कल्याण कल्पतरु
शास्त्रे फल-श्रुति यत, सेइ लोभे कतशत, मूढ़जन भोग प्रति धाय।
से सब कैतव जानि’, छाड़िया वैष्णव-ज्ञानी, मुख्यफल कृष्णरति पाय।।
शास्त्रों में वर्णित पुण्य कर्मों के आकर्षक परिणामों से वशीभूत, असंख्य मूर्खजन भौतिक सुखों के पीछे भागते हैं। परन्तु एक बुद्धिमान वैष्णव भौतिक आनन्द को कपट से परिपूर्ण जानकर त्याग देता है। इसके स्थान पर वह कृष्ण से आसक्त होता है, जो वैदिक ज्ञान का वास्तविक फल है।
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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हरिगुरु के पादपद्मों में शरणागति के अतिरिक्त आत्म कल्याण का अन्य कोई उपाय नहीं है
भाग्यक्रम से भगवान की कृपा से ही हमने मनुष्य जन्म प्राप्त किया है। यह जन्म सुदुर्लभ है । अगले जन्म में, हम मनुष्य होंगे कि नहीं, यह कोई निश्चित नहीं है। क्योंकि दुर्भाग्य के कारण हम भूत, प्रेत, पिशाच, पशु, पक्षी, कीट भी हो सकते हैं। इन सब जन्मों में भगवान का भजन सम्भव नहीं है। अतः इस जन्म में जितने भी दिन बचे हैं, उन्हें दूसरे कामों में लगाना उचित नहीं है। जीवन क्षणस्थायी है। यह मनुष्य जन्म अनितय होने पर भी अर्थप्रद अर्थात् भक्तिप्रद है। अतः जीवन रहते-रहते ही शीघ्र से शीघ्र अर्थ अर्थात् परमार्थ प्राप्त कर लेना चाहिए । मनुष्य स्वयं के प्रति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी का अभिमान करते हैं। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा मिथ्या अभिमान नहीं करते। क्योंकि हम भगवान के दास हैं। हम इस जगत की कोई वस्तु नहीं हैं। शरीर के प्रति आत्मबुद्धि भ्रान्तिमात्र है। महाप्रभु ने कहा है- जीवेर स्वभाव – कृष्णदास – अभिमान। देहे आत्मज्ञाने आच्छादित सेइ ज्ञान।। अहं – मम – भावकारी (शरीर के प्रति मैं और शरीर सम्बन्धी वस्तुओं के प्रति मेरी बुद्धिवाले) व्यक्तियों की जिहा पर हरिनाम उच्चारित नहीं होता । हम कृष्ण बहिर्मुख जीव हैं। कृष्ण को भूलकर हम लोग माया के गाल में पड़े हुए हैं। ऐसी अवस्था में अहंकार का त्यागकर हरिगुरु के पादपद्मों में शरणागति के अतिरिक्त आत्म कल्याण का अन्य कोई उपाय नहीं है । हाथी अपने को हाथी तथा कुत्ता अपने को कुत्ता मानता है, किन्तु मनुष्य को ऐसा न कर अपने स्वरूप का अभिमान करना चाहिए । अर्थात् मनुष्य को ऐसा अभिमान होना चाहिए कि मैं भगवान का दास हूँ । महाप्रभु ने कहा है- जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्यदास।
श्रीलप्रभुपाद
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जो लोग शास्त्रों को नहीं मानते हैं, वे ही हेय हैं। जो लोग शास्त्रों को मानकर चलते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं। यह बहुत दुःख की बात है कि, शास्त्रों को मानकर चलने की अवस्था धीरे-धीरे लुप्त होने लगी है। किसी दल का गठन करके शास्त्र की विधि को बलपूर्वक दबा देना उचित नहीं है। परन्तु शास्त्रविधि को पूरे जोर से सभी जीवों के निकट व्यक्त करने की ही आवश्यकता है। यदि लाखों व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भी उस प्रकार शास्त्रविधि को मानकर चलने लगे, तो वही आदर्श है, और वही धन्य है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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unchallengeable truth
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी ने भी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को ही सर्वोत्तम आराध्य रूप से निर्देश किया है। जीव की हर प्रकार की इच्छित वस्तु की सर्वोत्तम परिपूर्ति एक मात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना से ही हो सकती है। किन्तु ये सब बातें हम समझेंगे कैसे? जब तक हमारा (Prejudice) स्वार्थ रहेगा, तब तक हम समझ नहीं सकेंगे। भगवद् तत्त्व को समझने के लिये हमें जिस ज्ञान व अधिकार की आवश्यकता है वह ज्ञान व अधिकार न आने तक साँसारिक बहुत सी योग्यता रहने पर भी हम उसकी (उस भगवद् तत्त्व की) उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। अधिकार प्राप्ति के लिये हम किसी भी तरह का साधन करने के लिये तैयार नहीं है। दम्भ से उन्हें नहीं जाना जा सकता, कारण, वे unchallengeable truth हैं। उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त’ किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृत्ति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:- “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः ॥” (गीता – 4/34)
श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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स्वरूपगत भिन्नता के अनुसार फल में भिन्नता
जिस प्रकार का वृक्ष है, उसी प्रकार का फल ही होगा। आम के पेड़ पर निश्चय ही कभी भी कटहल नहीं फलेगा। लेकिन एक ही गंगा के तट पर रहकर और उसी गंगा का जल पीकर, अलगअलग पेड़ क्यों अलगअलग रसों के होते हैं, इसका उत्तर कौन देगा? अर्थात् जिसका जो स्वभाव है, उसे ही वह प्रकाशित करेगा। “स्वरूपे सबार हय गोलोकेते स्थिति” (स्वरूप के विचार से गोलोक में सब की स्थिति है) यह तत्त्व-दर्शन है, लेकिन सभी की क्या गोलोक-गति हो रही है? बद्धजीव-मुक्तजीव और साधक-सिद्ध में क्या कोई अंतर नहीं है? “मनः एव मनुष्यानां कारणं बन्ध-मोक्षयोः”-विषयों में आविष्ट (फँसा हुआ) मन ही बन्धन का कारण है। गुरुकृपा के बल से अभ्यास और वैराग्ययोग के द्वारा उसे control (नियंत्रित) करना होगा। आत्मा के अधीन होने से ही इन्द्रिय, मन, बुद्धि सभी में सामंजस्य रखा जा सकता है; मन अनासक्त या निर्लिप्त अवस्था को अर्थात् आत्मा की वश्यता (नियंत्रण) को न स्वीकार करने के कारण ही गलत मार्ग पर चला जाता है। जगत के अच्छे-बुरे के अधीन होना ही उसके लिए सबसे बड़ी विपत्ति है। बद्ध और मुक्त का इसी विषय में ही फल का अंतर आ जाता है। लेकिन बद्ध ही मुक्त होता है, इस सम्बन्ध में कोई संदेह नहीं है। अतः अवस्था की उन्नति अवश्य ही स्वीकार्य है। ‘किसी दिन चरम अवस्था में पहुँचूँगा’ – इस प्रकार की आशा और उत्कण्ठा रहना उचित है
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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‘कृष्णेर नित्य दास’ का विशेष अर्थ
श्रीचैतन्य देव द्वारा श्रील सनातन गोस्वामीपाद को “जीवेर स्वरूप हय-कृष्णेर नित्यदास” (चै०च० मध्य-लीला २०.१०८) रूपी प्रदत्त शिक्षा के सम्बन्ध में श्रील सन्त गोस्वामी महाराज वर्णन करते हुए कहते, “इस पद्य का सरल अर्थ है कि जीव स्वरूप से कृष्ण का नित्यदास है। यद्यपि यह पूर्णतः सत्य है तथापि मैं इसकी थोड़ी-सी भिन्न प्रकार से व्याख्या करूँगा। मेरे विचार में ‘कृष्ण’ शब्द का तात्पर्य गोलोक वृन्दावन में लीला कर रहे कृष्ण से नहीं है। उसके स्थान पर मेरे लिये इसका अर्थ उस कृष्ण से है जो गुरु रूप में इस जगत् में आकर माया के जाल से निष्कपट जीवों का उद्धार करके उन्हें श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में समर्पित करके उन्हें स्नेहमयी सेवा में नियुक्त करते हैं। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी के वाक्य मेरे इस विचार को पुष्ट करते हैं- गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे। चै०च० (आदि-लीला १.४५) [गुरु रूप से ही श्रीकृष्ण भक्तों पर कृपा करते हैं।] “अतएव यह कहना गलत नहीं होगा, ‘जीवेर स्वरूप हय गुरुर नित्यदास’। “मैंने इस विचार को ग्रहण क्यों किया ? क्योंकि अनादि काल से मैं चौरासी लाख योनियों के विभिन्न शरीर धारण करके विभिन्न रूपों से ब्रह्माण्डों में भ्रमण कर रहा हूँ तथा एकमात्र इसी जन्म में श्रीकृष्ण कृपा करके गुरु रूप में मेरे समक्ष प्रकट हुए हैं। अतएव मैं उनके इस रूप, श्रीगुरु रूप को नित्य पूजनीय मानता हूँ।
श्रील भक्ति कुमुद सन्त गोस्वामी महाराज
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Unless one receives the mercy of the spiritual master (and saintly persons and Kışņa) liberation from material existence is not possible Once one enters into the continuation of material existence, it is very difficult to get out. Therefore the Supreme Personality of Godhead comes Himself or sends His bona fide representative, and He leaves behind scriptures like Bhagavad-gītā and Srimad-Bhagavatam, so that the living entities hovering in the darkness of nescience may take ad-vantage of the instructions, the saintly persons and the spiritual masters and thus be freed. Unless the living entity receives the mercy of the saintly persons, the spiritual master or Kışņa, it is not possible for him to get out of the darkness of material existence; by his own endeavor it is not possible.
Bhag. 3.32.38 – harikatha