जो लोग इस संसार-बन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिए अपने चरणों के स्पर्श से तीर्थों को भी तीर्थ बना देने वाले भगवान् के नाम-संकीर्तन से बढ़कर कोई साधन नहीं है, जिससे पापों का समूल ध्वंस हो सके। क्योंकि भगवान् का आश्रय लेने से मनुष्य का मन फिर कर्म के पचड़ों में नहीं पड़ता। भगवन्नाम के अतिरिक्त किसी भी दूसरे प्रायश्चित्त का आश्रय करने से मन रजोगुण और तमोगुण से ग्रस्त ही रहता है तथा उससे पापों का मूल रूपसे नाश नहीं होता।
श्रीमद्भगवतम 6/2/46
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श्रीमद्भगवद्गीता समस्त शास्त्रोंका मीमांसा-शास्त्र है
मनुष्यों के अधिकार में भेदके अनुरूप उनके स्वभाव और श्रद्धामें भी भेद होता है। तामसिक मनुष्यों की तामसिक शास्त्रोंमें, राजसिक मनुष्योंकी राजसिक शास्त्रों में तथा सात्त्विक मनुष्यों की सात्त्विक शास्त्रों में स्वाभाविक श्रद्धा होती है। श्रद्धाके अनुसार ही उनका विश्वास भी होता है। श्रद्धाके साथ अपने अधिकार जैसा कर्म करते-करते साधुसङ्गके बलसे उच्च अधिकार पैदा होता है। उच्च अधिकार के पैदा होते ही उसका स्वभाव पुनः उच्च हो जाता है और तदनुरूप शास्त्रमें उसकी श्रद्धा होती है। शास्त्रकार लोग अभ्रान्त पण्डित थे। उन्होंने शास्त्रोंकी रचना इस प्रकारकी है कि अपने अधिकार-निष्ठासे ही धीरे-धीरे उच्च अधिकार स्वयं उत्पन्न हो जाये। इसीलिए अलग-अलग शास्त्रोंमें अलग-अलग व्यवस्थायें दी गयी हैं। शास्त्रीय श्रद्धाही समस्त मङ्गलोंकी जड़ है। श्रीमद्भगवद्गीता समस्त शास्त्रोंका मीमांसा-शास्त्र है। उसमें यह सिद्धान्त सुस्पष्ट है। जेवधर्म
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
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परमार्थ
‘धर्म’ सभी मानते हैं। ‘धर्म’ शब्द का अर्थ होता है स्वभाव । शरीर के धर्म को तो हम सभी मानते हैं। क्योंकि शरीर निकृष्ट है, इसलिये शरीर का धर्म भी निकृष्ट एवं क्षणस्थायी अर्थात् कुछ समय ही रहने वाला है। शरीर का कारण मन है जो कि दीर्घ समय तक रहने वाला है। मन का धर्म शरीर धर्म से अधिक स्थायी होने पर भी चन्चल है। देह व मन दोनों का कारण ज्ञान अर्थात् आत्मा है। यदि ज्ञान न हो तो मन मनन नहीं कर सकता। इसीलिये देह धर्म से मनोधर्म और मनोधर्म से आत्म-धर्म की उत्कर्षता है। परन्तु समस्या यह है कि आत्म धर्म सभी नहीं मानते। बहुत से लोग अपने गंवारपने के कारण कहते हैं कि हम धर्म नहीं मानते। किन्तु देखा जाये तो धर्म सभी मानते हैं। हाँ, ये हो सकता है कि वे सद्-धर्म को न मानकर असद्-धर्म को मानते हैं। धन की आवश्यकता को सभी समझते हैं किन्तु परमार्थ की आवश्यकता को सभी नहीं समझते। ‘यस्मिन् प्राप्ते सर्वमिदं प्राप्तं भवति। यास्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति तद्विजिज्ञासस्व तदेवब्रह्म ।।’ ‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ (गीता : 6/22) अर्थात् जिनको प्राप्त कर लेने के बाद अन्य कोई लाभ मिलने पर भी उसे उस लाभ का भान नहीं होता तथा बड़े से बड़ा दुःख भी उसे विचलित नहीं कर सकता, वह पूर्ण वस्तु ही भगवतत्त्व है, इसीलिये उन्हें ही परमार्थ कहा जाता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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मुक्ति नहीं, कृष्णप्रेम ही जीवों के लिए एकमात्र प्रयोजन
उपास्य, उपासक और उपासना के तत्त्व का निरूपण करना ही शास्त्रों का उद्देश्य है। सुख लाभ करना और दुःख से मुक्ति पाना ही सभी का उद्देश्य है। भगवत् प्रेम से जीवों को जो असीम और अशेष सुख प्राप्त होता है, वह बद्ध जीवों की समझ से परे है। उस सुख की क्या बात, जब उसका आभास जीव को प्राप्त होता है, तो उसी समय दुख, मूल सहित दूर हो जाते हैं। किन्तु और किसी उपाय से सुख प्राप्त होने पर वह सुख निरन्तर नहीं रहता – दुःख की निवृत्ति होने पर भी वह जड़ से नष्ट नहीं होता, दोबारा दुख भोगने की संभावना रह जाती है। इसीलिए देखा गया है कि, – भगवद् प्रेम में ही जीवों के सभी प्रयोजन पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए श्रीचैतन्य महाप्रभु ने मुक्ति नहीं, कृष्णप्रेम को ही ‘प्रयोजन’ के रूप में निर्धारित किया है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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पाप, अपराध और प्रायश्चित
मनुष्य इस जगत में जाने-अनजाने में शास्त्र-विरुद्ध अर्थात् नीति-आदर्श-वर्जित बहुत सारे कर्म करता है, जिसका अन्य नाम पाप या अपराध है। “Violation of the rules of state-laws or moral laws.” (राज्य के कानूनों या नैतिक कानूनों के उल्लंघन) को ही साधारण रूप में पाप कहा जाता है और गुरु-वैष्णवों के प्रति जो ईर्ष्या अवज्ञा प्रदर्शित होती है, उसे ‘अपराध’ कहते हैं। पाप का श्रेष्ठ प्रायश्चित्तश्रीनाम-संकीर्तन है। किन्तु अपराध का प्रायश्चित्त है अनुताप (पश्चाताप) सहित क्षमा-प्रार्थना। श्रीहरि के रुष्ट होने पर श्रीगुरु ही रक्षक हैं और गुरुदेव के रुष्ट होने पर और कोई रक्षाकर्ता नहीं है; इसीलिए श्रीगुरुपादपद्द्म को सर्वतोभाव से संतुष्ट रखना ही उनके आश्रित व्यक्तियों का विशेष कर्त्तव्य है। सद्गुरु कभी भी जगत की लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति की कामना नहीं करते हैं। किन्तु साधु-शास्त्र-गुरु की आज्ञा पालन करने वाले ही उनकी प्रीति को आकर्षित करने में समर्थ होते हैं।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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जब एक शुद्ध भक्त या आध्यात्मिक गुरू बोलता है, तब जो कुछ भी वह कहते हैं, उसे परंपरा पद्धति में, प्रत्यक्ष रूप से, परम पुरूषोत्तम भगवान् द्वारा बोला गया ही स्वीकार करना चाहिए।
(श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला- 5.71)
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सभी वैष्णवों के प्रति सरल और मित्रवत रहें। उनसे सेवा की याचना करें, प्रेम और उदाहरणीय आचरण से उनका सहयोग जीतें।
श्रील गोलाप कृष्ण गोस्वामी महाराज