श्रुतिः कृष्णाख्यानं स्मरणनतिपूजाविधिगणाः
तथा दास्यं सख्यं परिचरणमप्यात्मददनम्।
नवाङ्गान्येतानीह विधिगतभक्तेरनुदिनं भजन्
श्रद्धायुक्तः सुविमलरति वै स लभते ॥
(दशमूल ९)

अर्थात् श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, वन्दन, पादसेवन, अर्चन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन-इस नवधा वैधीभक्तिका जो लोग श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन अनुशीलन करते हैं, वे विमल कृष्णरति प्राप्त करते हैं। श्रीकृष्णके नाम, रूप, गुण और लीला सम्बन्धी अप्राकृत वर्णन आदिका कर्णेन्द्रियसे स्पर्श ‘श्रवण’ कहलाता है। श्रवणकी दो अवस्थाएँ होती हैं-श्रद्धा उत्पन्न होनेके पहले साधुओंके निकट जो कृष्णके गुणानुवादका श्रवण किया जाता है, वह एक प्रकारका श्रवण है। उस श्रवणसे श्रद्धा उदित होती है, श्रद्धा उत्पन्न होनेपर प्रगाढ़ उत्कण्ठाके साथ कृष्णनामादि श्रवण करनेकी प्रवृत्ति होती है। तदनन्तर गुरु वैष्णवोंके निकट जो कृष्णनामादि सुना जाता है, उसीका नाम है-द्वितीय श्रवण-जो शुद्धभक्तिका ही एक अङ्ग है। साधनकालमें गुरु-वैष्णवोंके निकट श्रवण करते-करते सिद्धिकालका श्रवण उदित होता है; श्रवण भक्तिका पहला अङ्ग है। भगवन्नाम, रूप, गुण और लीला सम्बन्धी शब्दोंका जिह्वासे स्पर्श कीर्त्तन कहलाता है। कृष्णकथा और कृष्णनामादिका वर्णन, शास्त्र-पाठकर दूसरोंको सुनाना, गीत द्वारा लोगोंको कृष्णके प्रति आकर्षित करना तथा दैन्योक्ति, विज्ञप्ति, स्तवपाठ और प्रार्थना आदि-ये सब कीर्त्तनके भेद हैं। नवधा भक्तिमें कीर्त्तनको सर्वश्रेष्ठ अङ्ग बतलाया गया है; विशेषतः कलियुगमें कीर्त्तन ही सबका कल्याण करनेमें समर्थ है-ऐसा समस्त शास्त्रोंमें कहा गया है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अ० ४२, श्लोक २५) में कहते हैं- ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् । यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम् ॥ हरिकीर्त्तनसे चित्त जितना निर्मल होता है, उतना और किसी भी उपायसे नहीं होता। जब बहुत-से भक्त एकसाथ मिलकर कीर्त्तन करते हैं, तब उसे सङ्कीर्त्तन कहते हैं। कृष्णके नाम, रूप, गुण और लीलाके स्मरणका नाम ‘स्मरण’ है। स्मरण पाँच प्रकारका होता है। किसी देखी-सुनी या अनुभव की हुई बातका फिरसे मनन करनेका नाम ‘स्मरण’ है; पूर्व-विषयसे चित्तको खींचकर साधारण रूपमें मनसे किसी विषयको धारण करनेका नाम-‘धारणा’ है; रूप आदिका विशेष रूपसे चिन्तन करनेका नाम ‘ध्यान’ है; तैल धारावत् अविच्छिन्न ध्यानका नाम ‘ध्रुवानुस्मृति’ है एवं ध्येयमात्रकी स्फूर्तिका नाम ‘समाधि’ है। श्रवण, कीर्त्तन और स्मरण-भक्तिके ये तीन प्रधान अङ्ग हैं। दूसरे समस्त अङ्ग इन तीनोंके अन्तर्भूत हैं। श्रवण, कीर्त्तन और स्मरण-इन तीनोंमें कीर्त्तन ही सर्वप्रधान अंग है; क्योंकि श्रवण और स्मरण कीर्त्तनके अन्तर्भुक्त रह सकते हैं।

जेवधर्म, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर

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भक्ति आत्मा की निर्मल वृत्ति है

श्रीमद्भागत कर्मकाण्ड का उपदेश नहीं देती। जिससे जीव का परममंगल हो, श्रीमद्भागवत भगवान की उन्हीं कथाओं का कीर्तन करती हैं। भागवत में परमधर्म शुद्धभक्ति की ही बात है। अतः भागवत को सुनना होगा, पढ़ना होगा और विचार करना होगा। शुद्धज्ञान, शुद्धविराग एवं शुद्धभक्ति का एक ही तात्पर्य है। इसमें अपनी इन्द्रिय – तृप्ति के बदले केवल भगवान की सेवा की ही बात है। सुख एवं दुःख दोनों ही भिन्न वस्तुएँ हैं। सुख के लिए घूमते रहने से दुःख ही प्राप्त होते हैं। अतः फल की आकांक्षा करना उचित नहीं है। कर्म काण्ड मुक्तपुरुषों का कृत्य नहीं है। कर्म का फल कभी अच्छा तो कभी बुरा होता है। भागवत को छोड़कर अन्य ग्रन्थ का अध्ययन करने से कर्म ज्ञानमार्ग, सुख-दुःख एवं जन्म-मृत्यु प्राप्त करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । कर्मकाण्ड से धर्म, अर्थ, काम प्राप्त हो सकते हैं। मोक्षकामी भोगों का त्याग करने पर भी ईश्वर की उपासना नहीं करते। भक्त ही भगवान की उपासना करते हैं। योग के द्वारा भगवान का भजन नहीं होता। इससे अणिमा, लघिमा आदि अष्टादश सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। मोक्षकामियों की मुक्ति की बात छोड़ ही दो, क्योंकि वे केवल संसार के दुःख-सुख से छुटकारा चाहते हैं। अतः उसमें भी अपना भोक्तापन है । जिन्होंने कर्म, ज्ञान या योगमार्ग ग्रहण किया है। भागवत कहती हैं, कि उन्होंने गलत पथ का अवलम्बन किया है। भक्ति होने पर सहजरूप में ही सब कुछ पाया जाता है। कर्मीलोग इस जीवन में और परजीवन में विषयभोग ही चाहते हैं। Bhakti is the eternal function of pure soul. If we regain our real position then we have the chance of dissociat-ing ourselves from the world. भक्ति आत्मा की निर्मल वृत्ति है। यदि हम अपने प्रकृत स्वास्थ्य का पुनरूद्धार कर सकें, तभी इस पृथ्वी से अलग हो सकते हैं।

श्रीलप्रभुपाद

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सदशिष्य होने से उसकी दृष्टि में हमेशा गुरु जी की महिमा ही दृष्टिगोचर होगी। आपसी सम्बन्ध और योग्यता की भिन्नता के कारण व्यवहार भी अलग-अलग देखा जाता है। गृहस्थियों के घर में भगवद्-भक्तों का आगमन और कृष्ण-कथा शुभ सूचना देते हैं। जिन्हें भगवान् की आवश्यकता है उन्हें अवश्य ही भक्तों का संग करना होगा। “भक्तिस्तु भगव‌द्भक्त संगेन परिजायते । सत्संगः प्राप्यतपुंभिः सुकृतैः पूर्व सञ्चितैः ॥” (बृहन्नारदीय पुराण 4/33) पूर्व संचित सुकृति नहीं होने से सत्संग में रुचि नहीं होती। सत्संग से ही सद्विषय में रुचि होती है। शास्त्रों में, आत्मा के पतन के स्थान-सत्समागम वर्जित अन्धे कुएँ के समान घर को त्यागने की व्यवस्था दी गयी है। इस प्रसंग में श्रीमद् भागवत् के सातवें स्कन्ध में प्रह्लाद महाराज जी का उपदेश ग्रहण करने योग्य है। “तत्साधु मन्येऽसुवर्य देहिनां, सदा समुद्विग्रधियामसद्ग्रहात् । हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ।” (भा. 7/5/5) प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: हे असुरश्रेष्ठ, दैत्यराज, जहाँ तक मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु से सीखा है, जो कोई भी व्यक्ति अस्थायी शरीर और अस्थायी गृहस्थ जीवन स्वीकार करता है, वह निश्चित रूप से चिंता से शर्मिंदा होता है, क्योंकि वह एक अँधेरे कुएँ में गिर गया है जहाँ पानी नहीं है, बल्कि केवल पीड़ा है। उसे यह पद त्याग देना चाहिए और वन में चले जाना चाहिए। अधिक स्पष्ट रूप से, उसे वृंदावन जाना चाहिए, जहाँ केवल कृष्ण चेतना प्रचलित है, और इस प्रकार भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की शरण लेनी चाहिए।

श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

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वैष्णव अपराधी के प्रति उग्र-व्यवहार

एक समय मैं, मेरे सतीर्थ श्रीविष्णुदास (बाद में श्रीभक्तिविवेक परमार्थी महाराज) श्रील भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज के साथ गाड़ी से कोलकाता से पुरी आ रहे थे। जब हमारी गाड़ी हावड़ा स्टेशन पर खड़ी थी, तब एक अत्यधिक धनी-मानी व्यक्ति ने किसी कारणवश श्रीविष्णु प्रभु को बहुत अपशब्द कहे, बुरा-भला सुनाया, उनका अपमान किया। जब थोड़ी देर के पश्चात् उस व्यक्ति ने एक बड़ी धन राशि श्रील पुरी गोस्वामी महाराज को देनी चाही तब ‘मृदूनि कुसुमादपि अर्थात् पुष्प से भी कोमल’ के मूर्त्तिमान स्वरूप श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने ‘वज्रादपि कठोराणि अर्थात वज्र से भी अधिक कठोर’ के अपने अभिनव (नूतन) स्वरूप को प्रकाशित करते हुए तथा उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए उससे कहा, “आपने वैष्णव अपराध किया है, मैं अपराध करने वाले किसी भी व्यक्ति की किसी वस्तु को लेने की बात तो क्या, उससे किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध, वार्तालाप आदि भी नहीं करना चाहता।” उस धनी व्यक्ति ने कहा, “मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ, महाराज, कृपा करके इसे स्वीकार कर लीजिए।” श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने कहा, “मैं आपके द्वारा प्रदत्त सेवा को ग्रहण करने से आपके द्वारा कृत अपराध का भागीदार बनूँगा, अतएव आपके द्वारा की जाने वाली सेवा को मैं कदापि स्वीकार नहीं करूँगा।” वह व्यक्ति अनेक प्रयास करने पर भी श्रील पुरी गोस्वामी महाराज को कुछ भी देने के लिये नहीं मना पाया। दुर्भाग्यवशतः वह श्रील पुरी गोस्वामी द्वारा दिये गये इङ्गित को समझ नहीं पाया कि उसे इस अपराध के लिये श्रीविष्णु दास प्रभु से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिये।

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज

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पारमार्थिकता ही मुख्य, लौकिकता-गौण

संसार में रहने पर लौकिकता, व्यवहारिकता की रक्षा करनी पड़ती है, लेकिन पारमार्थिक पहलु को और अच्छे ढंग से संरक्षित रखने की आवश्यकता है। इसी पारमार्थिकता की रक्षा करके ही हमें लौकिक आचार-आचरण करने का निर्देश दिया गया है। लौकिकता के बदले कभी भी परमार्थ को तिलांजलि नहीं दी जा सकती है। इस ओर सतर्क दृष्टि रखनी (सावधान रहना) चाहिए। जागतिक जड़-बुद्धि सम्पन्न आत्मीय-स्वजन (अर्थात् विषयी बुद्धि वाले मित्र रिश्तेदार) आदि यदि तुम्हारा आत्मकल्याण नहीं चाहते हैं तो उनके संग को मन ही मन दूर कर देना होगा। वही परमार्थ-पथिकों का आदरणीय और आदर्श है।

श्रील भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज

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विच्छेद और विरह में अन्तर

मिलन के अभाव से ही विरह की उत्पत्ति होती है। “आम तौर पर, विरह का अर्थ-विच्छेद (बिछुड़ना) समझा जाता है। एक भौतिक वस्तु को दूसरी वस्तु से अलग कर देने से विच्छेद होता है, वह ‘विरह’ नहीं है। भले ही उस विच्छेद को कई बार ‘विरह’ की संज्ञा दी जाती है, लेकिन उस विरह या विच्छेद के कारण शोक-मोह जैसा हम एक भाव देखते हैं। शोक-मोह हमें संसार के प्रति आसक्त बना देता है; लेकिन विरह हमें सांसारिक आसक्ति से मुक्ति प्रदान कर भगवत् सेवा में निष्ठा प्रदान करता है। इसीलिए हम वैष्णवों की विरह तिथि का पालन करते हैं। आपके हृदय में यही भाव जागृत हो, भगवान से यही प्रार्थना है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज

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हरिनाम सर्वशक्तिसम्पन्न हैं

दान-व्रत-तपस्तीर्थ-क्षेत्रादीनाञ्च याः स्थिताः।
शक्तयो देवमहतां सर्व-पापहराः शुभाः।।
राजसूयाश्वमेधानां ज्ञानसाध्यात्म-वस्तुनः।
आकृष्य हरिणा सर्वाः स्थापिता स्वेषु नामसु ।।
(स्कन्द-पुराण)

दान में, व्रत में, तप में, तीर्थ-क्षेत्रों में, प्रधान-प्रधान देवताओं में समस्त प्रकार के पापों को हरण करने वाले सत्कर्मों में, शक्ति-समूह में, राजसूर्य और अश्वमेध यज्ञादि में तथा ज्ञान-साध्य आत्म वस्तु में- जहाँ भी जो कुछ है, श्रीहरि ने उसे वहाँ से आकर्षण कर अपने नाम में स्थापन कर दिया है।

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नाम ग्रहण करने से सभी प्रकार के अनर्थ दूर होते हैं

नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिनाम शुद्ध सत्वमय हैं और भाग्यवान जीव ही श्रीहरिनाम का आश्रय लेते हैं। हरिनाम के प्रभाव से जीव के हृदय में भरे हुये सारे अनर्थ अति शीघ्र दूर हो जाते हैं। हृदय की दुर्बलता नामक अनर्थ का तो उनके मन में स्थान ही नहीं रहता। हरिनाम के जप से साधक के मन में जब दृढ़ता आती है तब उसमें पापमय – बुद्धि नहीं रहती। यहाँ तक कि, हरिनाम के प्रभाव से उसके सारे पिछले पाप भी नष्ट हो जाते हैं और उसका चित्त बिल्कुल शुद्ध हो जाता है। अज्ञान के कारण पाप बीज तथा पाप की वासना जीव के हृदय में रहती है, उसके कारण जीव संसार में कष्ट भोगता रहता है। नाम जप के द्वारा जब किसी का हृदय निर्मल हो जाता है तो उसके अन्दर सभी जीवों के प्रति दया भाव उदित होता है और वह सदा – सर्वदा दूसरों का मंगल करने में ही लगा रहता है। उससे दूसरों का कष्ट नहीं देखा जाता। उसकी हर समय यही चेष्टा होती है कि वह कैसे दूसरे जीवों के क्लेश से उत्पन्न ताप को शान्त कर सके। ऐसी स्थिति में विषय वासना तो उसे बिल्कुल तुच्छ सी प्रतीत होती है। इन्द्रियों के भोगों की लालसा तो उसके हृदय में रहती ही नहीं। धन-दौलत और कामिनी के प्रति वह आकर्षित तो होता ही नहीं, उन्हें प्राप्त करने के लिए वह प्रयास तो करता ही नहीं, बल्कि इन सबसे वह घृणा करने लगता है। संसार में रहने के लिए ईमानदारी से जितना भी वो धन कमा पाता है, उसी में उसको सन्तोष रहता है। उसकी वास्तविक चेष्टा तो भगवान की भक्ति के अनुकूल कार्यों को करने में तथा भक्ति के प्रतिकूल कार्यों को त्यागने में ही रहती है। श्रीकृष्ण ही उसके एकमात्र रक्षाकर्त्ता एवं पालनकर्त्ता हैं, इस प्रकार का ढ विश्वास उसमें होता है। उसके हृदय में शरीर के प्रति “मैं” भाव तथा शरीर सम्बन्धी व्यक्तियों तथा वस्तुओं में “ममता” नहीं रहती। स्वाभाविक रूप से वह तो बड़ी दीनता के साथ हमेशा ही हरिनाम का आश्रय लिए रहता है। ऐसे में उसकी पापों में मति कैसे हो सकती है या ऐसी अवस्था में उसके द्वारा पाप भला कैसे हो सकते हैं। श्रीहरिनाम चिंतामणि

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर

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