ये-पर्यन्त ए-देहेते जीवेर संगति । चक्षु, कर्ण, नासा, जिह्वा, जड़-स्पृहा, जीवे लये करे’ टानाटानि । देख, देख, भयंकर जीवेर दुर्गति । जीव चाइ कृष्ण भजि, देह जाड़े याय मजि,’ शेषे जीव पाशरे आपनि ॥ जब तक जीव इस भौतिक शरीर में वास करता है, तब वह आँख, कान, नाक, जिह्वा, तथा स्पर्श इनसे उत्पन्न भौतिक इच्छाओं के द्वारा इधर-उधर खींचा जाता है। देखो ! जीव की भयावह तथा कष्टपूर्ण दुर्गति देखो! जीव कृष्ण का भजन करना चाहता है, परन्तु भौतिक शरीर में निमग्न, अन्ततः वह अपने वास्तविक स्वार्थ को भूल जाता है।
कल्यान कल्पतरू
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जगत के सभी लोग मेरा सर्वनाश करने के लिए प्रस्तुत हैं
मनुष्य जन्म के अतिरिक्त अन्य जन्म में हरिभजन का सुयोग नहीं है। अतः श्रेयः प्राप्त करने के लिए जीवन के अन्तिम समय तक जगत की समस्त बातों को छोड़कर हम केवलमात्र भगवद् भजन करेंगे। जगत के सभी लोग मेरा सर्वनाश करने के लिए प्रस्तुत हैं । इस बन्धुविहीन देश में आत्मीय – नामधारी सभी लोग भगवद् भजन के प्रतिकूल हैं। आत्मीय के रूप में एकमात्र वैष्णव के आश्रय के अतिरिक्त हमारा अन्य उपाय नहीं है। किसी मनुष्य के लिए कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं है सब लोग मिलकर केवल मात्र भगवान के सेवकों की सेवा करें । विद्या, बुद्धि, पाण्डित्य, बल, अर्थ, सामर्थ्य के द्वारा सभी लोग भगवान की सेवा करें। ‘तूर्ण यतेत’ (तुरन्त प्रयास करो)- विलम्ब करने से असुविधा में पड़ जाएंगे। अवैष्णव – धर्म ग्रहण करनेवाले का मंगल नहीं हो सकता। समस्त प्रकार के मंगल वैष्णव के चरणकमलों के आश्रय लेने वाले के लिए हस्तामलक (हथेली में आँवले) के समान है। अवैष्णव ने ही अपने गले में जन्म-मरण की माला धारण की है। हरिपरायण लोगों का कदापि मातृगर्भ में पुनर्जन्म नहीं होता है। वैष्णव की बात दूर रहे, वैष्णव के अलौकिक असामान्य चरणकमलों के दर्शन का सुयोग जिन्हें प्राप्त हुआ है, उनका भी पुनर्जन्म नहीं है।
श्रीलप्रभुपाद
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‘भगवद्धकृपा प्राप्ति का उपाय’
भगवान् असमोर्ध्व तत्त्व हैं इसलिये उन्हें कोई भी अपनी योग्यता के बल पर नहीं जान सकता। यदि ऐसा माना जाये कि किसी ने अपनी योग्यता के बल पर भगवान् को प्राप्त कर लिया है तो इससे भगवान् की भगवत्ता, सर्वशक्तिमत्ता व उनका असीमत्त्व नहीं रहता। भगवान् की इच्छा ही भगवान् को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है और भगवान् की इच्छा का अनुसरण करने का ही दूसरा नाम प्रीति व भक्ति है। हम यदि भगवान् की इच्छा अर्थात् श्रुति और स्मृतियों के अनुसार चलें तो हमारे लिये यही भगवान् की कृपा प्राप्त करने का उपाय स्वरूप होगा। किन्तु प्रश्न यह है कि भगवान् की प्रीति के अनुकूल शास्त्र का विधान समझ में कैसे आयेगा, इसके उत्तर में कहते हैं कि उसके लिये सत्संग की एवं शुद्ध-भक्त का आनुगत्य करने की आवश्यकता है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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भगवान् की कथा का प्रचार ही जीवों के प्रति दया है।
सदैव सत्यकथा के प्रचार में व्रती रहना। सत्-साहसी व्यक्तियों के भगवान् ही सहायक होते हैं। यदि सम्पूर्ण पृथ्वी असत् मार्ग पर चलने लग जाये तब भी हम उसका दासत्व नहीं करेंगे। पाप-प्रवृत्ति या असत्-कथा को किसी प्रकार का प्रश्रय देने के लिए जन्म नहीं ग्रहण किया है। आज भी हम वर्तमान विश्वविद्यालय की आसुरिक शिक्षा को प्रश्रय देने के लिए तैयार नहीं हैं। कलि की प्रबलता से जो विश्व की प्रगति [के नाम पर दुर्गति] हो रही है, उसे रोकना होगा। विश्व का मंगल चाहने वाले भक्तों का यही एकमात्र व्रत होना चाहिए। इसी का नाम है महावदान्य एवं इसी को जीवों के प्रति दया कहते हैं। तुम निर्भीक होकर सत्य बात कहना। सत्य के प्रचार के लिए नित्यानन्द प्रभु, हरिदास ठाकुर आदि वैष्णवगण पाखण्डियों के द्वारा प्रताड़ित हुए थे। यहाँ तक कि, अनेक महाजनों को सत्य के लिए प्राण त्याग करने पड़े हैं। इसलिए डरने से नहीं चलेगा। महाप्रभु की Policy है-तृणादपि सुनीच होकर एवं वृक्ष की अपेक्षा सहनशील होकर जीवों पर दया अथवा प्रचार करना होगा। भगवान् की कथा का प्रचार ही जीवों के प्रति दया है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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लाभ-हानि के हिसाब बिना की गई सेवा ही वास्तव सेवक की वृत्ति
सेवावृत्ति ही शरणागत का आभूषण या अलंकार है। यथासर्वस्व सेवा में नियुक्त करने का नाम ही पूर्ण आत्मसमर्पण है। शरणागत या समर्पितात्म जीव का सेवा के अतिरिक्त द्वितीय अभिनिवेश या अन्य कामना-वासना नहीं है। यहाँ Commercial Interest या प्राकृत लेन-देन की बात भी नहीं रह सकती है। अपने लिए Percentage का हिसाब रखने की बुद्धि होने पर ‘पद्मानीति” (कौन कितनी सेवा करते हैं, इसका हिसाब स्वार्थ के विचार से रखने की नीति) आ जाती है। वह सेवा की मनोवृत्ति नहीं है, प्राकृत कर्म का ही अंग हो जाता है। ‘मैं कीट-अनुकीट, अधम, पामर हूँ- इस प्रकार विचार आने पर मंगल की सम्भावना है। जबकि वही दैन्य प्रतिष्ठाशा और सौभाग्य प्रकाशित करने के लिए किया जाता है तो वह विषवत् क्रिया करेगा। गुरु-वैष्णवों की अहैतुकी करुणा से असम्भव भी सम्भव हो जाता है “काकेरे गरुड़ करे ऐछे दयामय” (कौओ को गरुड़ बना देते हैं, ऐसे दयालु हैं)।
श्रीश्रीमद् भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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‘जीव’ शब्द का अर्थ
एक समय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ कोलकाता में आयोजित धर्मसभा में श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने विवेकानन्द द्वारा प्रचारित वाक्य ‘जीवे प्रेम करे जेइ जन सेह जन सेविछे ईश्वर अर्थात् जीव से जो व्यक्ति प्रेम करता है वास्तव में वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।’ के विषय में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। श्रील महाराजने कहा, “क्या इस वाक्य में जीव शब्द मात्र मनुष्यों अर्थात् स्त्रियों एवं पुरुषों के लिये ही प्रयुक्त हुआ है? क्या बकरी, मुर्गी, मछली, पक्षी तथा अन्य प्राणी जीव नहीं हैं? क्या उनके कर्ण एवं चक्षु नहीं हैं? क्या आहत करने पर उनके देह से रक्त प्रवाहित नहीं होता? क्या वे मनुष्यों की भाँति आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन नहीं करते? यद्यपि वे जल एवं वन जैसे भिन्न-भिन्न स्थानों में वास करते हैं किन्तु उनमें भी प्राण हैं। अतएव विवेकानन्द के अनुगतजन ऐसे प्राणियों को क्यों खाते हैं? क्या वे अस्पताल एवं विद्यालय मात्र मनुष्यों के लिये इसलिये ही बनाते हैं क्योंकि उनका विचार है कि मनुष्य ही प्रेम का उपयुक्त अधिकारी है? वास्तव में चेतनता-प्राप्त प्रत्येक प्राणीमात्र ही जीव है। “जब कोई भगवान् के तत्त्व को भली-भाँति समझ लेता है तो वह सरलता से यह अनुभव कर सकता है कि समस्त प्राणी भगवान् के अंश हैं।” तब वह मात्र मनुष्यों से ही नहीं अपितु स्वाभाविक रूप से समस्त प्राणियों से प्रेम करता है।”
श्रील यायावर गोस्वामी महाराज