“एक समय श्री जे० एन० वासु नामक एक वकील ने जब श्रील प्रभुपाद से कहा, ‘किसी एक व्यक्ति को आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करना अच्छा है, आप पहले से इच्छा-पत्र (Will) करके ऐसा सुनिश्चित कर दें, तभी भविष्य में अच्छा रहेगा।’
“किन्तु श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, ‘आचार्य-निर्णय वास्तव में बद्ध-जीव के द्वारा नहीं होता, इसका निर्णय ऊपर से अर्थात् भगवान् अथवा भगवान् की ओर से उनके किसी शुद्ध-भक्त, एक मुक्त पुरुष जो बद्धजीव के चतुर्विध दोषों से सर्वथा मुक्त है, के द्वारा होता है, अन्यथा बहुत से मनुष्य कहेंगे, ऐसा होगा, ऐसा नहीं होगा, यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए इत्यादि। इसलिए मनुष्यों के द्वारा अथवा वोट इत्यादि देकर साधु-निर्णय, आचार्य-निर्णय करना उचित नहीं है। सूर्य के उदित होने पर जैसे सभी उसे देख पाते हैं, उसी प्रकार भगवद्-इच्छा से आचार्य के उदित होने पर सभी उसे स्वतः ही देख पाएँगे।’ यद्यपि मैं भी इस विचार का ही हृदय से अनुमोदन करता हूँ तथापि उनके द्वारा पूर्व में कही गई बात- आचार्य नियुक्त नहीं किया जाता का दुरुपयोग हो सकता है, एवं कोई अयोग्य, अनाधिकारी व्यक्ति अपने प्रभुत्व के बल पर आचार्य के पद पर आसीन हो सकता है।
श्रील प्रभुपाद श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर
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सम्बन्ध ज्ञान स्थापित करने का महत्त्व
“सम्बन्ध नहीं होने पर केवल गतानुगतिक रूप से अभ्यासवशतः मन्दिर में जानेमात्र की क्रिया द्वारा किसी का भी मन भगवान् में नहीं लग सकता।” “क्या कभी सम्बन्ध को जाने बिना किसी की अन्य किसी से प्रीति हो सकती है? सम्बन्ध को जानने पर ही हृदय में उसी के अनुरूप प्रीति उमड़ कर आती है। सम्बन्ध नहीं होने पर केवल गतानुगतिक रूप से अभ्यासवशतः मन्दिर में जानेमात्र की क्रिया द्वारा किसी का भी मन भगवान् में नहीं लग सकता।
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमित्रं पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ।।
श्रीमद्भागवतम् (७.५.३०)
[बालक प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा- संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाए हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही बारम्बार भोगने के लिए संसाररूपी घोर नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप, किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के सङ्ग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती।] “इस भौतिक जगत् में भी यह सर्वविदित है कि स्नेहयुक्त सेवा के द्वारा ही प्रिय व्यक्ति के प्रति हृदय में प्रीति उत्पन्न होती है, चाहे वह एक जननी की स्वजनित पुत्र के प्रति हो, अपने गोद लिए हुए पुत्र के प्रति हो अथवा एक मालिक की अपने पालतू कुत्ते के प्रति हो। “जीव का भगवान् के साथ नित्य सेवक रूप से सम्बन्ध है। इसी सम्बन्ध के विस्मृत हो जाने अथवा इसके अनुरूप क्रिया नहीं करने से भगवान् की बहिरङ्गा शक्ति जीव को संसार रूपी दुःख प्रदान करती है। उसी के फलस्वरूप जीव अपने कर्मानुसार चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते सुदुर्लभ मनुष्य देह को प्राप्त करता है। किसी पूर्व सञ्चित सुकृति के बल से एवं भगवान् की कृपा से उसका उन्हीं के किसी निज जन से साक्षात्कार होता है तथा इस सङ्ग के फलस्वरूप ही वह ‘मैं कौन हूँ, भगवान् कौन हैं एवं भगवान् से मेरा क्या सम्बन्ध है?’ इस वास्तविक सत्य का ज्ञान लाभ करता है। तब भगवान् की सेवा करने की प्रवृत्ति उसके हृदय में जागृत होती है। पुनः जीव गुरुदेव से सेवा-वासना रूपी भक्ति-लता के बीज को प्राप्त कर जब उसे माली के रूप में अपने हृदय में रोपण करता है तथा श्रवण-कीर्तन रूपी जल के द्वारा उसका सिञ्चन करता है, तब उसकी भक्ति-लता के वर्धित होने के अनुरूप उसकी भगवान् के प्रति प्रीति वर्धित होती जाती है। सम्बन्ध सहित प्रीतिपूर्वक सेवा करने के फलस्वरूप ही भगवत्-प्रेम हृदय में प्रकाशित होता है अन्यथा केवल मात्र मन्दिर में आकर अपनी इच्छा अनुरूप दर्शन कर लेने एवं आकर चले जाने मात्र से लाखों जन्मों तक भी भगवान् के प्रति हृदय में प्रीति प्रकाशित नहीं होती।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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