जो लोग कहते हैं कि हम धर्म नहीं मानते, वे भुलेखे में हैं। क्योंकि मनुष्य की बात छोड़ो, दुनियाँ में एक भी प्राणी नहीं है जो धर्म को नहीं मानता हो। डिक्शनरी के अनुसार धर्म शब्द का एक अर्थ होता है-“स्वभाव”। सभी प्राणी अपने शरीर के स्वभावानुसार कार्य करते हैं। अतः वे शरीर के धर्म को मानते हैं। इसके अलावा अपने मन की प्रवृति के अनुसार मनुष्य चलता है। इससे पता चलता है कि वह मनोधर्म को भी मानता है। अतः मैं धर्म नहीं मानता हूँ, ये बोलना बिल्कुल फिजूल बात है। देह और मन के कारण के रूप में आत्मा रहती है। आत्मा के रहने से ही देह व मन की चेतनता है। वास्तविकता यह है कि ये देह व मन दोनों ही जड़ वस्तु हैं। इनमें इच्छा क्रिया व अनुभूति नहीं होती। श्रीमद् भगवद् गीता शास्त्र में शरीर व मन आदि को अपरा प्रकृति के अन्तर्गत कहा गया है। हाँ, बद्धजीव आत्मधर्म के अनुशीलन के विमुख है। इस हिसाब से कह सकता है कि वह आत्म-धर्म को नहीं मानता। किन्तु हमें ये स्मरण रखना चाहिए कि आत्म-धर्म ही जीवों के स्वरूप का धर्म है। उसी से जीव का वास्तिवक कल्याण होता है व उसे परम शान्ति की प्राप्ति होती है। माया के संग के प्रभाव से जो बहुत से विरूप-धर्म प्रकाशित हुए हैं, वे जीवों के लिए सिर्फ अनर्थ ही हैं।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
_ _ _ _ _ _ _ _ _