विषया विनिवर्त्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते ॥
श्रीमद्भगवद्गीता (२.५९)

[इन्द्रियों के द्वारा विषयों को नहीं ग्रहण करनेवाले देहाभिमानी व्यक्ति के विषयसमूह तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु विषयों के प्रति उसका जो राग है, वह निवृत्त नहीं होता है। दूसरी ओर परमात्मा के दर्शन से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का विषयों के प्रति जो राग है, उसकी भी निवृत्ति हो जाती है।] “इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त कर देने से भी विषयों की अभिलाषा की निवृत्ति नहीं होती। क्या उपवास करने से किसी की खाने की अभिलाषा की निवृत्ति हो जाती है? परन्तु जब कोई व्यक्ति उत्कृष्ट रस को अनुभव करता है तो स्वाभाविक रूप से निकृष्ट रस को त्याग देता है। श्रीकृष्ण सेवा से प्राप्त होने वाले आनन्द के समक्ष भौतिक संसार से प्राप्त सुख तुच्छ है। इसी कारण श्रीमद्भागवतम् (७.१.३२) में श्रीनारद ऋषि श्रीयुधिष्ठिर महाराज को शिक्षा प्रदान करते हुए कहते हैं- ‘तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्’ अर्थात् किसी भी उपाय से अपने मन को कृष्ण में लगा दो। यह सिद्धान्त युक्त-वैराग्य का मूल है, जो कि वैराग्य का एकमात्र वास्तविक उपयुक्त स्वरूप है।”

श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी

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