्य मठ में विराजित हैं। तीन-चार दिन में यहाँ आयेंगे । सुन्दरानन्द विद्याविनोद प्रभु ने मठ के सेक्रेटरी से नरेन्द्रनाथ का परिचय कराया। फिर नरेन्द्रनाथ को प्रिन्टिंग प्रेस में ले जाकर श्रीपाद कुंजविहारी विद्याभूषण प्रभु एवं श्रीपाद अनन्त वासुदेव ब्रह्मचारी के साथ भी परिचय कराया और कहा श्रीपाद कीर्त्तनानन्द ब्रह्मचारी, श्रीपाद धीरकृष्ण ब्रह्मचारी, (बिक्रमपुर निवासी) श्रीपाद कृष्णानन्द ब्रह्मचारी ( बारेन्द्र ब्राह्मण), श्रीपाद प्यारीमोहन प्रभु (कोलकाता), श्रीपाद हरिपद विद्यारत्न प्रभु के साथ भी परिचय कराया। फिर कहा वर्तमान त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिप्रदीप तीर्थ गोस्वामी महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिविज्ञान आश्रम गोस्वामी महाराज- ये सभी इस समय प्रचार कार्य से बाहर गये हुए हैं। मठ के सभी ब्रह्मचारियों को प्रभु कहकर सम्बोधन करते हैं। सुन्दरानन्द विद्याविनोद प्रभु ने नरेन्द्रनाथ को इतना ही समझाकर आसनघर में अन्यान्य ब्रह्मचारियों के साथ रहने की व्यवस्था कर दी।

चौथे दिन प्रातः १० बजे श्रील प्रभभुपाद ने मठवासी भक्तों के खोल करताल आदि द्वारा श्रीहरिनाम संकीर्त्तन के साथ पुष्पमाला चन्दनादि से सुसज्जित होकर मठ में शुभागमन किया। मठवासी सभी भक्तगण कीर्त्तन करते हुए श्रील प्रभुपाद के साथ-साथ उनके कमरे में पहुँचे। नरेन्द्रनाथ ने भी चुपचाप सभी के पीछे-पीछे श्रील प्रभुपाद के कमरे में प्रवेश किया। श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन मात्र करते ही नरेन्द्रनाथ को अपने श्रील गुरुपादपद्म को पहचानने में कोई भी भूल नहीं हुई । ये ही मेरे जन्म-जन्मान्तर के नित्य उपास्य, आराध्य, आश्रय विग्रह, परमात्मीय श्रील गुरुपादपद्म हैं। अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से गद्गद होकर नरेन्द्रनाथ ने सभी भक्तों के बीच श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद के श्रीचरणों में भू-लुण्ठित होकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। प्रणाम के बाद पास में खड़े होकर दिव्यकान्ति, आजानुलम्बित बाहु, दीर्घकाय, दिव्य ज्योतिर्मय महापुरुष के भक्तिपूर्ण नेत्रों से दर्शन करने लगे। श्रील प्रभुपाद ने भी नरेन्द्रनाथ को स्नेहपूर्ण करुणाभरी दृष्टि से देखते हुए दोनों के बीच शुभ मंगल की सूचना की। ऐसा लगा जैसे दोनों चिर परिचित हैं, अब पुनः मिलन हुआ हो । श्रीलप्रभुपाद ने नवयुवक का परिचय जानना चाहा। तब श्रीसुन्दरानन्द विद्याविनोद ने नरेन्द्रनाथ का पूरा परिचय श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में निवेदन किया। श्रीपाद कुंजविहारी प्रभु एवं श्रीपाद अनन्त वासुदेव प्रभु के सामने श्रील प्रभुपाद ने नरेन्द्रनाथ को अभी नीचे जाकर प्रसाद पाओ विश्राम करो, कहकर तीन बजे अपने पास आने को कहा। श्रील प्रभुपाद के निर्देशानुसार नरेन्द्रनाथ में पूर्ववत् साष्टांग दण्डवत प्रणाम करके हृदय में अत्यन्त प्रफुल्लित होकर नीचे जाकर श्रीविग्रहों को प्रणाम किया एवं प्रसाद ग्रहण के पश्चात् तीन बजने की प्रतीक्षा करने लगे। ठीक तीन बजे नरेन्द्रनाथ निःसंकोच पूर्वक श्रील प्रभुपाद के कमरे में पहुँचे। साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके नरेन्द्रनाथ ने कहा- आपने मुझे तीन बजे बुलाया था, मैं आ गया। श्रील प्रभुपाद ने नरेन्द्रनाथ को आने का कारण पूछा, तो नरेन्द्रनाथ में अपना पिछला सारा वृत्तान्त श्रील प्रभुपाद के चरणों में निवेदन किया। नरेन्द्रनाथ का सारा वृत्तान्त सुनकर श्रील प्रभुपाद बहुत प्रसन्न हुये। नरेन्द्रनाथ की मानसिक अवस्था समझकर श्रील प्रभुपाद ने अत्यन्त स्नेह पूर्वक कहा— जीवन का मुख्य उद्देश्य श्रीकृष्ण भजन है। इस विषय में अत्यन्त सारगर्भ हरिकथा दीर्घ समय तक नरेन्द्रनाथ को सुनाई। उसके बाद नरेन्द्रनाथ से श्रील प्रभुपाद ने कहा- इतने समय तक मुझसे जो हरिकथा सुनी, सुनकर जो समझा उसे लिखकर आप मेरे पास लाकर दिखाओ। श्रील प्रभुपाद के निर्देशानुसार नरेन्द्रनाथ साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर नीचे चले गये एवं सोचने लगे, आज तक इस प्रकार हरिकथा मैंने कभी कहीं नहीं सुनी। आज तक मुझे जिसकी खोज थी, वह वस्तु मुझे पूर्ण रूप से प्राप्त हो गई।

श्रील प्रभुपाद के निकट प्रथम बार जीवन के वास्तव सत्य विषय में जो हरिकथा श्रवण की उसका सारांश उपलब्ध कर वे तुरन्त नीचे आसनघर में बैठकर एक प्रबन्ध लिखने लगे। वे सोचने लगे कि, श्रील प्रभुपाद के इस कृपादेश पालनरूप परीक्षा के माध्यम से मेरी चिर अभिलाषा, गुरुकृपा भविष्य जीवन में प्राप्त होना सम्भव है। ऐसा विचार करके एक घण्टा के अन्दर ही आत्मीय के ? प्रबन्ध के साथ श्रील गुरुदेव की श्रीचरण में एक प्रार्थना लिखकर समाप्त किया।

कृपा कर, ओहे गुरो ! धरि तब पाय ।
तब कृपा बिना मोर दिन बृथा जाय ।।
क्षमि अपराध मोर, करुणा करिया ।
निज दास बलि लह चरणे टानिया ।।
पतित अधम मुजि सदा अपराधी ।
बिरह आने हाय ! ज्वलि निरवधि । ।
मुँहु मोर नित्य-प्रभु, मुजि नित्य – दास ।
चरणे राखिबे प्रभो ! हृदे धरि आश ।।
राधा- पद दास्य दिया कर आशीर्वाद ।
सतत सेविब चरण, एड़ मने साध । ।
राधिका नयनतारा तुहु तोमार किंकर ।
ये दास अकिंचन निजे जाने निरन्तर ।।

प्रबन्ध लिखना समाप्त कर निःसंकोच भाव से श्रील प्रभुपाद के कमरे में जाकर प्रबन्ध-लेख उनके हाथ में सौंप कर कहा- आपके निर्देशानुसार आपके मुखारविन्द से हरिकथा सुनकर मैंने जो समझा, वह लिखकर लाया हूँ। यह सुनकर श्रील प्रभुपाद को आशर्य हुआ। श्रील प्रभुपाद वह प्रबन्ध पढ़कर अत्यन्त खुश हुये। फिर एक ब्रह्मचारी के द्वारा साप्ताहिक गौड़ीय पत्रिका के सम्पादक श्रीपाद सुन्दरानन्द प्रभु को बुलवाकर श्रील प्रभुपाद ने कहा कि इन्होंने जो प्रबन्ध लिखा वह अवश्य ही इसी साप्ताहिक गौड़ीय पत्रिका में छपायें। श्रील प्रभुपाद के निर्देशानुसार वही हुआ।

त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज, श्रीमद् भक्तिविज्ञान आश्रम महाराज एवं श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज- ये सब प्रचार कार्य से जब लौट आये, तब श्रीलप्रभुपाद ने सबको नरेन्द्रनाथ का परिचय कराया। श्रीलप्रभुपाद ने कहा- आप सुबह – शाम और रात्रि में केवल प्रसाद पाने के समय नीचे जायेंगे. बाकी समय दिनभर एवं रात्रि तक आप मेरे पास रहकर हरिकथा श्रवण करेंगे। आपके लिए इस समय केवल हरिकथा श्रवण के अतिरिक्त दूसरा कोई काम नहीं है। श्रीनरेन्द्रनाथ श्रीलप्रभुपाद के निर्देशानुसार उनके मुखारविन्द से हरिकथा श्रवण करके सोचने लगे कि श्रील गुरुदेव का मेरे समान हतभाग्य के प्रति इतना असीम स्नेह है, श्रीलगुरुदेव धीरे-धीरे कैसे अपना जन बना लेते हैं। कुछ दिन बाद पूर्वाश्रम के नरेन्द्रनाथ के मध्यम भ्राता श्रीविश्वेश्वर मुखोपाध्याय ने उल्टाडिंगि गौड़ीय मठ आकर उनको घर ले जाने के लिए बहुत चेष्टा की, लेकिन उनकी चेष्टा व्यर्थ ही हुई। उसके बाद शिखा सूत्र, तिलक एवं मस्तक मुण्डन और वैष्णव धर्माश्रयी नरेन्द्रनाथ को देखकर कहा- तेरा इतना अध:पतन हो गया। इस प्रकार घृणापूर्वक बहुत तिरस्कार करके लौट गया । उल्टाडिंगि गौड़ीय मठ आने के एक माह के बीच श्रीनरेन्द्रनाथ को श्रीलप्रभुपाद ने श्रीहरिनाम एवं दीक्षामन्त्र प्रदान किया। नरेन्द्रनाथ का श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी नाम श्रीलप्रभुपाद ने रखा। उस समय श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी की उम्र २४ साल, पूरी हुई।

प्रति वर्ष श्रावण भाद्र महीना में श्रीगौड़ीय मठ के वार्षिक उत्सव के आनुकूल्य द्रव्य संग्रह एवं श्रीमन्महाप्रभु की कथा प्रचार के लिए मठ के संन्यासी एवं ब्रह्मचारी सहित तीन-चार टोली में विभक्त होकर विभिन्न स्थान पर प्रचार करने लगे। इस वर्ष भी उसी समय त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज, श्रीपाद त्रैलोक्यनाथ ब्रह्मचारी, श्रीपाद देवकीनन्दन ब्रह्मचारी, श्रीपाद धीरकृष्ण ब्रह्मचारी के साथ श्रीलप्रभुपाद के निर्देशानुसार श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी भी गये। नरेन्द्रनाथ अपने जीवन में दीक्षा ग्रहण के एक महीने के अन्दर प्रचार पार्टी के साथ कलकाता से पूर्वबंग यशोहर जिला में ग्राम – शहर इत्यादि विभिन्न स्थानों पर श्रीमन्महाप्रभु की कथा प्रचार करने के लिए गये। इन्होंने एक नयी अभिज्ञता अनुभव की। पूर्वबंग में शैलकृपा नाम की नदी के किनारे एक गाँव में बाउल सम्प्रदाय सभा के बीच श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी ने प्रथम बार हरिकथा कीर्त्तन की । केवल ५/१० मिनट वक्तृता होने के बाद वही वाउल सम्प्रदाय के सदर ने हरिकथा की उल्टी व्याख्या करके बहुत तर्क-वितर्क उठाकर उक्त सभा की शोभा नष्ट कर दी। तब यह देखकर श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी ने अत्यन्त क्षिप्त होकर तीब्र प्रतिवाद के साथ कहा- तुम अत्यन्त निर्लज्ज, असत् महामूर्ख, शिष्टाचार एवं शालीनता हीन हो । स्वामीजी महाराज के सम्मुख इस प्रकार घृणित कथा उच्चारण करने के लिए तुमको लज्जा नहीं आती? तुम अभी सभा से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कह कर उसको सभा से निकाल दिया गया। जीवन में नन्दसूनु ब्रह्मचारी का प्रथम प्रचार कार्य शुरू हुआ। विशाल दीर्घकाय, बलिष्ठ सुठामदेह, पूर्ण युवा, नवीन संन्यासी श्रीलभक्तिविवेक भारती महाराज ने सभा में आकर उद्दीप्तकण्ठ एवं बज्रनिनाद शब्द से हरिकथा परिवेशन करके सभा के समस्त लोगों को मोहित कर दिया। श्रीलमहाराज की इस हरिकथा ने श्रीपाद नन्दसूनू ब्रह्मचारी को बहुत प्रभावित किया । नन्दसून ब्रह्मचारी को हरिकथा श्रवण करने में बहुत आनन्द आया।

एक स्थान पर श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज के सभा में आने में विलम्ब होने पर सभा के लोगों की बहुत चञ्चलता देखकर श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी ने सभा में खड़े होकर भाषण देना शुरू किया। उस स्थान पर ब्राह्मधर्म का प्राधान्य अधिक था। इसलिए श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी ने आज तक श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद एवं श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज के मुखारविन्द से जो हरिकथा श्रवण की थी उसी को अपने शब्दों में नन्दसूनु ब्रह्मचारी ने भाषण दिया – ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण नहीं होता । वास्तविक गुण और कर्म के द्वारा प्रत्येक वर्ण का निर्वाचन होता है। यह शास्त्र का प्रमाण वाक्य है। अनेक प्रकार के शास्त्र प्रमाण एवं युक्ति के द्वारा हरिकथा परिवेशन करके सबको सन्तोष प्रदान किया। उसके बाद सबके साथ मठ में प्रत्यावर्तन किया। ब्रह्मचारी जी मठ के अन्यान्य भिक्षार्थियों के बीच भिक्षा कार्य में अग्रणी थे। इस प्रकार उनके प्रचार कार्य की नैपुण्यता ने सभी लोगों को अत्यन्त आकृष्ट किया एवं उनकी हरिकथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होने लगी।

श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी जी विभिन्न स्थानों पर अन्यान्य त्रिदण्डिपादों के साथ प्रचार कार्य किया करते थे। १३३१ बंगाब्द ४ पौष, पूर्वबंग चट्टग्राम स्थान पर बहुत बड़ी सभा में जीवन का उद्देश्य एवं सद्गुरु की प्रयोजनीयता इस विषय पर बहुत सुन्दर भाषण दिया। उस दिन इनका भाषण सुनकर लोगों को खोये हुये पथ का सन्धान मिला और प्रत्येक मनुष्य का वास्तविक क्या कर्त्तव्य है, यह पता चला एवं बहुत शान्ति मिली। वर्द्धमान जिला राजवाड़ी विश्व-वैष्णव राजसभा में बहुत तेजस्विता के साथ अत्यन्त हृदयस्पर्शी भाषण प्रदान किया। इनका भाषण सुनकर राजा बहादुर ने बहुत सन्तोष प्राप्त किया। उन्होंने श्रीगौरसुन्दर के शुद्धभक्ति धर्म प्रचार के लिए बहुत उत्साहपूर्वक यत्न किया। श्रीपाद ब्रह्मचारी जी ने जिस प्रकार अन्यान्य प्रचारक त्रिदण्डिपादगण के साथ श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का विभिन्न स्थानों पर प्रचार कार्य किया था, ठीक उसी प्रकार परमाराध्यतम श्रील गुरुपादपद्म श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के साथ विभिन्न समय में श्रीगौड़मण्डल परिक्रमा, ब्रजमण्डल परिक्रमा, दक्षिण भारत परिक्रमा इत्यादि विषय में भी योगदान किया, जिससे श्रील प्रभुपाद को बहुत आनन्द मिला एवं उनके प्रशंसा के पात्र हुये । १३३२ बंगाब्द, ११ ज्येष्ठ महीने, सोमवार मेदिनीपुर जिलान्तर्गत नारमा ग्रामनिवासी जमींदार श्रीवैकुण्ठनाथ राय एवं श्रीद्वारिकानाथ राय महाशय प्रमुखों द्वारा सम्पादित संस्कृत परिषद के पक्ष में शुद्ध वैष्णव धर्म विषय पर आलोचना सभा आयोजित हुई। उसमें सुन्दरानन्द विद्याविनोद, श्रीपाद सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, श्रीयुत् हरिपद बन्दोपाध्याय एवं श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी जी ने विशेष रूप से भाषण प्रदान किया। इस प्रकार २५ ज्येष्ठ मेदिनीपुर जिला अन्तर्गत नारमा संस्कृत परिषद का द्वितीय वार्षिक उत्सव सुसम्पन्न हुआ। इस प्रकार विपुल प्रचार के द्वारा समस्त मेदिनीपुर जिला के बहुत शिक्षित, गणमान्य नर-नारियों को श्रीगौड़ीय मठ के प्रचार कार्य के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ एवं श्रीगौड़ीय मठ के आश्रित होकर श्रीगौरसुन्दर के शुद्ध प्रेमभक्ति धर्म का अनुशीलन करके उन्होंने अपना जीवन धन्य किया।

श्रीपाद नन्दसून ब्रह्मचारी जी की इस प्रकार युक्ति व सिद्धान्तपूर्ण मनोमुग्धकर आत्मस्पर्शी हरिकथा परिवेशन एवं प्रचार दक्षता देखकर श्रीगौड़ीय मठ के आचार्य भास्कर परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने १३३२ बंगाब्द २९ भाद्र, ४ सितम्बर, सन् १९२५ शुक्रवार को परम उत्साहपूर्वक दो उच्च शिक्षित युवक श्रीपाद नन्दसून ब्रहाचारी एवं श्रीपाद सर्वेश्वर ब्रह्मचारी जी को त्रिदण्ड संन्यास मन्त्र प्रदान करके दिव्य भक्ति संन्यास जीवन प्रदान किया। श्रीपाद नन्दसूनु ब्रह्मचारी जी का संन्यास नाम त्रिदण्डि भिक्षु श्रीमद्भक्ति हृदय वनदेव गोस्वामी महाराज एवं श्रीपाद सर्वेश्वर ब्रह्मचारी जी का संन्यास नाम त्रिदण्डि भिक्षु श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज हुआ। पूर्वबंग के अन्तर्गत विक्रमपुर जिला वरद ग्राम के श्रीनरेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय आज त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज के नाम से परिचित हुए। धीरे-धीरे उच्चतर समाज के उच्च शिक्षित, ज्ञानी-गुणी, राजा-महाराजा एवं वंश मर्यादा से ब्राह्मण – पण्डित, वेद-वेदान्ताध्यायी समस्त मनुष्य त्रिदण्डिस्वामी भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज के आकुमार ब्रह्मचर्य, तेजपुञ्ज शरीर एवं ओजस्विनी भाषा और अलौकिक प्रतिभा से प्रभावित हुये । श्रीव्यास जी के उत्तर मीमांसा का शुद्ध सिद्धान्तपूर्ण वीर्यवती वक्तृता एवं भाषण, हरिकथा, श्रीमन्महाप्रभु के विशुद्ध निर्मल प्रेमभक्तिधर्म की कथा समस्त भारतवर्ष के मानव समाज को श्रवण कराकर जीवन के प्रकृत सत्य का मार्ग दिखाया। यह उपलब्ध कर देशी-विदेशी लोगों ने निष्कपट भाव से श्रीमन्महाप्रभु के नित्य परिकर श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर का श्रीचरणाश्रय करके श्रीमन्महाप्रभु के शिक्षा – भजनादर्श में दीक्षित होकर अपना-अपना जीवन और जन्म धन्यातिधन्य किया । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने शुद्धभक्ति प्रचार हेतु श्रीधाम नवद्वीप के प्राचीन दिव्यज्ञान गौरव का पुनरुद्धार किया एवं ४४४, गौराब्द में भक्तिशास्त्री परीक्षा को पुनः प्रतिष्ठित किया। उस परीक्षा में संन्यासी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ आदि परीक्षार्थियों के बीच श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी अद्वितीय प्रतिभा के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये। श्रील प्रभुपाद ने सन्तुष्ट होकर उन्हें भक्तिशास्त्री की उपाधि प्रदान की।

कलियुग पावनावतारी स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जगत् के मायाबद्ध जीवों के उद्धार हेतु श्रीकृष्णनाम एवं विशुद्ध प्रेमभक्तिधर्म का परिवेशन करने के लिए अवतीर्ण हुये। श्रीमन्महाप्रभु की भविष्यवाणी-

पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ।।

इस वाणी को सार्थक करने के लिए श्रील प्रभुपाद ने निष्कपट भाव से समस्त जीव जगत् के कल्याणार्थ श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार किया । दुःखमय संसार के बहु-तार्किक, धर्मध्वजी, सन्देहवादी, नास्तिक, भोगवादी, जड़ इन्द्रिय तर्पणकारी, अहंकारी, भोगान्ध- कामान्ध लोगों को श्रील प्रभुपाद ने उच्चकण्ठ से पुनः पुनः कहा मैं संसार में कभी गुरु होने के लिए नहीं आया, सेवाभिलाषी, धनाभिलाषी एवं शिष्य को भोग करने के लिए नहीं आया मैं श्रीमन्महाप्रभु का मनोभीष्ट पूर्ण करने, उनके नित्य परमानन्द स्वरूप नाम प्रेमभक्तिधर्म का पुनः प्रचार करने के लिए विशुद्ध निष्कपट समर्पितात्मा, प्रकृत सत्य प्रचारक गुरु तैयार करने के लिए आया हूँ। मैं श्रीमन्महाप्रभु के नित्य परिकर मनोभीष्ट पूरक एकान्त परम प्रियतम प्रेष्ठप्रवर जगद्गुरु श्री श्रीलरूप – रघुनाथ के पादत्राणवाही नित्यदास के रूप से उन्हीं की सेवा करने के लिए आया हूँ।

सन् १९३३ ढाका श्रीमाध्व गौड़ीय मठ के वार्षिक महोत्सव के कुछ दिन बाद सपार्षद श्रील प्रभुपाद श्रीगौड़ीय मठ में लौट आये। मठवासी सभी ने एक दिन श्रील प्रभुपाद को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके देखा कि उनके मुखारविन्द में एक अद्भुत अन्तर्निहित अप्राकृत आनन्दालोक का ज्योतिपुन उद्भाषित हो रहा है। उसके बाद धीरे-धीरे इस रहस्य का प्रकाश हुआ। श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थमहाराज एवं श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव महाराज को विदेश में श्रीगौरसुन्दर के शुद्ध प्रेमभक्ति धर्म एवं नाम प्रचार के लिए भेजने का विचार किया और अपने मन का भाव मठवासी सभीके सामने घोषित किया। यह सुनकर मठवासी सब आनन्द में उल्लसित हुये। इसके लिए श्रील प्रभुपाद ने विचार किया कि कोई भारतीय विशेष व्यक्ति का परिचय पत्र मिले तो विदेश भ्रमण एवं प्रचार कार्य में बहुत सुविधा होगी। इसलिए श्रील प्रभुपाद ने भारत के सार्वभौम कविगुरु श्रीरवीन्द्रनाथ के साथ साक्षात् करके उन्हें एक परिचय पत्र संग्रह करने के लिए श्रीवन महाराज से परामर्श किया। श्रील प्रभुपाद के परामर्श से श्रीवन महाराज जोड़ासाँको गये एवं श्रीरवीन्द्रनाथ के साथ साक्षात् करके समस्त विषय में आलोचना की। यह सुनकर श्रीरवीन्द्रनाथ ने भारतीय संस्कृति के साथ जर्मनी संस्कृति का विशेष रूप से सम्बन्ध होने से प्रथम जर्मनी में प्रचार शुरू करने का परामर्श दिया और कहा कि इस समय भारत में इंगलैण्ड देश का शासक है। प्रथम वहाँ जाकर भारतीय धर्म एवं संस्कृति का सम्बन्ध स्थापित करना बहुत कठिन होगा। यह सुनकर श्रीवन महाराज ने प्रथम कठिन कार्य को सार्थक करने का संकल्प लिया। उसके बाद श्रीरवीन्द्रनाथ का हस्तलिखित परिचय पत्र लेकर श्रीवन महाराज ने मठ में पहुँचकर श्रीलप्रभुपाद को प्रणाम किया एवं परिचय पत्र हाथ में दिया, तब श्रील प्रभुपाद बहुत आनन्दित हुये।

११ अप्रेल, सन् १९३३ मुम्बई से लंदन जाने के दिन कोलकाता श्रीगौड़ीय मठ के प्रचारक त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज एवं श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव महाराज अपराह्न तीन बजे बन्दरगाह पहुँचे। यात्रा के शुभ मुहूर्त में विश्व-वैष्णव राजसभा के सभापति आचार्यदेव श्रील प्रभुपाद श्रीभक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर, सम्पादक मण्डली, गौड़ीय मठ के ट्रस्टी, मठ के द्वादश विशिष्ट संन्यासी एवं अन्यान्य मठवासी सभी ने प्रचारकद्वय को एस. एस. विक्टोरिया जहाज में बैठाकर मुम्बई से लंदन जाने के लिए हृदय से विदाई दी। स्वयं श्रील प्रभुपाद ने श्रीनृसिंह मन्त्र उच्चारण पूर्वक अपने गले की प्रसादी माला दोनों के गले में देकर बहुत आशीर्वाद दिया । प्रचारक संन्यासीद्वय ने श्रील गुरुपादपद्म का कृपाशीर्वाद लेकर जय गुरुदेव ! जय गौरसुन्दर! जय नृसिंहदेव ! कहकर यात्रा शुरू की।

सन् १९१२ में बंगदेश विक्रमपुर के अन्तर्गत बहरगाँव के मेला में पिता के साथ जाकर भारत सम्राट सम्राज्ञी पञ्चम जार्ज एवं मैरी की प्रतिमूर्ति सिंहासन पर देखी थी, उस समय नरेन्द्रनाथ की ८ / ९ वर्ष आयु के थी। ग्राम मेला में मृद् शिल्पी द्वारा बनी हुई मूर्ति को देखकर नरेन्द्रनाथ ने उसे सत्य समझा।

श्रीगौड़ीय मठ के सर्वश्रेष्ठ वक्ता एवं प्रचारक त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज २१ वर्ष बाद इंग्लैण्ड पहुँचे। वहाँ सम्राट पञ्चम जार्ज के राजप्रासाद में मृन्मय मूर्ति नहीं, साक्षात् जीवन्त रूप से सम्राट और सम्राज्ञी मैरी से मिले। भारत की पवित्र अध्यात्म संस्कृति एवं समस्त वेद-वेदान्तादि शास्त्र का सार – सर्वस्व विशुद्ध प्रेमभक्ति धर्म की कथा सुनाई। सिंहासन पर आसीन सम्राट – सम्राज्ञी मन्त्रमुग्ध होकर अपलक नेत्र से एक भारतीय बंगाली संन्यासी के मुखारविन्द से भगवत कथा श्रवण कर रहे थे। इसके बाद जर्मनी, वियना इत्यादि स्थानों पर श्रीमन्महाप्रभु की वाणी प्रचार के द्वारा लोगों के संसार बंधन छुड़ाने एवं नित्य परमानन्दमय श्रीभगवान् के चरणाश्रय प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। श्रीरवीन्द्रनाथ की इच्छा के विरुद्ध श्रीमन्महाप्रभु की वाणी एवं कृष्णनाम महामन्त्र के प्रभाव की परीक्षा के लिए श्रीवन महाराज ने प्रथम इंग्लैण्ड जाने का विचार किया। लंदन विश्वविद्यालय के द्वारा आयोजित एक सभा में प्रायः चार हजार ज्ञानी गुणी और पण्डितों के बीच श्रीवन महाराज ने कहा- मेरे इस देश में आने का एकमात्र कारण- – कलियुग पावनावतारी स्वयं भगवान् श्रीमन्महाप्रभु की वाणी एवं श्रीकृष्ण प्रेमभक्ति धर्म की कथा का प्रचार करना है। जीव के साथ जीव का प्रेम सच्चा नहीं होता, एकमात्र नित्य प्रेममय वस्तु स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के साथ ही शुद्ध प्रेम सम्भव है। क्योंकि प्रेम ही उनका स्वरूप है, प्रेम ही उनको पाने का और वशीभूत करने का एकमात्र उपाय है। श्रीकृष्ण प्रेमभक्ति एकमात्र निष्कपट, सरल-स्वच्छ, अपराध एवं समस्त कामना – वासना शून्य हृदय में निरन्तर उनके श्रीनाम कीर्तन करने से प्रगट होती है। समस्त लोगों को यह कथा सुनकर बहुत सन्तोष हुआ । इस प्रकार विदेश में प्रचार कार्य सफल करके श्रीवन महाराज भारत लौटे और श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया एवं अपने मन की कथा श्रील गुरुदेव को निवेदन किया-

हृदय प्रभु हे मोर!
तोमार किंकर काँदिया कहिछे, करुणा कर प्रचुर ।
कत जे वेदना दियेछि तोमाय,
कठिन कथाय काँदायेछि; हाय!
से दुःख मोर राखिब कोथाय, गभीर वेदना घोर ।।
मोरे कत जे स्नेह करेछ तुमि,
कत जे आदर पेयेछि आमि
से कथा भुलिया, हृदय – स्वामी! मरमे बिंधिनु तोर ।।
करुणा भरा हृदय एमन,
व्याधिते कातर हयेछि यखन,
गलिया गियाछे, प्रभु जे तखन, शियरे वसेछ मोर ।।
क्षुधाय उदर ज्वलेछे जबे,
निज- मुख हते तुलिया तबे,
दिये तुमि आमार करे ते प्रसाद, करिया जोर।।
विदेश रहते प्रचार करिया,
समुखे नसेलि प्रणत हड्या,
तोमार करुण नयन हेरिया, आनन्दे हयेछि भोर।।
विदेशे यखन गियेछि प्रचारे,
संगेते सतत रेखेळ दासेरे,
गरब करेल देखाये आमारे, जानिया निज कुकुर ।।
किंकर तोमाय भुले यदि कभु,
ढालित कालिमा निज शिरे, प्रभु !
कठोर कथाय ताहारे शासिते, भुलिओ ना हृदय चोर ।।
एकदिन जबे सारंगेर तार,
छिड़िया पशिल पराणे आमार,
जानिया वेदना दासेर तोमार, मुछाले नयन लोर।।
चेयेछिनु मुजि तोमा छाड़ि जेते,
सहिते ना पारि कठोर आघाते,
वुकेते टानिया कहिले ताहाते, स्नेह कि नाहि रे तोर !

फिर सन् १९३६ में श्रीवन महाराज विदेश गये १ जनबरी, सन् १९३७ को श्रील प्रभुपाद अपनी अप्रकटलीला कर चुके हैं, यह जानकर वे तुरन्त भारत वापस आये। कुछ कारणों से सन् १९३७ में श्रीवनमहाराज श्रीगौड़ीय मठ छोड़कर अयोध्या जाकर वहाँ भजन करने लगे। वहाँ रहकर श्रीमहाराज ने वेद का परिचय एवं अन्यान्य बारह ग्रन्थ लिखे । सन् १९३९ में रंगून और जापान जाकर श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार किया। सन् १९६० में यूनेस्को मारवुग विश्वविद्यालय के द्वारा आयोजित सभा में भारतीय प्रतिनिधि दल के नेता के रूप से श्रीलगुरुदेव एवं श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार किया।

श्रीलमहाराज जी काशी में रहते समय एकदिन वहाँ कि विशेष श्रद्धालु प्रिय बन्धु श्रीहेमबाबु को बताया- आपको देखकर मुझे याद आता है कि, मैं पूर्व जन्म की शेषभाग में विश साल तक संन्यास जीवन बिताया था। पता नहीं दुर्भाग्यबश कौन सी अपराध के कारण फिर इस संसार में आना पढ़ा। केवल मेरे मन में एक ही बात याद होता है कि, मैं श्रीराधागोविन्द की दर्शन कर इस संसार छोड़कर चला जाऊँ । इस संसार की कुछ भी मुझे अच्छा नहीं लगता है। यह सुनकर हेमबाबु ने पूछा इसका प्रमाण क्या है? महाराज जी ने उत्तर दिया –पूर्व जन्म का घटना वे दृश्य मेरे मन में सिनेमा की पर्दा जैसे नित्य ही प्रकट हो रहा है, इसमें कोई सन्देह नहीं । आप मुझे पागल-उन्माद चाहे कुछ भी कहो हमेशा के लिए काशीवास छोड़कर श्रीवृन्दावन में जाकर मेरे नित्याराध्य श्रीराधागोविन्ददेव की सेवा में मैं जीवन समाप्त करूँ।

एकदिन विश्यनाथ मन्दिर में दर्शन के लिए जा रहे थे। उस समय हेमबाबु ने महाराज जी को लेकर विश्वनाथ मन्दिर की गति में वहाँ की प्रसिद्ध श्रीभृगुमुनि का आश्रम पर पहुँचे। देखा एक प्राचीण जीर्ण कक्ष में अत्यन्त वृद्ध शीर्णकाय एक ब्राह्मण योगी पुरुष महात्मा बैठे हैं। उनके चारो तरफ पर्बत जैसी अति प्राचीण पूँथि- जन्मपत्रिकादि रखे थे। हेमबाबु ने महाराज जी को कहा- -इस मन्दिर में आपका जन्मपत्री हो सकता है। इन दोनों उस ब्राह्मण को प्रणाम करके बैठें और हेमबाबु महाराज जी के जन्मपत्री ब्राह्मण के हाथ में देकर कहा- – आप इस पत्रिका को पहचान कर देखिये आपके पास है कि नहीं ? यह सुनकर हेमबाबु के हाथ से पत्रिका लेकर प्रसन्न हृदय से उस ब्राह्मण ने कहा-हाँ मिल सकता है। कुछ समय तक खोज-खोजकर अत्यन्त जीर्ण एक पत्रगुच्छ लाकर दिखाकर कहा मिल गया, और कहा इसके साथ इस व्यक्ति का पूर्व जन्म का पत्री भी है। ब्राह्मण के मुख से कथा सुनकर महाराज जी ने अतिशय आश्चर्यचकित् होकर सोचने लगा कि मेरे जन्म हुआ बंगलादेश में एवं मेरे पिता जी की हाथों से लिखा हुआ जन्मपत्री वह मेरे पाश है, फिर भी मेरी जन्मपत्री इतना दूर काशीधाम के इस मन्दिर में इतना प्राचीण पूँथि के अन्दर कैसे आ सकता है? तब उस मन्दिर के वृद्ध ब्राह्मण ने कहा- बाबु ! यह बहुत हजार-हजार साल की प्राचीण भृगुमुनि के आश्रम है। महर्षि भृगुऋषि ने कोई एक समय लाखों से जादा महान् मानवों के भूत-भविष्यत् विचार करके सही जन्मपत्री लिखकर गये थे, उसमें बहुत नष्ट हो गया। अन्त में अभी तक जो कुछ है, वह भी सुखे हुए पत्ते जैसे पाण्डुर वर्ण और जीर्ण हो गया। हेमबाबु ने ब्राह्मण के पास उस जन्मपत्रीका माँगने से उन्होंने नहीं दिया कहा- • बाबु ! यहाँ जो कुछ है वह कोई छु भी नहीं सकता। हेमबाबु ने कहा- -तब आप उस जन्मपत्री पड़कर सुनाइये । ब्राह्मण ने उस पत्रीका पड़ने लगा। महाराज जी ने उस पत्रीका की कथा के अनुसार अपने हाथों में रखे हुए पत्रीका को मिलाकर देखा दोनों पत्री एक है कोई अन्तर नहीं। लेकिन उस जन्मपत्री महाराज जी की है, यह उस ब्राह्मण को पता नहीं चला। आखीर में मन्दिर के ब्राह्मण ने कहा—यह पत्री कोई एक महान् व्यक्ति का होगा। हेमबाबु ने उस ब्राह्मण को कहा- -आप कृपा करके कुछ दक्षिणा लेकर उस पत्री लिखकर मुझे दीजिये। तब उस ब्राह्मण ने पत्री लिखकर हेमबाबु को दिया।

श्रीलमहाराज जी ने भृगुमन्दिर से पत्री लेकर हेमबाबु के साथ विश्वनाथ जी का मन्दिर दर्शन करके अपने भजनस्थली में लौटा। महर्षि भृगुऋषि के द्वारा महाराज जी का जन्मपत्री में इस प्रकार लिखा है कि-महाराज जी पूर्व दो जन्म तक अपने गुरुदेव के चरणों में महद् अपराध के कारण जन्मान्तर हुआ। इस जन्म में तैंतिस वर्ष आयु में समग्र पृथ्वी पर्यटन करके श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का प्रचार करेंगे। तैंतालीस आयु में भारतवर्ष की समस्त तीर्थ भ्रमण करेंगे। भृगुऋषि ने पुनः पुनः गुरुचरणों में महद् अध से मुक्त होने की एक उपाय बताया। केवल फलमूल खाकर और दुध पीकर त्रिसंध्या आह्निक- जप, मिट्टी स्पर्श बिना नाओं के उपर पद्मासन में बैठकर एकवर्ष शांकरीमन्त्र और गुरुमन्त्र जप एवं गुरुपूजा के द्वारा पुरश्चरण की अन्त में समग्र उत्तराखण्ड एवं ब्रजमण्डल परिभ्रमण, दर्शन करके श्रीधाम वृन्दावन में पहूँच कर श्रीगोपेश्वर महादेव का दर्शन एवं पूजा, श्रीराधागोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन देव का दर्शन एवं पूजा निवेदन पूर्वक काशी मणिकर्णिका घाट में स्नान करके श्रीगुरुपूजा के द्वारा पूर्ववत् नाओं में बैठकर एकलाख गुरुमन्त्र जप करने से जन्म-जन्मान्तर की गुरुचरणों में महद् अपराध से मुक्त होकर पूर्वावस्था के साथ भजनसिद्धि प्राप्त होगा। महाराज जी गुरुचरणों में अपराध रूप विषाक्त कीटों की दंशन से नित्य मुक्त होने के लिए श्रीभृगुऋषि के सस्नेह पूर्ण आशीर्वाद रूप शुभ निर्देशानुसार तपस्या की। अन्त में श्रीलगुरुदेव प्रभुपाद की साक्षात् दर्शन प्राप्त किये और उनके चरणों में पतित होकर अपनी अपराध की क्षमा प्रार्थना की। श्रीलप्रभुपाद महाराज जी को अपनी हृदय से क्षमा किया एवं आशीर्वाद करके अर्न्तधान हो गये।
उससे कुछदिन वाद १३४९ बंगाब्द २७ पौष, सुबह श्रीलमहाराज काशी मणि कर्णिका घाट पर पतितपावनी गङ्गा में स्नान कर द्वादश अंगों में तिलकादि करके गंगा के तट पर एक ऊँचे स्थान पर चबुतरा में अपना इष्टमन्त्र जप कर रहे हैं। कुछ समय बाद ध्यान मग्न अवस्था में दिव्य ज्योतिर्मय महादेव का अपूर्व रूप से दर्शन किया। श्रीमहादेव वन महाराज के मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद करके अन्तर्धान हो गये। तब महाराज अत्यन्त दुःखी हुये । तुरन्त आकाशवाणी हुई कि -वत्स! तुम्हारा काशीवास पूर्ण हो गया। तुम अभी श्रीधाम वृन्दावन चले जाओ तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। श्री श्रीराधामदनमोहन जी के मन्दिर के दक्षिण द्वार में तुम्हारे लिए स्थान है। यह सुनकर श्रीमहाराज एक अलौकिक परमानन्द में डूब गये। कुछ दिन बाद श्रीकाशी विश्वनाथ जी के कृपादेश को शिरोधार्य कर श्रीधाम वृन्दावन की यात्रा की। श्रीधाम वृन्दावन आकर प्रथम श्री श्रीराधागोविन्द जी के चरणों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके श्रीधाम वृन्दावन में वास किया। कुछ दिन बाद अनन्त करुणामयी वृषभानु नन्दिनी श्रीमती राधारानी की कृपा से अचानक श्री श्रीराधामदनमोहन जू के नित्य विलासकुंज के दक्षिण द्वार पर श्रीमहादेव के निर्देशानुसार भजन के लिए स्थान मिला।

१३४९ बंगाब्द ११ फाल्गुन मंगलवार को जमीन की रजिस्ट्री हो गई। कुछ दिन बाद श्रीलमहाराज ने मन में सोचा कि पहले उत्तराखण्ड देवभूमि का पर्यटन करके श्री श्रीराधागोविन्द जी की नित्यलीलास्थली श्रीवृन्दावन में भजन करके जीवन समाप्त करूँगा । देव प्रयाग में पहुँच कर मध्याह्न के समय तीन देव कुमार के दर्शन हुये। रात्रि में विश्राम के समय स्वप्न में स्वर्ग की देवसभा के बीच देवराज इन्द्र का दर्शन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। उसके बाद यमुनोत्री पहुँच कर यमुनोत्री के शीतल जल में स्नान करके खड़े होकर इष्टमन्त्र जाप करते समय – यमुनादेवी ने कहा- देखो सखी! वनमहाराज स्नान कर जप कर रहे हैं, उन पर कृपा करनी होगी, यह कहकर अपने श्रीचरण जल का वनमहाराज के ऊपर छींटा दिया। तब वन महाराज ने आश्चर्यचकित होकर मन में सोचा कि इस प्रकार निर्जनता के बीच अचानक जल का छींटा किसने दिया? फिर देखा कि थोड़ी सी दूर पर एक पर्वत शिला के ऊपर सखीयों के साथ यमुनादेवी खिलखिला कर हँस रही हैं और अपने श्रीचरणों में आने के लिए इशारा कर अदृश्य हो गयी । इस प्रकार उत्तराखण्ड यात्रा सार्थक कर चार महीने बाद श्रीधामवृन्दावन आकर १३५०, २६, आश्विन गोपीजनवल्लभ श्रीकृष्ण की रासयात्रा शुभ तिथि वासर में श्रीमद्भक्तिहृदय वनदेव गोस्वामी महाराज ने काशी विश्वनाथ जी के कृपादेश के अनुसार एवं श्रीगुरुदेव के आनुगत्य में अपनी भजन कुटी में प्रवेश किया। श्रीधाम काशी भृगु मन्दिर में प्राप्त भूत, वर्तमान एवं भविष्य जीवन का प्रमाण सूत्र जन्मपत्री के अनुसार श्रील वन महाराज ने चार प्रतिज्ञा ली।

प्रथम प्रतिज्ञा – बह्ममुहूर्त से लेकर शाम छः बजे तक निरन्तर मालिका में श्रीहरिनाम कीर्तन करूँगा।
द्वितीय प्रतिज्ञा – किसी के दर्शन नहीं करूँगा।
तृतीय प्रतिज्ञा – भूमि पर शयन करूँगा ।
चतुर्थ प्रतिज्ञा – स्वाभाविक रूप से जो माधुकरी मिलेगी उसी में सन्तोषपूर्वक अपने हाथ से भोग बना कर तुलसी सहित श्री राधागोविन्द को निवेदन कर प्रसाद ग्रहण करूँगा।

श्रीलमहाराज इन चार प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वी को खोद कर गड्डा में बैठकर भजन करने लगे। उस समय एक ब्रजवासी ने श्रीलमहाराज के प्रथम शिष्य रूप में बहुत सेवा की। इस प्रकार चार साल कठोर व्रत किया। यमुना में स्नान करते समय श्रीवृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधारानी की कृपा से श्रीललिता सखी के दिव्य दर्शन और निज सिद्ध स्वरूप लतिका मञ्जरी का परिचय प्राप्त हुआ।

श्रीलमहाराज ने श्रीधाम वृन्दावन में ब्रजवासियों को अशिक्षित देखकर श्रीनन्दगाँव में एक स्कूल और वृन्दावन में श्रीवनमहाराज कॉलेज स्थापित किया। श्रील महाराज ब्रजधाम में बहुत प्रभावशाली साधु थे। उनकी शास्त्र युक्ति, प्रमाण एवं सुसिद्धान्तपूर्ण हरिकथा से मुग्ध होकर चार सम्प्रदाय के आचार्यो से भारतीय संस्कृति के मुख्य आचार्य, उपदेष्टा, विशुद्धता रक्षक एवं पालक के रूप में सादर सम्मान स्वीकार किया।

२९ वामन, ४९६ गौराब्द २१ आषाढ़, १३८९ शकाब्द ५ जुलाई, सन् १९८२ बुधवार श्रीधाम वृन्दावन भजन कुटी में ब्राह्म मुहूर्त के समय श्रीविग्रह की मंगल आरती दर्शन के बाद श्रीलमहाराज ने समस्त मठवासियों को बुलाकर कहा कोई भी मेरे कमरे में नहीं आना एवं मेरी शयन खटिया स्पर्श मत करना । गोलोक से मुझे लेने के लिए दिव्यरथ आयेगा और मैं चला जाऊँगा। तुम सब किसी प्रकार रोना नहीं एवं दुखी नहीं होना, मैं हमेशा के लिए तुम सबके साथ हूँ। सखियों के साथ मेरी शुभयात्रा के समय तुम सब प्रसन्नता से विदाई देना। इतना कहने के बाद भी श्रीलगुरुदेव के विरह में विगलित होकर उनकी खटिया स्पर्श कर दी। तब श्रीलमहाराज ने अत्यन्त दुःखी होकर धीरे-धीरे आँखें खोलकर कहा- मैंने तुम सबको इतना समझाया, फिर भी तुमने मेरी खटिया स्पर्श कर दी। सखियाँ रथ लेकर आयी थीं, मुझे आज ही चले जाना था, किन्तु आप सभी ने मुझे स्पर्श किया, इसलिए मुझे नहीं ले जा पाईं। तुम सबके कारण मुझे और एकदिन सखियों के संग से वञ्चित होकर संसार में रहना पड़ा। दूसरे दिन ८१ वर्ष की आयु में श्रीलवनदेव गोस्वामी महाराज ने १ श्रीधर, ४९६ गौराब्द २२ आषाढ़, १३८९ बंगाब्द, ७ जुलाई, सन् १९८२ बृहस्पतिवार कृष्ण द्वितीया तिथि, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, श्रीधाम वृन्दावन में श्रीमन्महाप्रभु के प्रियतम पार्षद प्रवर श्रीलसनातन गोस्वामीपाद के आराध्य श्री श्रीराधामदनमोहन जी मन्दिर के सन्निहित कालिदह स्थित भजनाश्रम में रात्रि ९ बजे अविराम श्रीहरिनाम कीर्तन के मध्य श्री श्रीराधामदनमोहन जी, वृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधारानी, काशी विश्वनाथ एवं गोपीश्वर महादेव को स्मरण करके अप्राकृत चिन्मय नित्य रासस्थली की लीला में प्रवेश किया । अन्तर्धान के पूर्व ७२ दिनों तक केवल श्री श्रीराधागोविन्द के श्रीचरणामृत को छोड़कर और कुछ भी ग्रहण नहीं किया था।