प्रभुपाद द्वारा गुरुभ्राताओं एवं समस्त वैष्णवों को ‘प्रभु’ सम्बोधन का रहस्योद्घाटन

“यदि कोई व्यक्ति स्वयं को वैष्णव एवं अन्यों को कनिष्ठ अथवा स्वयं से कम उन्नत समझता है तो वह मात्र जड़ अभिमान को ही पुष्ट करता है।” एक समय श्रीराधारमण ब्रह्मचारी ने श्रील प्रभुपाद से गुरुभ्राताओं का परस्पर एक दूसरे को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधन करने के कारण के विषय में जिज्ञासा की तथा श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित उत्तर प्रदान किया “ऐसा कहा गया है- ‘गुरुर सेवक हय मान्य आपनार अर्थात् गुरु-सेवक विशेष सम्मान के पात्र होते हैं।’ इस विचार के अनुसार हम अपने समस्त कनिष्ठ एवं ज्येष्ठ गुरुभ्राताओं को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधित करते हैं जिससे कि हममें तृण से भी अधिक सुनीचता का भाव विकसित हो सके। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को वैष्णव एवं अन्यों को कनिष्ठ अथवा स्वयं से कम उन्नत समझता है तो वह मात्र जड़ अभिमान को ही पुष्ट करता है। पारमार्थिक राज्य में यदि हम एक-दूसरे को अपने गुरु के सेवक के रूप में देखते हैं तो अन्य भक्त हमसे कनिष्ठ अथवा कम उन्नत हैं, यह विचार हृदय को स्पर्श भी नहीं करेगा। तब हमारे पास अन्यों के प्रति द्वेष अथवा असम्मान की भावना का अवसर नहीं होगा। “यही अन्यों को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधन करने का रहस्य है। यदि कोई स्थूल अभिमान को त्यागकर श्रीगुरुदेव का दास बनना चाहता है तो उसे श्रीगुरु के सेवकों में कनिष्ठ एवं वरिष्ठ का भेद नहीं करना चाहिये। शास्त्र कहते हैं, ‘तद् भृत्य भृत्य भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ अर्थात् हे लोकनाथ ! आप मुझे अपने दासों के दासानुदास के दास के रूप में स्मरण करें।’ हमें यह विचार भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेना चाहिये। इस प्रकार शास्त्र निश्चितकर कहते हैं कि श्रीगुरु के सेवक को तथा वास्तव में समस्त वैष्णवों को ही ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधित करना चाहिए।

श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज जी
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आपको स्मरण रखना होगा कि अपनी योग्यता के बल पर न तो आप पारमार्थिक नित्य मंगल लाभ कर सकते हैं और न ही तथाकथित जागतिक समृद्धि।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
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