हरिनाम में शरणागति की आवश्यकता
हमारे शास्त्रों में 6 प्रकार की शरणागति के बारे में कहा गया है। हे प्रभो! मेरी तो सामर्थ्य नहीं जो मैं विस्तृत भाव से शरणागति के बारे में वर्णन कर सकूँ, तब भी आपकी प्रसन्नता के लिए संक्षेप में कहना चाहूँगा।
पहली व दूसरी शरणागति है कि संसार में रहने के लिए जो विषय भगवान की प्रसन्नता के व भगवान की भक्ति के अनुकूल हों, उन्हें ग्रहण करना तथा जो विषय भगवान की भक्ति के प्रतिकूल हों, उन्हें छोड़ देना।
भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षाकर्त्ता हैं- प्रकार की सोच रखना। भगवान श्रीकृष्ण मेरे पालनकर्त्ता हैं- इस प्रकार की भावना रखना, अपने अन्दर हमेशा दीनता का भाव बनाये रखना तथा अपना सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में निवेदन कर देना ही शरणागति के बाकी चार लक्षण हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि दुनियाँ में वस्त्र, भोजन व दवाई इत्यादि इस भावना से स्वीकार करना कि ये सभी तो इस शरीर की रक्षा के लिए ज़रूरी हैं, क्योंकि जब मैं ज़िन्दा ही नहीं रहूँगा तो मुझसे भजन भी न हो पाएगा। अपने जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए केवल उन्हीं भक्ति के अनुकूल विषयों को ग्रहण करो जो श्रीकृष्ण को भाते हों । भक्ति के प्रतिकूल विषय जब आपके सामने आयें तो उनके प्रति अरुचि दिखाते हुए अवश्य ही उन्हें त्याग देना। इस बात को अपने दिल में बिठा लेना कि श्रीकृष्ण के बिना मेरा और कोई रक्षाकर्ता व पालनकर्ता नहीं है। हृदय में हर समय दीनता के ऐसे भाव रहने चाहिएँ कि मैं तो सबसे निकृष्ट हूँ, अधम हूँ, मुझमें कोई भी गुण नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के संसार में मैं उनका नित्य दास हूँ, उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करना ही मेरा प्रयास है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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भक्तिरहित कर्म, योग और ज्ञान निष्फल हैं
श्रीमन्महाप्रभु ने कहा है कि कर्म, अष्टाङ्गयोग और ज्ञानको किन्हीं किन्हीं शास्त्रोंमें साधन कहा गया है; इसलिए अल्प बुद्धिवाले व्यक्ति इन शास्त्रोंका तात्पर्य हृदयंगम न कर पानेके कारण उनको मुख्य अभिधेय या साधन मान बैठते हैं। अधिकार भेदसे मनुष्य अनेक प्रकारके हैं और प्रवृत्त-निवृत्त भेदसे वे दो प्रकारके हैं। उन अधिकारोंमें स्थित व्यक्ति उससे ऊपरके स्थानको प्राप्त करनेके लिए जो साधन करते हैं, वे साधन गौण मात्र हैं, मुख्य साधन या अभिधेय नहीं। उन साधनोंका फल केवल एक सोपान आगे बढ़ा देना मात्र है। अतएव बृहत् तत्त्वकी प्राप्तिमें उन साधनोंका स्थान अतीव तुच्छ या गौण है। कर्म, योग, ज्ञान और उन पथोंका उद्देश्य भक्ति न होनेसे उनमें स्वतन्त्ररूपसे कोई भी फल देनेकी शक्ति नहीं होती । उन-उन साधनोंका चरम उद्देश्य कृष्णभक्ति हो, तो वे कुछ-कुछ गौण यदि फल प्रदान करते हैं। केवल ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती। भक्तिके उद्देश्यसे जो सम्बन्धज्ञान होता है, उसका प्राथमिक फल ही मुक्ति है। भक्ति ही उस ज्ञानके भीतरसे अनायास ही गौण तथा क्षुद्र फलस्वरूप मुक्ति प्रदान करती है। कर्मके सम्बन्धमें यह विचार है कि चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके उपयोगी जिन कर्मोंका शास्त्रोंमें विधान है, उनका ही नाम धर्म है। इसे त्रैवर्गिक धर्म कहा जा सकता है। इस ग्रन्थकी द्वितीय वृष्टिमें त्रैवर्गिक विषयका विवेचन किया जाएगा। उस विषयमें महाप्रभुजीका उपदेश है कि देह-यात्रा, संसार-यात्रा आदिका स्वच्छन्दतासे निर्वाह करते हुए प्रवृत्त पुरुष मुख्य वैध (भक्ति) साधनमें बल प्राप्त करते हैं। अतएव वर्णाश्रमधर्मको कृष्णभक्तिके उपयोगी बनाकर प्रतिपालन करनेके लिए अति प्रवृत्त पुरुषगण ही शुद्धभक्तिके अधिकारी हैं। परन्तु जो लोग भक्तिका आचरण न करके वर्णाश्रमधर्ममें अवस्थित हैं, वे वर्णाश्रमधर्मरूप स्वधर्मका साधन करके भी नरकगामी होते हैं।
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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श्रीकृष्णाक्षर साक्षात् कृष्णवस्तु है
श्रीकृष्णनाम संकीर्तन ही समग्र जगत के मंगल का एकमात्र उपाय है। किन्तु कृष्ण का संकीर्तन होना चाहिए । अपनी सुखसुविधा या दूसरों की सुख सुविधा के लिए जो कीर्तन होता है, वह कृष्णकीर्तन नहीं है।
श्रीकृष्णनाम साक्षात् श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्णाक्षर साक्षात् कृष्णवस्तु है। कृष्णकीर्तन करने पर निर्विशेषवादी की दुर्बुद्धि, नास्तिक की नास्तिकता दूर होने पर उसे यथार्थ मुक्ति प्राप्त हो सकती है। मायावादी प्रकाशानन्द इसके साक्षी हैं । विषयों में अत्यन्त आसक्त व्यक्ति की भी कृष्णकीर्तन द्वारा यथार्थ मुक्ति और मंगल हो सकता है। उत्कल सम्राट प्रतापरुद्र आदि इसके प्रमाण हैं। कृष्णकीर्तन द्वारा पेड़ों की मुक्ति, पत्थरों की मुक्ति, पशु, पक्षी, व्याघ्र की मुक्ति एवं स्त्री, पुरुष आदि समस्त जीवों की मुक्ति हो सकती है। झारिखण्ड वन मार्ग के वृक्षलता, पशु-पक्षी इसके उदाहरण हैं। केवल (शुद्ध) कृष्णकीर्तन नहीं हो रहा है, इसीलिए जीव की यथार्थ मुक्ति नहीं हो रही है। श्रीगौरसुन्दर पशु, पक्षी मानव, पेड़-पौधे आदि सभी के मंगल के लिए इस जगत में आये थे ।
एकमात्र कृष्णकीर्तन से ही हमें समस्त सुविधा सुलभ होगी । कृष्णकीर्तन से ही एकमात्र चरम श्रेयः (कृष्णप्रेम) प्राप्त होता है। लिखाई पढ़ाई और पाण्डित्य का अन्तिम फल है श्रीहरिनाम संकीर्तन ।
भगवान के सुख के लिए जो कीर्तन होता है, वही यथार्थ में कृष्णकीर्तन है। जब कि अपनी या दूसरों की सुख-सुविधा के लिए जो कीर्तन का अभिनय किया जाता है, वह कृष्णकीर्तन नहीं- माया का कीर्तन है। कार्य के द्वारा जिस प्रकार कारण जाना जाता है, उसी प्रकार कोई हरिनाम कर रहे हैं या नहीं, उसका फल देखकर समझा जाता है। हरिनाम करते-करते यदि किसी की संसारिक प्रवृत्ति या संसार के प्रति आसक्ति बढ़ती है, तो उनका कीर्तित विषय हरिनाम नहीं है, अवश्य ही ऐसा समझना होगा। श्रीनामकीर्तन द्वारा संसार के प्रति आसक्ति कटेगी, संसार के असारत्व या तुच्छत्त्व का अनुभव होगा, संसार अच्छा नहीं लगेगा, चित्त निर्मल और स्थिर होगा, अशान्ति या दुःख होगा, प्रेम प्राप्त होगा और चिरशान्ति प्राप्त होगी। परन्तु यदि ऐसा नहीं होता है, तो मैं क्या कर रहा हूँ, वह विचारणीय है।
श्रीलप्रभुपाद
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बैकुण्ठ-पुरुषों का तिरोभाव होने पर भी, वे विग्रह के रूप में नित्य अवस्थित हैं
हम श्रील ठाकुर (श्रीभक्तिविनोद ठाकुर की विरह तिथि) की तिरोभाव-तिथि को सम्मान देने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अभी इस संसार में अवस्थित नहीं हैं, इसीलिए उनके अभाव में हम यहाँ एक स्मृति-सभा का आयोजन कर रहे हैं। “वैष्णवेर गुणगान, करिले जीवेर त्राण।” (वैष्णवों का गुणगान करने से जीवों का उद्धार हो जाता है) – यह बात सत्य है; और यह बात भी सत्य है कि, “अद्यापिह सेइ लीला करे गोराराय।” (आज भी श्रीचैतन्य महाप्रभु वही लीला कर रहे हैं)। इसलिए मेरा कहना है कि, श्रील ठाकुर आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं। हम यहाँ उनके सुसज्जित आलेख्य ‘अर्चा’ रूप दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। वे हमारी अक्षज-धारणा के अन्तर्गत कोई चित्रपट मात्र नहीं हैं- वे स्वयं श्रील भक्तिविनोद ठाकुर हैं। उन्होंने अपने विभिन्न ग्रंथों में हमें बताया है कि, -श्रीविग्रह ही स्वयं वही तत्त्व-वस्तु हैं। इसलिए उनके वाक्य या ‘शब्द’ को प्रमाण के रूप में मानकर मैं कह रहा हूँ कि यह आलेख्य मूर्ति ही वही अप्राकृत श्रीमूर्ति है। जड़विद्या-बुद्धि को पकड़े रहने पर श्रीविग्रह का चिन्मयत्व, नित्यत्व कभी भी अनुभव में नहीं आ सकता है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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श्री विष्णु की सेवा करने की अपेक्षा वैष्णव सेवा करने वालों की महिमा अधिक है
अनन्य श्रीभगवद्भक्त ही श्रीभगवान की कृपा की प्रकाशमूर्ति हैं। अनन्य भक्त की बाहरी कोई भी वर्ण व आश्रम आदि की पहचान नहीं है। वे किसी भी वर्ण या आश्रम में हो सकते हैं तथा उसी वर्ण या आश्रम में रहते हुए भी वे गुणातीत व शुद्धस्वरूप हैं। भक्ति के बिना उस भक्त का जीवन में दूसरा कोई कृत्य नहीं रह सकता। ये भगवद्भक्ति ही अवस्था के अनुसार दया और सेवारूप से प्रकट रहती है। इस प्रकार के एकान्त शुद्ध प्रेमिक भक्त की कृपा ही जगत में श्रीभगवत् कृपा है व उनकी सेवा ही जगत् में साक्षात् भगवत्-सेवा है।
श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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साधन-भक्ति में विधि-निषेधात्मक सदाचार आवश्यक
साधन-भक्ति के सम्बन्ध में विधि-निषेधात्मक सदाचार का पालन अवश्य ही होना चाहिए। कुपथ्य (भक्ति के प्रतिकूल विचारों) का त्याग और सुपथ्य (अनुकूल विचारों) को ग्रहण करके चलना ही दुःसंगवर्जन और सत्संग-ग्रहण की नीति है। वैष्णवगण, साधन-भजन के अनुकूल, विशेष सदाचार का पालन करेंगे और भजन-विरोधी विषय और संग का अवश्य ही त्याग करेंगे। भक्ति प्राप्त करने के लिए ही इस विधि-निषेध की व्यवस्था दी गई है। शास्त्रों में बताये गये श्रवण-कीर्तन आदि भक्ति-अंगों का अनुष्ठान ही वैष्णव सदाचार है। श्रीकृष्ण की स्मृति ही मूल विधि और भगवान् की विस्मृति (भूलना) ही मूल निषेधसूचक वाक्य है। अतः श्रीकृष्ण-स्मृति ही मुख्य सदाचार है। “येन केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्” जिस किसी उपाय से भी हो किन्तु चित्त को भगवान् की ओर उन्मुख करना ही होगा।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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