अपनी स्वतन्त्रता का परित्याग करके भगवान का आश्रय ग्रहणकर निष्कपट रूप से भजन करने पर एक जन्म में ही भगवान को प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए मृत्यु आने से पूर्व ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना निरन्तर आत्मकल्याण के लिए चेष्टा परायण होना चाहिए। विषय भोग तो सभी जन्मों में प्राप्त होंगे ही किन्तु भक्ति अन्य किसी जन्म में सम्भव नहीं है । हमारा कोई भी जन्म क्यों न हो, विषय-भोग तो प्रत्येक जन्म में मिलेंगे ही। मनुष्य – जन्म न होने पर भी अन्यान्य जन्मों में भी विषय भोग अवश्य ही मिलेंगे । मनुष्य – जन्म में केवल श्रेयः अर्थात् आत्मकल्याण हेतु ही चेष्टा करनी चाहिए । प्रेयः अर्थात् जागतिक विषय भोगों के लिए पशु भी चेष्टा करते ही हैं। मनुष्य की यही विशेषता है कि वह भगवान की कथाओं को सुन सकता है, उसका आचरण एवं आलोचना भी कर सकता है। किन्तु पशु परस्पर आलोचना नहीं कर सकते । अतः श्रेयः केवल मनुष्य जन्म में ही प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य जन्म प्राप्त कर भी यदि आत्मकल्याण के सम्बन्ध में विचार न किया जाय, तो निम्न श्रेणी के पशु-पक्षियों के साथ मनुष्यजन्म की समानता हो जाती है।
श्रीलप्रभुपाद
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कठोर किन्तु स्नेहमयी शिक्षा
श्रील भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज श्रील प्रभुपाद के आदेश से मासिक भिक्षा संग्रह करने के लिये बहुत से स्थानों पर जाते थे। इसी उपलक्ष्य में वे मेरे गुरुपादपद्म श्रील भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज के द्वारा कोलकाता में मठवास करने से पूर्व किराये पर लिये गये घर में भी जाते थे। एक दिन जब श्रीभक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज तथा श्रीकीर्त्तन प्रभु मासिक भिक्षा संग्रह करने के लिए मेरे गुरुपादपद्म (श्रील भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज) के पास पहुँचे तब हॉल में श्रीमन्महाप्रभु के तैल-चित्र को देखकर श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज ने गुरु महाराज से पूछा, “श्रीमन्महाप्रभु का आलेख सुन्दर है। क्या आपको इसे देखने में सुख मिलता है?” गुरु महाराज ने उत्तर दिया, “हाँ महाराज।” श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज ने थोड़ा गम्भीर होकर कहा, “क्या श्रीमन्महाप्रभु आपको सुख प्रदान करने के लिए यहाँ विराजमान रहें या फिर आपको श्रीमन्महाप्रभु को सुख प्रदान करने हेतु चेष्टा करनी चाहिये?” श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज ने गुरु महाराज से पुनः अन्य प्रश्न किया, “आपने श्रील प्रभुपाद का शिष्यत्व स्वीकार किया है, आपकी रसोई की क्या व्यवस्था है?” गुरु महाराज (श्रील भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज) ने उत्तर दिया, “मैंने एक उत्कल (निवासी) ब्राह्मण को रसोई के कार्य में नियुक्त किया है। रसोई का सम्पूर्ण कार्य वही देखते हैं।” गुरु महाराज की बात सुनकर श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज ने अत्यन्त आवेग के साथ कहा, “क्या आपके हाथों को मगरमच्छ ने खा लिया है जो आप अपने हाथों से भगवान् के लिए भोग बनाकर उन्हें अर्पणकर स्वयं प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकते?” अभी गुरु महाराज कुछ कहते, उससे पहले ही श्रीकीर्त्तन प्रभु अत्यन्त धीमे स्वर में उनसे कहने लगे, “महाराज, आप इनसे इस प्रकार से बात मत करें। यह अत्यन्त भद्र पुरुष हैं। यह स्वयं रसोई पकाकर भोजन नहीं कर पाएँगे। आपके व्यवहार से इनकी गौड़ीय मठ के प्रति श्रद्धा शिथिल हो सकती है। यह असन्तुष्ट हो सकते हैं।” यद्यपि श्रीकीर्त्तन प्रभु ने अत्यन्त धीमे स्वर में कहा तथापि उनकी बात को गुरु महाराज ने भी सुना और देखा कि श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज और भी अधिक असन्तुष्ट होकर कहने लगे, “मैं ही यदि इनको नहीं बोलूँगा तो अन्य कौन बोलेगा? यह मेरा गुरुभ्राता है, मुझे इसे सब कुछ कहने का पूर्ण अधिकार है।” गुरु महाराज श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज की बात सुनकर गद्गद हो गए। उनके इस प्रकार के व्यवहार से उनका जो अपनापन झलका उसी के कारण गुरु महाराज स्वयं को सम्पूर्ण जीवनभर उनका कृतज्ञ मानते थे। उनके जाने के पश्चात् गुरु महाराज ने दो दिन तक बिना कुछ खाये-पिये नये बर्तनों आदि की व्यवस्था करके स्वयं भोजन का रन्धन करके भोग लगाकर प्रसाद पाना प्रारम्भ किया। श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज ने सदैव यह सिखाया कि भगवान् का नाम एवं विग्रह जिसमें कि उनका चित्रपट भी सम्मिलित है, भगवान् से अभिन्न होने के कारण परम सेव्य वस्तु है। श्रीमन्महाप्रभु के तैल-चित्र के विषय में श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज की शिक्षा के अनुरूप चित्रपट को भगवान् से अभिन्न मानकर, गुरु महाराज ने स्वयं भगवान् और उनके शुद्ध भक्तों के चित्रपट को उचित सम्मान प्रदान करने का आदर्श दिखलाया। उन्होंने न तो स्वयं कदापि उन्हें जहाँ तहाँ रखा और न ही अपने किसी आश्रितजन को ऐसा कार्य करने की अनुमति प्रदान की। उन्होंने अपने उस श्रीमन्महाप्रभु के तैल-चित्र को श्रीगौड़ीय मठ, बागबाजार में भेज दिया। जब भी वहाँ नगर-सङ्कीर्त्तन का आयोजन होता, वही श्रीमन्महाप्रभु का चित्रपट रथ के ऊपर विराजमान होता था। श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज किसी के भी मन को प्रसन्न करने हेतु कोई बात नहीं कहकर वास्तविक सत्य, मङ्गलजनक बात ही बोलते थे।
श्रीमद्भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज जी
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आचिनोति यः शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि ।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्य स्तेन कीर्तितः ।।
(वायु पुराण)
जो शास्त्र के अर्थ का चयन करके दूसरों को शास्त्र के अनुकूल आचरण की शिक्षा देते हैं तथा स्वयं शास्त्र के अनुसार चलते हैं उनको ‘आचार्य’ कहा जाता है। आचरण रहित पेशेदार वक्ताओं के द्वारा कभी भी धर्म प्रचार नहीं होता। Don’t follow me but follow my lecture मेरा आचरण मत देखो, जो मैं कहता हूँ उसे सुनो-इस नीति से धर्म प्रचार नहीं होता। हरिकथा किसकी जिह्वा से कीर्तित होती है, इस सम्बन्ध में बताते हुए श्रील प्रभुपाद जी ने कहा- “जो 24 घण्टे में से 24 घण्टे ही हरि सेवा में नियोजित रहते हैं, जो प्रत्येक कदम पर हरि सेवा करते हैं, उनकी जिह्वा में हरि से अभिन्न हरिकथा प्रकट होती है।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी