जिस किसी के मुख से श्रीमद्भागवत एवं हरिकथा नहीं सुननी चाहिए
श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त सब कुछ अमंगल ही अमंगल है । धर्म, अर्थ, कामिनी (स्त्री), प्रतिष्ठा एवं मोक्ष की कामना भक्ति नहीं है । यदि हमारे प्रत्येक कार्य में, पद-पद पर एवं प्रत्येक प्रकार की चिन्ता में कृष्ण सेवा होती है, तभी सब कुछ ठीक है, उसी से हमारा कल्याण होगा । अपने कल्याण के इच्छुक लोगों को अकृत्रिम (असली) साधुओं की खोज करनी चाहिए। यदि हमारे हृदय में, आलस्य, कपटता या अनेक प्रकार की कामनाएँ रहेंगी, तो हमें वैसे ही साधु या गुरु प्राप्त होंगे । श्रीकृष्ण का कीर्तन करने वाले कृष्ण के प्रिय श्रीगुरुदेव के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करने से ही हमारा वास्तविक मंगल होगा । भाग्य यदि अच्छा हो, तो कृष्ण – कृपा से अवश्य ही हमें सद्गुरु की प्राप्ति होगी । दुश्चरित्र व्यक्ति श्रीमद्भागवत का पाठ नहीं कर सकते । भक्त भागवत ही श्रीमद्भागवत का पाठ एवं हरिकीर्तन कर सकते हैं। चरित्रहीन, अन्याभिलाषी एवं दाम्भिक व्यक्ति के मुख से हरिकथामृत नहीं निकलती । वे जो कुछ कहते हैं, वह विष ही होता हैं । इसीलिए जिस किसी के मुख से श्रीमद्भागवत एवं हरिकथा नहीं सुननी चाहिए । उससे कल्याण के स्थान पर अकल्याण ही होता है ।
श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _
हमेशा भगवान् का नाम स्मरण रखना
“जाये सकल विपद, भक्तिविनोद बलेन, जखन ओ-नाम गाइ।” अर्थात् श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि जब भगवान् का नाम कीर्तन करता हूँ तब सब प्रकार की विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। अतएव नाम संकीर्तन ही हमारी चिन्ताओं को दूर करेगा। सैकड़ों विपत्तियों में भी हरिसेवा का परित्याग नहीं करना चाहिए। फिर भी बुद्धिमानी के साथ जीवन की रक्षा करते हुए जितने अधिक दिन तक हरिसेवा की जा सके, उस विषय में प्रयास करना कर्तव्य है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
भाषा के द्वारा श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रचार नहीं होता
सांसारिक शिक्षा या अशिक्षा पर हरिभक्ति निर्भर नहीं करती। यदि ऐसा होता तो सभी दिद्वान् हरिभक्त होते। जिसने श्रीकृष्ण भजन को ही एक मात्र जीवन का उद्देश्य समझ लिया है, उसे सांसारिक शिक्षा प्राप्ति के लिये समय व्यय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे एक बात स्मरण आती है कि जब मैं मद्रास श्रीगौड़ीय मठ में था, श्रीपाद श्रीधर महाराज, श्रीपाद बन महाराज इत्यादि गुरु भाई वैष्णव भी तब वहाँ थे। मठ-वास जीवन के प्रथम प्रायः दस वर्ष में मद्रास मठ में रहा। हमारी सब की प्रचेष्टा से ही मद्रास गौड़ीय मठ निर्मित हुआ। उस समय मद्रास मठ के जमीन-दाता, न्यायाधीश श्रीसदाशिव अय्यर के पुत्र श्रीराम चन्द्र अय्यर ने मद्रास में सर्वसाधारण के बीच में श्रीमन्महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करने के लिये मुझे तमिल भाषा सीखने का परामर्श दिया था और उस विषय में सहायता भी की थी। किन्तु तीन दिन सीखने के पश्चात् मुझे गुरुदेव जी का Telegram आया और मुझे पुरी जाना पड़ा। बाद में प्रभुपाद जी के पास जब मेरा प्रस्ताव भेजा गया (मेरे छः मास वहीं रहकर तमिल सीखने के लिये) तो उत्तर में प्रभुपाद जी ने कहा था कि भाषा के द्वारा श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रचार नहीं होता, हाँ, विद्वता या पाण्डित्य का प्रचार हो सकता है। जिसके हृदय में भगवत् प्रीति है, उसके द्वारा ही भगवत्-प्रीति का प्रचार होगा। तुम्हारा जो भाषा ज्ञान है, उसी ज्ञान का प्रचार करो। भाषा सीखने में अपने बहुमूल्यवान समय को नष्ट करने का परामर्श में नहीं दे सकता। भगवत्-प्रीति के अनुशीलन के लिए मठ हैं। भगवद्प्रीति का अनुशीलन ही तुम्हारे अपने लिये एवं उन सबके लिये सुखदायक है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _
सत्य की घोषणा करना
“श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज बहुत स्पष्ट वक्ता थे, किसी के भी मत का खण्डन करते समय वे सब बातों को खोलकर रख देते थे, किसी बात को घुमा-फिराकर अथवा सामने कुछ तथा पीठ पीछे कुछ और, ऐसा उनके स्वभाव में नहीं था।” एक समय श्रील महाराज (उस समय श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी) श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज के साथ प्रचार सेवा-कार्य में गये तथा उनके द्वारा शुद्ध-भक्ति की विचारधारा के साथ मिश्रित-भक्ति ‘जत मत तत पथ अर्थात् भगवद् प्राप्ति के जितने मत हैं उतने ही पथ हैं’ का स्पष्ट रूप से अन्तर प्रस्तुत करने से कुछ लोगों को असुविधा हुई तथा उन लोगों ने गौड़ीय मठ के प्रचार का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। जब उपरोक्त घटना तथा श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी के द्वारा भाषण में बोली गयी बात मठ के सेक्रेटरी श्रीकुञ्जविहारी विद्याभूषण के द्वारा श्रील प्रभुपाद को बतायी गयी तब श्रील प्रभुपाद ने कहा, “सिद्धस्वरूप प्रभु ने जो बात बोली है, वह तो सत्य है तथा शास्त्रानुमोदित है। किन्तु हाँ, यह बात भी सत्य है कि वैसी कठोर भाषा हमारे मुख से कदापि उच्चारित नहीं होनी चाहिये। सिद्धस्वरूप प्रभु ने इतना बड़ा प्रचार कर एक लाख रुपये का कार्य कर दिया है। अतएव इस बार उन्हें गौर पूर्णिमा के समय गौर-आशीर्वाद के माध्यम से ‘विद्या-वागीश अर्थात् वास्तविक ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ वक्ता’ उपाधि प्रदान करेंगे, आप उनके उद्देश्य से इस ‘विद्या-वागीश’ उपाधि को लिखकर रख लो।
श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज द्वारा सञ्चित
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _
गुरु-वैष्णवों के प्रति स्वयं को ‘ऋणी’ अनुभव करने का फल है गोलोक की प्राप्ति
“तोमार इच्छाय मोर जीवन-मरण” (तुम्हारी इच्छा से मेरा जीवन और मरण है) जीव कर्मफल के अनुसार ही जगत में शुभ-अशुभ भोगता है। अतः “हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यसत्-साधु-समाचरन्” (आप चाहे मुझे मारें या मेरी रक्षा करें-ऐसा विचार करना साधु का सम्यक् आचरण है)-यही वास्तव दर्शन है। स्नेह-प्रीति-ममता के द्वारा ही श्रीभगवान् और भगवद्-भक्त, यहाँ तक कि अनन्त विश्व को जय किया जा सकता है। गुरु-वैष्णवों का पारमार्थिक ऋण कभी भी चुकाया नहीं जा सकता है। उनके प्रति ऋणी रहने पर अर्थात् सम्बन्ध स्थापित होने पर गोलोक की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। अतः उस प्रकार का ऋणी बने रहना ही हमारा काम्य है।
श्रीमद् भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _
मुइ-मोर भक्त, आर ग्रंथ-भागवते यार भेद आछे तार नाश भालमते मुझमें, मेरे भक्तों में और शास्त्र श्रीमद्भागवतम्-इन तीनों में जो व्यक्ति भिन्नता देखता है, वह पाएगा कि उसकी संपूर्ण बुद्धि नष्ट हो चुकी है।
(चैतन्य भागवत, मध्य 21.18)
– – – – – – – – – – – – –
अतएव तीर्थ नहे तोमार समान।
तीर्थेरो परम तुमि मंगल प्रधान ।।
अतएव तीर्थ स्थान आपके समान नहीं हैं क्योंकि आप तो तीर्थ स्थानों को भी पवित्र कर देते हो।
(श्री चैतन्य भागवत्)