श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी हरिनाम में विश्वास न होना व हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी नाशवान शरीर में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ को बुद्धि में बनाये रखना रूप जो दसवाँ नामापराध है, ऐसा अपराध माया में फंसे होने के कारण ही होता है।

इस दोष को त्यागने का उपाय

निष्किंचनभावे भजे श्रीकृष्ण – चरण।
विषय छाड़िया करे नामसंकीर्त्तन ।।

सेइ साधुजने अन्वेषिया ताँर सङ्ग ।
करिबे सेविवे छाड़ि’ ता’र विषयतरङ्ग ।।

क्रमे क्रमे नामे मति हइबे संन्चार।
अहंता – ममता या ‘बे माया ह ‘बे पार ।।

नामेर माहात्म्य शुनि अहंमम भाव।
छाड़िया शरणागति भक्तेर स्वभाव ।।

नामेर शरणागत येइ महाजन ।
कृष्णनाम करे, पाय प्रेम – महाधन ।।

अतः हमें एक ऐसे निष्किंचन भक्त की खोज करनी होगी जिसके अन्दर दुनियाँ के भोगों की ज़रा सी भी कामना न हो तथा जो हर समय विषय भोगों को छोड़कर नाम-संकीर्तन करता रहता हो। ऐसा निष्किंचन भक्त जब मिल जाये तब साधक को उसकी संगति में रहना होगा तथा अपनी विषय – भावनाओं को छोड़कर उसकी सेवा करनी होगी। ऐसा करने से धीरे-धीरे साधक के अन्दर हरिनाम में रुचि होने वाले भावों का संचार होगा तथा में-मेरेपन को छोड़कर वह माया से पार हो जाएगा। हरिनाम की महिमा को सुनकार “मैं” और “मेरा” के भावों को छोड़कर हरिनाम के शरणागत होना ही भक्त का स्वभाव है। जो भक्त हरिनाम के शरणागत रहकर श्रीकृष्णनाम करते हैं, वे श्रीकृष्ण-प्रेम रूपी महाधन को प्राप्त कर लेते हैं।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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साधन भक्ति से ही आत्मोन्नति होती है

वर्णाश्रमधर्म पालन से देहमात्र का सहज ही निर्वाह होता है। योग आदि से मानसिक उन्नति होती है; किन्तु साधनभक्तिसे आत्मोन्नति होती है। यदि कोई साधक एक पक्का कृषक, सुदक्ष व्यापारी या चतुर योद्धा न भी हो, तो भी वह अपने अधिकारसे अच्युत मानव-जीवनके कौशलमें परिपक्व हो सकता है। जिस प्रकार एक चतुर राजमन्त्री बन्दूक और तोप आदि चलानेके कार्यमें भले ही विशेष दक्ष न हो, तथापि सभी योद्धाओंके लिए वही युद्धादिकी व्यवस्था करता है, उसी प्रकार जो लोग साधकभक्तकी सर्वत्र ही उच्चता देख पाते हैं, वे ही वास्तवमें बुद्धिमान हैं। वे अवश्य ही भगवान्‌की कृपा प्राप्त कर चुके हैं।

ये वा मयीशे कृतसौहृदार्था जनेषु देहम्भरवार्तिकेषु ।
गृहेषु जायात्मजरातिमत्सु न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥

जो लोग कृष्णचेतना को पुनरुज्जीवित करने तथा अपना ईश्वर-प्रेम बढ़ाने के इच्छुक हैं, वे ऐसा कुछ नहीं करना चाहते जो श्रीकृष्ण से सम्बन्धित न हो। वे उन लोगों से मेलजोल नहीं बढ़ाते जो अपने शरीर-पालन, भोजन, शयन, मैथुन तथा स्वरक्षा में व्यस्त रहते हैं। वे गृहस्थ होते हुए भी अपने घरबार के प्रति आसक्त नहीं होते। वे पत्नी, सन्तान, मित्र अथवा धन में भी आसक्त नहीं होते, किन्तु उसके साथ ही वे अपने कर्तव्यों के प्रति अन्यमनस्क नहीं रहते। ऐसे पुरुष अपने जीवन-निर्वाह के लिए जितना धन चाहिए उतना ही संग्रह करते हैं।

श्रीमद्भागवत 5/5/3

श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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विष्णु और वैष्णवों की सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है

कपटी लोग पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए सोलह उपचारों से श्रीविग्रह की पूजा कर सकते हैं, किन्तु उनका उद्देश्य होता है-ठाकुर सेवा के बदले में ठाकुर से कुछ प्राप्त करना । इसे सेवा नहीं कहा जा सकता। ठाकुर पूजा और नाम – आराधना के बहाने जगत में क्या कपटता नहीं चल रही है ?

भगवान की सेवा और भगवत् सेवा का अभिनय दोनों पृथक् वस्तु हैं। भगवान की श्रीअर्चामूर्ति की सेवा जिससे भलीभांति सम्पादित हो, उसके लिए हमें विशेष चेष्टा करनी चाहिए। हर कोई भगवद् विग्रह का सेवक नहीं हो सकता। बीस रुपये देकर नाम नहीं होता, पचास रुपये जमा करने से हरिकथा की वक्तृता नहीं होती, पाठ नहीं होता उनमें भाषाविन्यास या लोकरञ्जक आमोद – प्रमोद हो सकता है, वह भक्ति या वैष्णवधर्म नहीं है, उसका नाम भोग या कर्मकाण्ड है । दस रुपये का देवल-ब्राह्मण (जो देवताओं की पूजा करके जीविका – निर्वाह करे) ठाकुर सेवा नहीं कर सकता है ।

विष्णु और वैष्णवों की सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है-इस प्रकार का दृढ़ विश्वास जब तक नहीं होगा, तबतक हमारा कोई मंगल नहीं हो सकता।

श्रीलप्रभुपाद
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श्रीमन्महाप्रभु की सेवा हेतु त्याग का भी त्याग

एक समय श्रील प्रभुपाद ने श्रील वन गोस्वामी महाराज- जो अपने स्वाभाविक वैराग्य के कारण मठ जीवन में कभी भी जूते का व्यवहार नहीं करते थे- उनके लिये श्रीकुञ्जविहारी विद्याभूषण प्रभु को एक जोड़ी कीमती जूते खरीदने के लिये कहा। तब श्रीकुञ्जविहारी प्रभु ने उस समय की एक बहुत बड़ी धनराशि ३२ रुपये के जूते कोलकाता से खरीदे। मायापुर में आकर उन्होंने वह जूते श्रील प्रभुपाद को दिखाये। श्रील प्रभुपाद ने श्रीकुञ्जविहारी विद्याभूषण प्रभु से कहा, ‘वन महाराज को कहो कि वे इन जूतों को पहनकर मेरे निकट आयें। श्रीकुञ्जविहारी विद्याभूषण प्रभु ने उन जूतों को श्रील वन गोस्वामी महाराज को देते हुए कहा कि श्रील प्रभुपाद ने आपको ये जूते पहन कर उनके समक्ष उपस्थित होने का आदेश दिया है। जब श्रील वन गोस्वामी महाराज ने श्रील प्रभुपाद के आदेश का पालन किया तथा जूते पहन कर उनके समक्ष उपस्थित हुए तो श्रील प्रभुपाद ने कहा, “श्रीमन्महाप्रभु की सेवा के लिये आपने त्याग का भी त्याग कर दिया, इस कारण आज आपका वैराग्य सिद्ध हुआ है अर्थात् आप युक्त वैराग्य में प्रतिष्ठित हुए हैं।”

श्रील भक्ति ह्रदय वन गोस्वामी महाराज
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स्वयं आचरण कर शिक्षा प्रदान करना

श्रीश्यामल दास नाम का एक ब्रह्मचारी कोलकाता श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में रहता था। एक बार वह अस्वस्थ होने के कारण पागलप्राय हो गया। किसी एक वैद्य ने उसका परीक्षण कर उसके सिर पर लगाने के लिए तेल दिया। किन्तु जब भी कोई उसे सिर पर तेल लगाने के लिए कहता अथवा लगाने जाता तो वह- ‘क्या मैं पागल हूँ, जो सिर पर तेल लगाऊँ’- यह कहकर चिल्लाने लगता था।

एक दिन गुरु महाराज ने मुझसे कहा, “वह तेल मुझे लाकर दो तथा तत्पश्चात् श्यामल ब्रह्मचारी को भी बुला कर मेरे निकट ले आओ।” यद्यपि गुरु महाराज कभी भी किसी प्रकार का कोई तेल अपने श्रीअङ्ग पर नहीं लगाते थे, हमने कभी भी उनको सम्पूर्ण जीवन ऐसा करते हुए नहीं देखा, तथापि उस दिन श्रीश्यामल ब्रह्मचारी को दिखलाकर उन्होंने अपने हाथ से सिर पर तेल लगाकर उससे कहा, “यह तो बहुत अच्छा तेल है, देखो, मैं भी तो इसे अपने सिर पर लगा रहा हूँ। तुम इसे अपने सिर पर लगाने में सङ्कोच क्यों कर रहे हो?” गुरु महाराज की बात सुनकर तथा उन्हें अपने सिर पर तेल लगाते देखकर श्रीश्यामल ब्रह्मचारी ने भी तेल उठाकर स्वयं ही अपने सिर पर लगा लिया।

वह प्रतिदिन स्वयं तेल लगाते समय कहता, “गुरु महाराज भी इस तेल को लगाते हैं। यह तेल पागल व्यक्ति के लिए नहीं, अपितु सभी के लिए अच्छा है।” इस प्रकार उस तेल का प्रयोग करने से श्रीश्यामल ब्रह्मचारी कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया।

गुरु महाराज कभी किसी पर शासन करके उसे कोई शिक्षा प्रदान नहीं करते थे अपितु स्वयं के आचरण के द्वारा शिक्षा प्रदान करते थे। इस उपरोक्त प्रसङ्ग के माध्यम से उनका भक्तवात्सल्य रूपी गुण भी प्रकाशित हुआ।

श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज
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ज़बरदस्ती करके हम नाम को अपने अधीन नहीं कर सकते हैं। जो ज़बरदस्ती करके होता है अर्थात् जो कर्ता अभिमान से किया जाये वह चिन्मय नाम का Material aspect है। नाम साक्षात् भगवान हैं। ये हरिनाम हमारे भोग की वस्तु नहीं है। अपनी भोग की वस्तुओं को लाकर देने के लिये, अपनी खुशामद करवाने के लिये या अपनी सेवा करवाने के लिए जब हम भगवान् को बुलाते हैं तब भगवान् नहीं आते हैं, उस समय भगवान् की माया आकर हमसे अपनी खुशामद् करवाती है। इसलिये कर्तृत्त्वाभिमान से हरिनाम नहीं होता है। श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण व लीलायें प्राकृत भोगोन्मुख इन्द्रियों की ग्रहण योग्य वस्तु नहीं हैं, सेवोन्मुख चिन्मय इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य हैं-

“अतः श्रीकृष्ण नामादि न भवेद ग्राह्यमिन्द्रियैः ।”
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वमेव स्फुरत्यदः ॥
(पद्मपुराण एवं भ.र.सि.पूर्व 2 लहरी 109)

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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‘तृणादपि सुनीच’ का मतलब संकुचित रहने का भाव नहीं

‘तृणादपि सुनीच’ शिक्षा का वास्तविक अर्थ बहुत सारे लोग समझ ही नहीं पाते हैं। वे समझते हैं कि, हमेशा संकुचित रहने का भाव ही तृणादपि सुनीचता है। किन्तु महाप्रभु और उनके भक्तों की जीवनी की चर्चा करने पर इस प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ दूर हो जाती हैं। ‘तृणादपि सुनीचेन’ के शिक्षक स्वयं महाप्रभु ने संकीर्तन-विरोधी चाँदकाजी के विरुद्ध आंदोलन किया था। किन्तु वह आंदोलन उन्होंने संकीर्तन के द्वारा ही किया था-किसी प्रकार के हथियारों से लैस होकर नहीं। स्वयं महाप्रभु ही भारत में अहिंसक आंदोलन के प्रवर्तक हैं।( इसलिए उनकी शिक्षा- ‘तृणादपि सुनीचेन’ की व्याख्या अगौड़ीय (जो गौड़ीय नहीं) के रूप में करने पर, भूल उन लोगों की होगी, महाप्रभु की नहीं। महाप्रभु के भक्तों ने उसी शिक्षा में शिक्षित होकर ही उक्त आंदोलन में भाग लिया था। वही तृणादपि सुनीचता के प्रतीक, श्रीवृन्दावन दास ठाकुर द्वारा लिखित “तबे लाथि मारों तार शिरेर उपरे” (तो फिर उसके माथे पर लात मारो) वाक्य ही महाप्रभु की उस शिक्षा के वास्तविक अर्थ को व्यक्त करता है। दीनता के

अवतार, श्रील नरोत्तम ठाकुर के “क्रोध भक्त-द्वेषि-जने” वाक्य में भी ‘तृणादपि सुनीचेन’ श्लोक की आंतरिक शिक्षा को व्यक्त किया गया है। इसलिए अगौड़ीयजन, महाप्रभु की उस शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझ ही नहीं सके-इनकी संख्या भारत में ही ज़्यादा है। इसीलिए भारतवर्ष को पराधीन होना पड़ा था। महाप्रभु के उस ‘तृणादपि सुनीचेन’ श्लोक के यथायथ आचरण करने पर अजित भगवान को भी जीता जा सकता है-ब्रिटिश शासकों की क्या बात करनी है ?

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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धैर्य और सहनशीलता-वैष्णवों का विशेष गुण

मुझे ‘परेशान’ करने वाला इस जगत में कोई नहीं है। लेकिन मैं यदि स्वयं परेशानी अनुभव करता हूँ, तभी ‘परेशान’ शब्द को मेरे लिए प्रयोग कर सकते हो। मनुष्य यदि स्वयं विरक्त (परेशान) न हो, तो उसके लिए विरक्ति उत्पन्न करना कठिन हो जाता है। जड़ विषयों से विरति (निवृत्ति) को भी विरक्ति कहते हैं। श्रीभगवान् को, गुरु-वैष्णवों को, प्रीति करने पर ही जड़ विषयों से चित्त ऊर्ध्वगामी होता (ऊपर उठता) है। अतः भक्त या वैष्णवों में हमेशा ही tolerance, patience, perseverance (सहनशीलता, धैर्य और लगन) होती है और रहेगा भी।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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साधु-संग में रहकर हरिनाम करना ही, अतिशीघ्र श्रीकृष्ण-भक्ति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है क्योंकि जब तक जीव भगवान श्रीकृष्ण के माधुर्य का रसास्वादन नहीं कर लेता, तब तक उसके जीवन में भौतिक आकर्षणों एवं श्रीकृष्ण-भक्ति के बीच रस्सा-कशी चलती रहेगी।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
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वैष्णव – धर्म तो परमहंसों का धर्म है

एक हंस में ये गुण होता है कि यदि उसे दूध और पानी मिलाकर दे दिया जाए तो वह बड़ी आसानी से दूध – दूध पी जाता है और पानी को छोड़ देता है। इसी प्रकार एक सच्चा वैष्णव, जो कि परमहंस होता है, वह भी इस संसार में ऐसे ही रहता है। उसके सम्पर्क में आने वालों के गुणों को तो वह देखता है पर उनके अवगुणों की ओर वह देखता भी नहीं, जबकि माया-बद्ध जीव भगवान की त्रिगुणात्मिका माया के सत्, रज व तमोगुण के द्वारा मोहित रहता है; इसलिए वह गुणग्राही नहीं होता। वह तो केवल-मात्र दूसरों के दोष ही ढूँढता रहता है। अतः ये जीव, जब तक वैष्णवों की व गुरु की श्रेष्ठता को नहीं समझ पाता, तब तक सम्भावना ही नहीं है कि वह गुरु-वैष्णवों के सम्पर्क में आये या उनका अन्तरंग बन सके।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
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