श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज का एक परिचय

नम ॐ विष्णुपादाय रूपानुग प्रियाय च।
श्रीमते भक्तिदयितमाधवस्वामी-नामिने॥

कृष्णाभिन्न-प्रकाश-श्रीमूर्तये दीनतारिणे।
क्षमागुणावताराय गुरवे प्रभवे नमः॥
सतीर्थप्रीतिसद्धर्म-गुरुप्रीति-प्रदर्शिने। ।
ईशोद्यान-प्रभावस्य प्रकाशकाय ते नमः॥
श्रीक्षेत्रे प्रभुपादस्य स्थानोद्धार-सुकीर्तये।
सारस्वत गणानन्द-सम्वर्धनाय ते नमः॥

श्रीरूपगोस्वामी के अनुगत एवं उनके प्रियजन विष्णुपादपद्म-स्वरूप नित्यलीला प्रविष्ट 108 श्री श्रीमद्भक्ति दयित माधव महाराज नाम वाले गुरुदेव को नमस्कार है। श्रीकृष्ण की अभिन्न प्रकाशमूर्ति, दीनों को तारने वाले, क्षमागुण के अवतार और अकारण करुणावरुणालय-स्वरूप गुरुदेव को नमस्कार है। अपने गुरु-भाइयों में प्रीतियुक्त, सद्धर्म परायण, गुरु-प्रीति के प्रदर्शक और श्रीधाम मायापुर में ईशोद्यान नामक स्थान के प्रभाव को प्रकाश करने वाले गुरुदेव को नमस्कार है। श्रीपुरीधाम स्थित प्रभुपाद जी के जन्मस्थान का उद्धार करने वाले, सुकीर्तिमान, सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के प्रिय पार्षदों के आनन्द-वर्धनकारी-गुरुदेव को नमस्कार है।

श्रील गुरुदेव अपने गुरुदेव का महिमा-कीर्तन करते हुए कहते हैं, “श्रील गुरुदेव की अपने गुरु के प्रति एकान्तिक निष्ठा सभी के लिए अनुसरण करने योग्य एक उदाहरण है। श्रील गुरुदेव का संपूर्ण अस्तित्व—उनका ध्यान, उनके विचार, उनका जप, सर्वस्व—पूर्ण रूप से श्रील प्रभुपाद के मनोभीष्ट को पूर्ण करने के लिए समर्पित था। श्रील प्रभुपाद ने साधरणतः अपने सभी बड़े सेवा आयोजनों की नीव रखने के लिए (कार्य शुरू करने के लिए) श्रील गुरुदेव को अग्रिम सेवक के रूप में भेजा। उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जो भी कार्य वे श्रील गुरुदेव को देंगे वह अवश्य ही सुसंपन्न होगा। श्रील प्रभुपाद ने श्रील गुरुदेव के दृढ़ संकल्प, कार्य-प्रणाली व उन्हें सौंपे गए सभी प्रयासों में उनकी सफलता को देखकर, उनके लिए ‘Volcanic Energy’ (ज्वालामुखीय ऊर्जा) शब्द का उपयोग किया था।”

श्रीचैतन्य मठ और विश्वव्यापी अनेकों गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के प्रिय शिष्यों में से एक एवं श्री चैतन्य महाप्रभु की धारा में दसवें आचार्य – परमहंस परिव्राजक ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज विष्णुपाद, अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के संस्थापक थे । वे शुक्रवार, 18 नवंबर, 1904, उत्थान एकादशी, सुबह 8:00 बजे, पूर्वी बंगाल के कांचनपाड़ा ग्राम में प्रकट हुए। उत्थान एकादशी के दिन चातुर्मास काल की समाप्ति होती है जब श्री विष्णु चार महीनों के शयन के बाद उठते हैं। इस कारण से यह तिथि संसार के लिए आनंदकारी और मंगलदायक है। इसी प्रकार भगवान हरि के अत्यंत दयालु परिकर, पूज्यपाद श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज का इस तिथि पर प्राकट्य, त्रितापों से पीड़ित संसार के बद्ध जीवों के लिए आनंद और मंगल प्रदान करने वाला है।

बहुत कम उम्र से, श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने असाधारण गुणों का प्रदर्शन किया। वे कभी भी किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलते थे। वह अपने दोस्तों और साथियों को सत्य के नैतिक मूल्य और झूठ कहने की अनुचितता के बारे में समझते थे। उनकी उदारता और विवेक को देख कर लोगों को यकीन हो गया था कि वह बड़े होकर असाधारण चरित्र वाले महान व्यक्तित्व होंगे।

1925 में जब श्री माधव गोस्वामी महाराज अपने उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता में थे, वे भगवान् से अत्यंत विरह महसूस करने लगे और उनके नामों को पुकारते हुए आधी रात में रोते। वह दिन में केवल एक बार सादी खिचड़ी खाते। भगवान् में ऐसी तल्लीनता की स्थिति में एक दिन स्वप्न में नारद मुनि आए और उन्हें आश्वस्त किया। नारद ने उन्हें एक मंत्र दिया और कहा कि इसका जाप करने से वह सब कुछ प्राप्त कर लेंगे। हालाँकि, जागने पर, काफी प्रयास करने पर भी श्री माधव गोस्वामी महाराज को पूरी तरह से वह मंत्र याद नहीं आया। मंत्र न याद कर पाने से वे व्यग्र और व्यथित हो गए। गृहस्थ जीवन के प्रति अति उदासीन होने पर उन्होंने इसे त्यागने के लिए दृढ़ संकल्प किया। भगवतदर्शन की तीव्र इच्छा के साथ उन्होंने हिमालय के लिए प्रस्थान किया। हिमालय में जब वे बाहरी दुनिया से वे पूर्ण रूप से अनभिज्ञ हो गए तब उन्हें आध्यात्मिक गुरु की खोज़ करने का दिव्य आदेश मिला । उन्हें यह भी बताया गया कि उनके गुरु उसी स्थान पर मिलेंगे जो स्थान वे छोड़ कर आये हैं।

श्रील माधव गोस्वामी महाराज पहली बार मायापुर आए जहाँ उन्होंने श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर को देखा और उनके अलौकिक व्यक्तित्व से आकर्षित हुए। श्रील प्रभुपाद से वैष्णव सिद्धान्तों को सुनने के बाद, वे उनके तर्कसंगतता और अन्य धार्मिक सिद्धांतों से श्रेष्ठता के प्रति आश्वस्त हो गए। वे श्रील प्रभुपाद की शरणागत हुए और 4 सितंबर 1927, राधाष्टमी तिथि पर उन्होंने उल्टाडांगा मठ में हरिनाम और दीक्षा प्राप्त किया। दीक्षा के बाद उन्हें हयग्रीव दास ब्रह्मचारी के रूप में जाना जाता था। हरिनाम दीक्षा के कुछ ही समय बाद उन्होंने मठ में रह कर कृष्ण और उनके भक्तों की सेवा के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध होने का निश्चय किया।

गुरु के प्रति समर्पित सेवा, निरंतर उत्साह और विभिन्न सेवाओं में उनकी योग्यता के कारण श्रील माधव गोस्वामी महाराज कुछ ही समय में श्रील प्रभुपाद के प्रमुख शिष्यों में गिने जाने लगे। उनके दिए गए कार्यों को पूर्ण करने के अविचल संकल्प, उनके कार्यान्वन और सभी प्रयासों में उनकी सफलता को देख कर श्रील प्रभुपाद उन्हें ‘Volcanic Energy’(ज्वालामुखीय ऊर्जा) कह कर उद्धृत करते थे।

40 वर्ष की आयु में, उन्होंने वैष्णव विधि के अनुसार श्री श्रीमद भक्ति गौरव वैखानस महाराज से श्री राधा गोपीनाथ मंदिर में संन्यास ग्रहण किया। इसके बाद उन्हें परिव्राजकाचार्य त्रिदंडी स्वामी श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज के नाम से जाना जाता था।

श्री माधव गोस्वामी महाराज के सभी गुणों में, उनके आध्यात्मिक गुरु के प्रति उनका समर्पण और उनके गुरुभाइयों के प्रति उनका स्नेह अनुकरणीय था। श्रील प्रभुपाद के अप्रकट होने के बाद, जब भी उनके किसी भी गुरुभाई को कोई कष्ट का सामना करना पड़ा, तो वे तुरंत अपने कष्ट को अनदेखा करके उनकी मदद करने के लिए आगे आते।

श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने पंजाब में मायावाद के किले को भेद दिया, जहाँ उन्होंने पहली बार श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य प्रेम का लोगो को परिचय करवाया । केवल मात्र जीवों को कृष्ण के उन्मुख करके उनका सर्वोत्तम मंगल करने के लिए वे गांव-गांव पैदल या कभी बैल -गाड़ी द्वारा घूमते रहे। उन्होंने वर्ष 1953 में श्री चैतन्य गौड़ीय मठ संस्थान की स्थापना की और भारत के विभिन्न भागों में कई बड़े प्रचार केंद्र स्थापित किए।

उन्होंने जसरा, चकदाह और त्रिपुरा के अगरतला में भगवान जगन्नाथ के 500 साल पुराने मंदिरों की सेवा भी ली। उन्होंने कोलकाता में श्री चैतन्य वाणी प्रेस की स्थापना की। उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में व्यापक रूप से प्रचार किया, बिना कोई जाति, रंग या पंथ के भेद के श्री चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को उन्होंने फैलाया।

मंगलवार 27 फरवरी 1979 को प्रातः 9 बजे, हरिनाम संकीर्तन के मध्य श्रील माधव गोस्वामी महाराज ने, अपने शिष्यों और गुरुभाइयों को दुःख के सागर में छोड़ते हुए, राधाकृष्ण की नित्य लीला (पूर्वाह्न लीला के समय) में प्रवेश किया।