“अन्यों को सेवा करने में सहयोग प्रदान कर सेवा करना “
आप में से अनेक भक्तों में बहुत अधिक सेवा करने की योग्यता है। आप लोग स्वयं तो हरि-गुरु-वैष्णव की सेवा भली-भाँति कर ही सकते हो, किन्तु स्वयं सेवा करने से अधिक गुरुत्व अन्यों से सेवा कराने में है। वास्तव में जिसकी जैसी योग्यता है, उससे वैसी सेवा कराना उनकी हरिभक्ति में सहायता करना है। उनकी योग्यतानुसार उन्हें सेवा करने में सहयोग करना उनका यथार्थ सम्मान है। ऐसा कर पाने में समर्थ होना शुद्ध रूप से हरिनाम करने में सहायक है।” “जब कोई साधक किसी अन्य को उसकी योग्यतानुसार सेवा में नियुक्त करने में समर्थ होता है तो यह उस के लिए शुद्ध रूप से हरिनाम करने में सहायक होता है।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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अन्य शुभ-कर्मों से हरिनाम की विलक्षणता
नाम सर्वोपरि , नामतुल्य किछु नय।
ए दृढ़ विश्वास करि’ येइ नाम लय ।।
अचिरे ताँहाते हय शुद्ध नामोदय ।
पूर्णानन्द नामरस करेन आश्रय ।।
हरिनाम के सम्बन्ध में विलक्षण बात ये है कि साधन काल में हरिनाम उपाय स्वरूप है जबकि सिद्धावस्था में वही नाम उपेय स्वरूप है। उपाय – स्वरूप हरिनाम में ही उपेय सिद्ध है जबकि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अन्य शुभ-कर्मों में ऐसी बात नहीं है। दुनियावी सभी शुभ कर्म जड़ाश्रित होते हैं जबकि हरिनाम सदा ही चिन्मय है एवं स्वाभाविक ही सिद्ध है। साधन काल में भी हरिनाम शुद्ध और निर्मल होता है किन्तु साधक के अनर्थों के कारण मलिन सा लगता है। साधु – संग प्राप्त होने से ही जड़बुद्धि का विनाश हो जाता है। जड़बुद्धि के नाश होने पर अर्थात् अनर्थ नष्ट हो जाने के बाद ही साधक के हृदय में शुद्ध नाम का स्फुरण होता है। हरिनाम करने वाले साधक को छोड़कर अन्यान्य शुभ – कर्म करने वाले साधक उपेय को प्राप्त कर लेने पर उपाय को छोड़ देते हैं किन्तु हरिनाम करने वाले भगवद्भक्त कभी भी हरिनाम को नहीं त्यागते। यह बात अलग है कि सिर्फ सिद्धावस्था में ही शुद्ध नाम भजन होता है। शुद्ध – नाम अन्य शुभ – कर्मों से अति विलक्षण है। यही नाम के स्वरूप का अपूर्व लक्षण है। वेदों में ऐसा कहा गया है कि साधन काल में ही श्रीगुरुदेव की कृपा से ऐसा विलक्षण ज्ञान होता है। साधनावस्था में जिनको यह ज्ञान नहीं है, वे अभी नामापराधी हैं। श्रीहरिनाम ही सर्वोपरि है। श्रीहरिनाम के समान कोई साधना नहीं है – इस विश्वास के साथ जो हरिनाम करते हैं, बहुत जल्दी ही उनके हृदय में शुद्ध नाम उदित हो जाता है तथा वे पूर्णानन्द स्वरूप श्रीहरिनाम रस का पान करते रहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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भगवान ही जीव के एकमात्र आश्रय हैं एवं भगवत् सेवा ही जीव का नित्यधर्म है
भगवान श्रीकृष्ण अधोक्षज वस्तु हैं । ये अधोक्षज वस्तु कर्मी (भोगमय कर्म) भूमिका की वस्तु नहीं हैं- इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जानेवाली वस्तु भी नहीं है। यदि वे इनमें से कुछ हों, तो वे भोग्यवस्तुओं में अन्यतम हो जायेंगे । वे Centre of all love हैं। तथा हम Part and parcel of indefinite all loved हैं। जिस प्रकार सूर्य एवं उसकी किरण कण हैं । किरण कण सूर्य नहीं है, और सूर्य को छोड़ किरण अन्य कोई वस्तु भी नहीं है। सूर्य के साथ इसका अविच्छेद्य सम्बन्ध है। इसीलिए जीव भगवान का भेदाभेद प्रकाश है ।
जीव भगवान का नित्य सेवक है। इस जगत के साथ उसका कोई सम्पर्क नहीं है । भगवान विभु चेतन हैं, किन्तु जीव अणुचतेन है। भगवान स्वाधीन हैं, किन्तु जीव उनके अधीन है। भगवान ही जीव के एकमात्र आश्रय हैं एवं भगवत् सेवा ही जीव का नित्यधर्म है ।
हम सभी जीव सर्वतन्त्र स्वतन्त्र भगवान के अणुचित् अंश हैं, उसी कारण पूर्णवस्तु के गुण अणु अंश में हममें भी विद्यामान हैं। कृष्ण पूर्ण स्वतन्त्र हैं और जीव की परिच्छिन्न स्वतन्त्रता है। जीव जब अपनी स्वतन्त्रता का सद्व्यवहार करके कृष्णोन्मुख होता है, तब वह सुखी होता है तथा जब भगवान को भूलकर भोगोन्मुख होता है, तब वह दुःख भोग करता है। जीव की स्वतन्त्रता होने के कारण ही वह सेवा की ओर या भोग की ओर जा सकता है। इसी कारण जीव को तटस्थाशक्ति कहते हैं। तटस्थ अवस्था में जीव स्थित नहीं रह सकता। इसीलिए जीव माया की ओर अथवा भगवान की ओर जाने को बाध्य है।
श्रीलप्रभुपाद
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दुनियावी इच्छा के पूरा हो जाने पर भी शान्ति नहीं आएगी। ईश्वर तथा पुनर्जन्म में विश्वास संयत जीवन बिताने में सहायक
जगत के लोग अपने चिन्मय स्वरूप को भूले हुए हैं, इसी कारण वे अपने इस जड़ीय शरीर को ही सब कुछ समझते हैं। शरीर में अभिमान होने के कारण ही उनमें जागतिक वस्तुओं की माँग बढ़ गयी है और यही कारण है कि जगत के लोग सीमित, नाशवान और परिवर्तनशील वस्तुओं के लिये खुद ही ताबडतोड़ हाय-हाय मचाते हुए पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय अशान्ति को निमन्त्रण दे रहे हैं। लोगों में दुनियावी वस्तुओं को इकट्ठा करने की व उन सब वस्तुओं को अपने पास बनाये रखने की होड़ सी लग गयी है। इसी होड़ में भाई-भाई आपस में लड़ रहे हैं। यहीं नहीं, एक गाँव का दूसरे गाँवों से, एक जिले का दूसरे जिलों से, एक प्रदेश का अन्य प्रदेशों से तथा एक देश का दूसरे दूसरे देशों से संघर्ष चल रहा है जिससे सभी को आपसी संघर्ष का भय हमेशा बना रहता है। इसका परिणाम यह है कि सभी अपने बचाव को लेकर हमेशा उद्विग्न से बने रहते हैं व अपनी रक्षा के लिए कठोर परिश्रम करते हुए व्यस्त रहते हैं। सभी अपने-आप में इतने व्यस्त से हैं कि किसी को भी दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिल पा रही है।
ऐसे स्वरूप-भ्रमित मनुष्य दुःखों को हटाने का प्रयास तो कर रहे हैं परन्तु भ्रमित होने के कारण दुःख हटाने के चक्करों में वह अपने झमेले ही बढ़ा रहे हैं। ऐसे में श्रीचैतन्य वाणी को छोड़कर क्या कोई ऐसा उपाय है जो विश्व को इस विषम परिस्थिति से छुटकारा दिला सके अर्थात् सुख पाने की अभिलाषा से पागलों की तरह अनावश्यक पदार्थों के पीछे दौड़ते हुए विश्ववासियों को इस भ्रमित स्थिति के लिए सतर्क कर सके व उन्हें वास्तविक सुख व वास्तविक आनन्द की ओर चला सकें?
जीवों को स्वरूप-विचार में यदि विवर्त होगा अर्थात् भ्रम हो जाएगा तो उनका साध्य अर्थात् लक्ष्य भी भ्रमित सा रहेगा। यही नहीं, ऐसी स्थिति में यह निश्चित है कि उस भ्रमित लक्ष्य को पाने के लिए उनकी साधना भी भ्रमित ही होगी।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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अपने इन्द्रियतर्पण के विचार से सेवा की चेष्टा केवल दिखावा मात्र
भौतिक जगत की विचारधारा को अपार्थिव (दिव्य) जगत में लागू करने की ज़रूरत नहीं है। इस प्रकार की चेष्टा से हम वास्तविक पथ से भटक जायेंगे। सेवा का इशारा बैकुण्ठ-जगत से सेवक के मन में प्रकाशित होता है। हम इस दुनिया के भोगों के प्रति झुकाव को लेकर जो सेवा-चेष्टा दिखाते हैं, उसके मूल में इन्द्रियतर्पण ही रहता है। फिर इसी इन्द्रियतर्पण में बाधा आ जाने पर दुनिया के प्रति वैराग्य हो जाता है। लेकिन वास्तव में यह सेवा नहीं है। श्रील प्रभुपाद की जीवनी में हमें देखने का सौभाग्य मिला है-सरलभाव से दिनरात जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद श्रीगुरुपादपद्म को संतुष्ट नहीं किया जा सका है। श्रीगुरुदेव के आंतरिक-आदेश और बाहरी आदेश या लौकिक निर्देश के अन्तर को समझकर, जो उसका पालन करेंगे, वे ही मंगल प्राप्त कर पायेंगे।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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इस प्रसंग में श्रील केशव गोस्वामी महाराज जी की एक अपनी घटना इस प्रकार है
श्रीचैतन्य मठ में वे तब ‘श्रीविनोदबिहारी ब्रह्मचारी’ के नाम से अवस्थित थे। एकदिन उनकी माता की अत्यन्त अस्वस्थता की खबर के साथ एक चिट्ठी श्रील प्रभुपाद जी के पास आई। चिट्ठी में पुत्र का मुख अन्तिम बार देखने के लिए माता की प्रबल प्रार्थना विज्ञापित थी। श्रील प्रभुपाद ने उसी क्षण श्रीविनोदबिहारी को बुलाकर मातृ-दर्शन के लिए घर जाने का आदेश दिया। ब्रह्मचारी महाशय ने श्रील प्रभुपाद का निर्देश श्रवण करके
विचार किया कि, प्रभुपाद का इस प्रकार का निर्देश केवल लौकिकता के आधार पर ही दिया गया है। किन्तु उनकी हृदय की इच्छा कुछ और है। पारमार्थिक परिचय के सामने जीवों का शौक्र (वंश) परिचय का सम्बन्ध, मूल्यहीन है, इंसे प्रभुपाद ने अपने प्रवचनों में बहुत बार बताया था। इन सब बातों को याद करके श्रीविनोदबिहारी घर वापिस जाने के विचार को छोड़कर अपनी भजनकुटी में हरिनाम करने लगे। यहाँ पर श्रील प्रभुपाद को समाचार मिला कि, उनका विनोद माता को मिलने के लिए न जाकर, मठ में ही, किसी को बिना बताये बैठा है। उन्होंने दुबारा उन्हें बुलाकर कारण जानना चाहा। उत्तर में सुयोग्य शिष्य ने बताया-
“सेइ से परम बन्धु,
सेइ पितामाता।
श्रीकृष्णचरणे ये प्रेमभक्तिदाता ।।
सकल जन्मे पितामाता सबे पाय।
कृष्ण गुरु नाहि मिले, भजह हियाय।।”
(अर्थात् वे ही परम बन्धु हैं, वे ही पिता-माता हैं, जो श्रीकृष्ण के चरणों में प्रेम-भक्ति देने वाले हैं। सभी जन्मों में पिता-माता सब को मिलते हैं लेकिन कृष्ण गुरु नहीं मिलते, उन्हें मन लगाकर भजो।) श्रील प्रभुपाद जी के मुख से सुनकर इन सब विचारों को ही उन्होंने हृदय में बिठाया है। इसलिए श्रील प्रभुपाद ही उनके जन्म-जन्म के पिता-माता है, उन्हें छोड़कर अन्य किसी माता के दर्शनों की लालसा उनकी नहीं है। श्रील केशव गोस्वामी महाराज ने इस घटना द्वारा शिक्षा दी कि, गुरुदेव का लौकिक निर्देश, बाहरी आदेश पालन की अपेक्षा आंतरिक आदेश-पालन में ही शिष्य का वास्तविक मंगल निहित है।
श्री भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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नाम-कीर्तनादि भक्ति के अंगों का पालन होने से ही गृह का पूर्णत्व
तुम लोग सब समय भगवान् की सेवा में नियुक्त रहना। हरिकीर्तनमय घर ही गोलोक-वृन्दावन है और वहीं श्रीभगवान् का नित्य अधिष्ठान है। “येदिन गृहे भजन देखि, गृहेते गोलोक भाय।” (जिस दिन घर में भजन होता है, वहाँ गोलोक प्रतीत होता है)। तुम लोग निर्बन्ध (नियमपूर्वक) श्रीनाम ग्रहण करना। कीर्तन और ग्रंथादि की चर्चा का अभ्यास रखना। तभी तुम्हारा घर सब समय पूर्ण रहेगा।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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उपदेश
सामाजिक मान ल’ये,
थाक भाइ विप्र ह’ये,
वैष्णवे ना कर’ अपमान।
आदार व्यापारी ह’ये,
विवाद जाहाज ल’ये
कभु नाही करे’ बुद्धिमान ॥
हे मन! तुम अपनी समस्त सामाजिक प्रतिष्ठा समेत ब्राह्मण बने रहो परन्तु वैष्णवों की निंदा न करो ! अन्ततः एक बुद्धिमान, अदरक का व्यापारी (जो की एक महत्वहीन व्यक्ति है) उस जहाज के विषय में विवाद नहीं करेगा जिसमें उसका सामान ढोया जा रहा है (क्योंकि जहाज का स्वामी एक अत्यंत धनी व्यापारी है)।
कल्याण कल्पतरु
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यह महत्वपूर्ण विचार है कि कोई तपस्या का अभ्यास करने के उपरान्त भगवान को प्रार्थना अर्पित करने के योग्य बनता है। तपस्या के बिना कोई परम भगवान का सच्चाई से गुणगान नही कर सकता।
श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज
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