शरणागति के बिना हरिनाम करते हुए जो फल होता है
षड् विध शरणागति नाहिक याहार।
से अधम अहंमम-बुद्धि दोषे छार ।।
से बले आमि त’ कर्त्ता संसार आमार।
निजकर्म – फलभोग सुख-दुःख आर ।।
छः प्रकार की शरणागति जिसमें नहीं होती, वह तो अधम है। ‘मैं’, ‘मेरा’ के दोष में ही उस बेचारे की बुद्धि उलझी होती है। ऐसी अवस्था में वह अपने – आप को कर्त्ता मानता हुआ कहता है कि ये संसार मेरा है। कर्मों के दुःख हों या सुख ये सब मेरे ही भोग हैं। मैं अपना रक्षक व पालक हूँ, ये मेरी पत्नी, मेरा भाई, मेरी लड़की व मेरे लड़के हैं। मैं रुपया कमाता हूँ, मेरी कोशिशों से ही ये अच्छे-अच्छे सब काम हो रहे रहे हैं। ठाकुर श्रीहरिदास जी कहते हैं कि भगवान के विमुख व्यक्ति की शरीर में ‘मैं’ तथा शरीर से सम्बंधित व्यक्ति व वस्तुओं में ‘मेरी’ बुद्धि होने से वह अपने दिमाग को बड़ा समझता है। वह सोचता है कि मेरे दिमाग के कारण ही दुनियाँ में शिल्प कला व विज्ञान आदि इतनी उन्नति कर रहे हैं। इसी अभिमान में वह दुष्ट व्यक्ति भगवान की शक्तियों को भी स्वीकार नहीं करता। हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी वह उसमें विश्वास नहीं करता। हाँ, लोकाचार की दृष्टि से वह कभी-कभी देखा-देखी कृष्ण नाम का भी उच्चारण कर लेता है। अक्सर धर्मध्वजी, दुष्ट प्रकृति के लोग ऐसा करते हैं। श्रीकृष्ण-नाम उच्चारण करते हुए भी उनकी श्रीकृष्ण – नाम में प्रीति नहीं होती। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि ‘हेला’ से हरिनाम का उच्चारण करने से अर्थात् अनायास ही मुख से श्रीकृष्ण नाम निकल जाय तो उसे कुछ-न-कुछ पुण्य अवश्य मिलता है परन्तु भगवद् – प्रेम नहीं मिलता।
इसका मूल कारण क्या है
मायाबद्ध हैते एइ अपराध हय।
इहाते निष्कृतिलाभ कठिन निश्चय ।।
शुद्ध भक्तिफले याँ’र विरक्ति हइल।
संसार छाड़िया सेइ नामाश्रय निल ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी हरिनाम में विश्वास न होना व हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी नाशवान शरीर में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ को बुद्धि में बनाये रखना रूप जो दसवाँ नामापराध है, ऐसा अपराध माया में फंसे होने के कारण ही होता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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प्राकृत विज्ञान द्वारा अप्राकृत वस्तुको कदापि नहीं जाना जा सकता
प्राकृत विज्ञानका सबसे बड़ा दोष यह है कि वह अपने अधिकारसे बाहरके भी सब तत्त्वोंको जानना चाहता है। अप्राकृत तत्त्वमें उसका अधिकार नहीं है, तथापि वह निर्लज्जकी भाँति उस दिशामें भी अपनी टाँग अड़ाता है तथा उसके सम्बन्धमें अतिशय क्षुद्र एवं भ्रमपूर्ण सिद्धान्त अपनाता है और अन्तमें स्वयं भी विकृत होकर अर्थात् अप्राकृत तत्त्व नामक कुछ है ही नहीं-ऐसी धारणा बनाकर उस विषयसे सर्वथा अलग हो जाता है। सत्सङ्गके प्रभावसे जीवके हृदयमें स्वाभाविक दैन्यका प्रकाश होता है। दैन्यरूप आधारपर ही कृष्णकी कृपा होती है। इस कृष्णकृपासे ही अप्राकृत तत्त्वमें अधिकार पैदा होता है। केवल भौतिक विचार या भौतिक ज्ञानके द्वारा अप्राकृत तत्त्वको कदापि नहीं जाना जा सकता।
अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय-प्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।
जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥
श्रीमद्भागवत 10/14/29
हे प्रभु, यदि किसी पर आपके चरणकमलों की लेशमात्र भी कृपा हो जाती है, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग भगवान् को समझने के लिए चिन्तन करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको जान नहीं पाते।
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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वैकुण्ठ वस्तु में हमारा विश्वास क्यों नहीं होता
महापापी व्यक्ति का वैकुण्ठ वस्तु में विश्वास नहीं होता । पापमलिन चित्त निर्मल वस्तु में विश्वास स्थापन नहीं कर सकता। इसीलिए महाभारत और स्कन्दपुराण में कहा गया है-
महाप्रसादे गोविन्दे नाम ब्रह्मणि वैष्णवे ।
स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायत ।।
अन्नब्रह्म महाप्रसाद, शिलाब्रह्म या काष्ठब्रह्म भगवान के विग्रह, शब्दबह्म और नरब्रह्म वैष्णव गुरु इन चार ब्रह्मवस्तुओं में स्वल्पपुण्यवान् अर्थात् महापापी व्यक्ति का विश्वास नहीं होता ।
वर्तमान समय में हमने इन चार प्रकार की वैकुण्ठ वस्तुओं में विश्वास खो दिया है, अतः अनर्थ ने हमको ग्रास कर लिया है। महाप्रसाद, गोविन्द, नाम और गुरु-ये चार ही विष्णुवस्तु हैं। परन्तु माया जगत में आकर हमने इस विश्वास को खो दिया है। मीयते अनया इति माया जिसके द्वारा नाप लिया जाय, वही माया है । परन्तु ये चार वस्तुएँ नाप लेने की वस्तु नहीं हैं ।
श्रीगोविन्द स्वतः प्रकाश असल वस्तु हैं, उनको देखने के लिए अन्य रोशनी की आवश्यकता नहीं होती। गां विन्दति इति गोविन्दः । अधोक्षज गोविन्द is not a concoction of human mind. श्रीगोविन्द किसी के मन द्वारा कल्पित या मनगढ़न्त वस्तु नहीं हैं। श्रीगोविन्द ही एकमात्र अधोक्षज वस्तु हैं- परात्पर वस्तु हैं । परम हितकारी दिव्यज्ञानदाता वैष्णवराज श्रीगुरुदेव ही हमें यथार्थ – सत्य गोविन्द की बात बता देते हैं।
श्रीगोविन्द स्वयं अविमिश्रित परमानन्द विग्रह हैं । अपने अक्षज ज्ञान में हमें कुछ समय के लिए जो सत्य प्रतीत होता है, वह Apparent truth-Local truth है- वह positive या Absolute truth नहीं हो सकता । अनादि काल के विचार में गोविन्दसेवा विमुख लोगों के लिए जड़जगत की सृष्टि हुई है ।
श्रीलप्रभुपाद
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अपराध-युक्त होकर कीर्त्तन करने पर नाम का वास्तविक फल नहीं देखा जाता
“श्रीचैतन्यदेव जी ने हमें जो दिया है उनमें से एक विशिष्ट देन है-श्रीनाम-संकीर्त्तन 164 प्रकार के साधन अंगों में जो पाँच मुख्य साधन हैं, वे हैं- साधुसंग, नामकीर्त्तन, भागवत-श्रवण, मथुरावास और श्रद्धा से श्रीमूर्ति का सेवन। इन पाँच मुख्य भक्ति अंगों के साधनों में श्रीनाम-संकीर्त्तन सर्वोत्तम है।”
“तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम संकीर्तन।
निरपराधे नाम लैले पाय प्रेमधन ॥”
(चैः चः अन्त्य 4/71)
यहा पर एक शर्त दी है ‘निरपराधे’। अपराध-युक्त होकर कीर्त्तन करने पर नाम का वास्तविक फल नहीं देखा जाता। श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास मुनि ने पद्मपुराण में दस प्रकार के नामापराधों की बात का उल्लेख किया है। जो निश्चित मंगलप्रार्थी हैं, वे इन दस प्रकार के नामापराधों के विषय में सतर्क होकर नामानुशीलन करेंगे। नामकीर्त्तन करने के वास्तविक सुफल की प्राप्ति से हम वन्चित क्यों रहें? उसका कारण अर्थात् हरिनाम के वास्तविक फल से वन्चित रहने का कारण नाम की शक्ति अथवा हरिनाम के सामर्थ्य का अभाव नहीं है। इसमें हमारे अपराध ही मूल कारण हैं। जिस प्रकार भगवान सर्वशक्तिमान हैं, भगवन्नाम भी वैसे ही सर्वशक्तियुक्त है। भगवान् के वाच्य और वाचक- ये दो स्वरूप होने पर भी इन दोनों में भगवान् के वाचक स्वरूप की महिमा ही अधिक है। दुर्भाग्यवश ही सर्वसन्तापहारी, सर्वशुभद, सर्वाभीष्टप्रद श्रीनाम की महिमा में हम विश्वास नहीं जमा पाते। इसलिये बड़े दुःख के साथ श्रीमन् महाप्रभु कहते हैं-
“नाम्नाममकारि बहुधा निजसर्वशक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन् ! ममाऽपि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः।”
(चै. शिक्षाष्टक 2 श्लोक)
हम कह सकते हैं कि भगवान को बुलाने से, या भगवद् नाम की चपर-चपर करने से क्या होगा? नाम तो एक शब्द मात्र है। हमारे अनुभव में शब्द और शब्दोद्दिष्ट वस्तु एक नहीं है। शब्द के द्वारा तो वस्तु का निर्देश किया जाता है। दृष्टान्तस्वरूप ‘जल’, इस शब्द के उच्चारण द्वारा हमारी प्यास नहीं बुझती है। प्यास बुझने की क्रिया जल-रूप वस्तु ग्रहण की अपेक्षा रखती है। इसलिये शब्द ही वस्तु नहीं है।
परन्तु हमें ये स्मरण रखना चाहिए कि जड़ शब्द और शब्दोद्दिष्ट वस्तु में एक माया का पर्दा है। किन्तु जड़ातीत अप्राकृत शब्दों में अर्थात् भगवान् के नामों में माया का पर्दा नहीं है, इसलिये इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं। शब्दब्रह्म का शब्द और शब्दोद्दिष्ट वस्तु एक ही हैं अर्थात् भगन्नाम और नामी भगवान में कोई भेद नहीं है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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हरिभजन से जीवों को सभी प्रकार का लाभ
हरिभजन ही जीवों की समस्त प्रकार की समस्याओं का समाधान है। अन्य समस्त उपायों की क्या आवश्यकता है ? हरिभजन से जीवों को क्या नहीं प्राप्त होता है- “अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्।।” (भाः 2/3/10)। इस श्लोक पर विचार करने से देखा जाता है कि, हरिभजन जीवों के लिए सब समय ही हर प्रकार की कामना को पूरा करने में समर्थ है अकामी, सर्वकामी, मोक्षकामी-सभी हरिभजन से ही संतुष्ट होते हैं। उपनिषद् में यही बात कही गयी है- “एको बहुनां यो विदधाति कामान्।” श्रीमद् भगवद्गीता में देखते हैं- “यावानार्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके”, अर्थात् “जैसे कोई बड़ा जलाशय होने पर उससे छोटे-छोटे कई कुओं का प्रयोजन सिद्ध होता है, उसी प्रकार एकमात्र हरिभजन से ही जीव नित्य-अनित्य समस्त प्रकार के मंगल लाभकर सकता है।”
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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भाषा के प्राण होते हैं-भक्ति, अतः भक्तिहीन भाषा है निरर्थक
भक्ति ही हृदय का भाव या भाषा है। वह कैसे भी पद या वाक्यों में क्यों न हो, वही सार्थक है। भक्ति के बिना किसी भी प्रकार का पद-लालित्य (पद का सौन्दर्य) या वाक्य-विन्यास (वाक्य सुष्ठुता) निरर्थक है तथा काक-तीर्थ (कौओ के तीर्थ के) समान है। “भक्तिपुष्प कोथा पाइ, भकति चन्दन नाइ, कि दिये पूजिब आमि?” (भक्ति-पुष्प कहाँ पाऊँ, भक्ति-चन्दन नहीं है, तो किससे पूजा करूँ?) भक्ति चाहने वाले साधक साधिकाओं का श्रीभगवान् के चरणों में ये ही श्रद्धा-अर्घ्य है।
गुरु-वैष्णवों की अहैतुकी कृपा से भाषा-ज्ञान या वाक्यों की स्फूर्ति प्राप्त होती है। पद्मपलाश-लोचन श्रीहरि का दर्शन पाकर जब ध्रुव की श्रीहरि की स्तुति करने की इच्छा हुई, तो श्रीभगवान् ने उनके कपोल (गाल) में वेद ज्ञानमय शंख स्पर्श कर दिया, तब वे भाषा खोज पाये तथा आनन्दयुक्त मन से अवरुद्ध (निरन्तर) धारा में, श्रीहरि का गुणगान करने लगे। इसीलिए वैष्णव महाजनों ने पद रचना के अन्त में गाया है-
“तथापि मूकेर भाग्य मनेर उल्लास।
दोष क्षमि मो अधमे करो निज दास।।”
(गूंगा होते हुए भी मेरे लिए आपका महिमा कीर्तन करना बहुत सौभाग्य एवं उल्लास का विषय है; इसमें मुझसे जो गलतियाँ हुई हैं, उन्हें क्षमा करके कृपया मुझ अधम को अपना दास बना लीजिए)।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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उनकी स्वच्छन्द अनासक्ति
एक समय किसी एक व्रजवासी ने श्रील बाबाजी महाराज को रमणरेती, वृन्दावन में एक भूमि दान दी। बाबाजी महाराज ने कुछ भक्तों की सहायता से वहाँ पर निर्माण कार्य प्रारम्भ कराने के उद्देश्य से ईंट, रोड़ी, बालू, पत्थर, सीमेन्ट आदि की व्यवस्था की। भित्ति स्थापन करने से एक-दो दिन पूर्व जब वे उस स्थान पर गये तब दान करने वाले व्यक्ति के भाई ने बाबाजी महाराज से आकर कहा, “मेरे भाई ने आपको जो स्थान दान में दिया है, वह यह वाला नहीं, बल्कि इसके साथ वाला ही दूसरा स्थान है। आप अपनी भजन-कुटीर वहाँ पर बना लीजिए।”
उस व्यक्ति की बात सुनकर श्रील बाबाजी महाराज ने उनसे कहा, “भाई, मुझे भजन-कुटीर की कोई आवश्यकता नहीं है, मेरे गुरुभ्राताओं के पास बहुत से स्थान हैं तथा वे सभी अत्यधिक प्रीतिपूर्वक मुझे अपने श्रीचरणों में आश्रय प्रदान करते हैं। जब अपना स्थान निर्माण करने के प्रथम दिन से ही असुविधा दिखायी दे रही है तब भविष्य में होने वाले कष्टों का मैं भलीभाँति अनुमान लगा सकता हूँ। यह स्थान तुम ही रख लो। हरे कृष्ण!”
श्रील बाबाजी महाराज जब ऐसा कहकर वहाँ से चल दिये तब उस व्यक्ति ने कहा, “आप कम से कम अपनी एकत्रित निर्माण सामग्री यथा पत्थर, ईंट आदि को तो ले जाने की कोई व्यवस्था कर लीजिए, यह वस्तुएँ आपके अन्य किसी स्थान पर उपयोग में आ जायेंगी।”
श्रील बाबाजी महाराज ने उत्तर दिया, “उन्हें भी तुम ही रख लो। यह भी अब तुम्हारे हैं।”
उन्होंने जब मुझे उपरोक्त घटना के विषय में बताया तब कहा, “विषय का स्वभाव ही ऐसा है कि वह भाई-भाई में भी झगड़ा करा देता है।”
श्रील बाबाजी महाराज ऐसे अनाशक्त थे कि एक बार भी दान देने वाले व्यक्ति से भेंट करना तक उचित नहीं समझा, उसे समय की व्यर्थता ही माना।
श्रील कृष्ण दास बाबा जी महाराज
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