जिस प्रकार आनुगत्य एवं तोषामोद (चापलूसी) एक नहीं है, उसी प्रकार अनुसरण एवं अनुकरण भी एक नहीं है। अनेक लोग अनुकरण कार्य को अनुसरण मानकर भ्रमित होते हैं। यहाँ पर दो बातें हैं अनुकरण व अनुसरण । नाटक मण्डली का नारद सज्जित होना अनुकरण है (अर्थात् किसी नाटक में नारदजी का वेष धारणकर उनके जैसा अभिनय करना, उनका अनुकरण है) परन्तु श्रीनारदजी के द्वारा प्रदर्शित एवं आचरित भक्तिपथ पर चलना उनका अनुसरण है। कृत्रिमरूप में नकल करने का नाम अनुकरण एवं महाजनों के द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना अनुसरण है। हम सोचते हैं कि हम अनुसरण कर रहे हैं, किन्तु वास्तव में हम महाजनों का अनुकरण ही कर रहे हैं, अनुसरण का तात्पर्य आचरण से है । अनुकरण (imitation) विकृत (मूलवस्तु का) प्रतिफलन मात्र है। अनुकरण एवं अनुसरण बाह्यरूप से एक समान दीखते हैं। जैसे मेकि सोना (chemical gold) एवं शुद्ध सोना बाहर से देखने पर एक जैसे दिखाई देते हैं। अनुकरण का दूसरा नाम ढोंग भी है । हमारे हृदय में विप्रलिप्सा नामक एक वृत्ति है, जिसके द्वारा हम दूसरों की वञ्चनाकर उनसे प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ऐसा ढोंग या अनुकरण करते हैं। श्रौतपथ का मात्र अनुकरण करने से ही अनुसरण नहीं हो जाता । अनुकरण के द्वारा अनुसरण न होने के कारण उसका कोई मूल्य नहीं है।

श्रीलप्रभुपाद
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सर्वोपरि दुःख

श्रीमन्महाप्रभु ने निज पार्षद-प्रवर श्रीराय रामानन्द प्रभु से यह प्रश्न किया था-“समस्त दुःखों में कौन-सा दुःख सर्वोपरि है?” श्रीराय रामानन्द ने उसके उत्तर में कहा था- “कृष्णभक्त के विरह से बड़ा कोई दुःख नहीं है।” चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि अत्यन्त दुर्लभ है, यह मनुष्य जन्म क्षणभङ्गुर होने पर भी भगवद्भजन के लिए विशेष अनुकूल है। स्वर्ग के देवतागण भी वैकुण्ठ के प्राङ्गण-स्वरूप इस भारत भूमि पर परम लक्ष्य का दाता इस दुर्लभ मनुष्य जन्म की प्राप्ति की प्रचुर प्रशंसा करता है। लेकिन “वहां भी, मुझे लगता है कि वैकुंठ के प्रिय को देखना दुर्लभ है। यद्यपि देहधारियों के बीच क्षणभंगुर मानव शरीर को प्राप्त करना दुर्लभ है, भगवान के प्रिय भक्तों के दर्शन को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है। इसलिए, एक शुद्ध भक्त की संगति से दूर हो जाना जो भजन के प्रति समर्पित है और सद्गुरु के चरणों में श्री हरि-गुरु-वैष्णव की सेवा में अत्यधिक संलग्न है, इसके अलावा और कौन सा बड़ा दुख हो सकता है?” “काहार निकट गेले पाप दूरे जाए। एमन दयाल प्रभु केबा कोथा पाय ॥” [ऐसे करुणा के विग्ग्रह वैष्णवजन कहाँ मिलेंगे जिनके समीप जाने मात्र से ही जीव के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं?]

श्रीमद् भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज
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भगवद्-भक्त लोग भगवान् की अनेकों प्रकार की सेवाएँ प्रकट करते हैं एवं नाना प्रकार की योग्यता वाले, मंगल-प्रार्थी साधकों को उनकी योग्यता के अनुसार, सेवा का सौभाग्य प्रदान करते हैं। वह सेवा ही धीरे-धीरे उनको श्रीभगवद्-प्रेम प्राप्ति कराने का कारण बनती है। भक्त की दासता ही श्रीभगवद्-प्राप्ति का मुख्य उपाय है ।”

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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अनजाने में भी भक्ति-विरोधी विचार प्रवेश न कर जायें, इसके लिए सतर्क रहना

मन, बुद्धि, अहंकार – प्रत्येक का विद्वद्-रूढी (विद्वान लोगों द्वारा उपलब्ध) विचार है। पुनः अष्टसात्विक विकार आदि के अनुकरण में कम्प, पुलक, अश्रु भी देखा जाता है। इन सबका विचार कर साधक साधिका को भजन-पथ पर बहुत सावधानी से चलना होगा। देखना होगा कि जैसे हम ‘प्राकृत सहजियावाद’ (वैष्णवता के नाम पर अपसिद्धान्तों को मानना) और ‘कर्म-जड़-स्मार्तवाद’ (जिस मतवाद में जड़ कर्म के अतिरिक्त कोई चिद्भाव नहीं है), ‘चिज्जड़-समन्वयवाद’ (चेतन और अचेतन को समान समझना) के प्रश्रयदाता न हो जायें, भक्ति-विरोधी मनोभावों को जैसे अन्दर ही अन्दर बहुत महत्व न दे बैठें।

श्रीमद् भक्तिवेदांत वामन गोस्वामी महाराज
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भक्ति वृत्ति सांसारिक धन, ज्ञान, बुद्धि की अपेक्षा नहीं करती

तुम्हारे अर्थ, विद्या, बुद्धि कुछ न रहने पर भी, मन-प्राण रहने से ही होगा। सेवा-वृत्ति-किसी प्राकृत वस्तु के प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखती। वह स्वतः-सिद्धा, निरपेक्षा है। किसी जड़-वस्तु को मूल्य स्वरूप देकर भक्ति-वृत्ति प्राप्त नहीं की जाती।

श्रीमद् भक्तिवेदांत वामन गोस्वामी महाराज
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हमें केवल उन्हें प्रसन्न करने की अभिलाषा रखनी है, और स्वयं के लिए किसी वस्तु की कामना नहीं करन तब हम उनकी इच्छा पूर्ण करने वाले यंत्र बन जाते है। कृष्णभावनामृत का यही महत्वपूर्ण सार है।

(अत्रैय ऋषि प्रभु को श्रील भक्तिवेदांत स्वामी महाराज जी द्वारा लिखा गया पत्र, 20.10.1973)
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“विष्णु और वैष्णव ही हमारे सेव्य हैं। विष्णु और वैष्णवों की सेवा में से यदि केवल किसी एक की सेवा करना ही मेरे लिए सम्भवपर हो तो मैं वैष्णव का ही चयन करूँगा। यदि वैष्णवों की सेवा के लिए मुझे ऋण भी लेना पड़े तो भी मैं वैष्णव-सेवा से पश्चात्पद नहीं होऊँगा। उनकी सेवा के उद्देश्य से लिए गए ऋण को चुका पाने से पूर्व इस जगत् से चले जाने पर मैं पुनः अपने अगले जन्म में उस ऋण का शोधन करूँगा तथा आवश्यकता पड़ने पर पुनः ऋण लेकर नित्यंकाल के लिए वैष्णव-सेवा में अत्यन्त उत्साहपूर्वक रत रहूँगा। मेरी ऐसी चित्तवृत्ति सदैव बनी रहे। एक मुहूर्त के लिए भी मैं इस विचार से पतित ना होऊँ यही मेरी सदैव प्रार्थना रहे।”

श्री श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज