प्रतिष्ठार स्वभाव एइ जगते विदित।
जे ना वाञ्छे, तार हय विधाता-निर्मित ॥
[यह सर्वविदित है कि विधाता के विधान से प्रतिष्ठा का स्वभाव कुछ ऐसा है कि जो इसकी कामना नहीं करता, यह उसी को प्राप्त होती है।] “मन-ही-मन में प्रतिष्ठा की कामना रखकर भजन करने वाले व्यक्ति को भी कभी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होती। ‘जे चाहे से पाए ना, जे पाए से चाहे ना’ अर्थात् जो चाहता है उसे प्राप्त नहीं होती तथा जिसे प्राप्त होती है वह उसे चाहता नहीं यह उक्ति ही साधक के हृदय की भावना को मापने की कसौटी है। श्रील प्रभुपाद ने प्रतिष्ठाशा की तुलना बाघिनी से की है। बाघिनी अपने शिकार को जिस प्रकार बिना चबाए पूरा ही निगल जाती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा की कामना वास्तव में साधक के पारमार्थिक प्राणों अर्थात् शरणागति को पूर्णतया निगल जाती है अर्थात् साधक उच्छृङ्खल बनकर जीवन यापन करने लगता है। “निज मङ्गल के इच्छुक साधक को कनक, कामिनी तथा प्रतिष्ठा की आशा का दृढ़तापूर्वक त्याग करना चाहिए, उन्हें लेशमात्र भी प्रश्रय नहीं देना चाहिए, समादर नहीं करना चाहिए। कारण ये समस्त कामनाएँ अनित्य, अमङ्गल-स्वरूप तथा जीव की सेवा-प्रवृत्ति के सम्पूर्णतः विपरीत हैं। “प्रत्येक साधक को फल्गु-वैराग्य एवं युक्त-वैराग्य के मध्य अन्तर की समझ होनी चाहिए। स्मरण रखो, प्रत्येक उज्ज्वल वस्तु सोना नहीं होती।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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