हृदय से शुद्ध हरिनाम की इच्छा तथा यत्न का होना आवश्यक है
यत्न करि’ कृपा मागि व्याकुल अन्तरे।
तुमि कृपामय कृपा कर अतःपरे ।।
तव कृपालाभे यदि ना करि यतन।
तबे आमि भाग्यहीन हे शचीनन्दन ।।
हरिनाम – चिन्तामणि अलंकार यार।
हरिदास – पदयुग भरसा ताहार ।।
हरिनाम करने में अशेष यत्न की व आग्रह की अति आवश्यकता है।
निष्कपट हरिनाम करने के लिए तो ये बहुत जरूरी है, अन्यथा साधक से अपराध होते रहेंगे।
अतः साधक को चाहिए कि वह भगवान के प्रति व्याकुल हृदय से कृपा माँगता रहे। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभो! आप तो स्वभाव से ही कृपामय हैं, साधक के द्वारा व्याकुल- भाव से प्रार्थना करने पर आप उस पर कृपा कर ही देते हो। ऐसे में हे प्रभु! यदि मैं आपकी कृपा को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न करूँ तो मैं समझूंगा कि हे शचीनन्दन गौरहरि ! स्वयं मैं ही भाग्यहीन हूँ।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ जिनका अलंकार है, उन श्रील हरिदास ठाकुर जी के चरण-कमल ही मेरा भरोसा हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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बद्ध जीव की दुरावस्था
बद्धजीव नाना प्रकार के आकारों में लक्षित होते हैं। ऐसा होने का कारण, जीवोंके अपने-अपने कर्मफल ही हैं। जीवका गठन शुद्ध चित्-तत्त्व से हुआ है। उसके गठन में किसी मायिक गुण या मायिक धर्म का मिश्रण नहीं है। यदि हम ऐसा मान लें कि जीवका गठन मायिक धर्म से हुआ है, तो इस तरह के विचारमें मायावाद स्थान ग्रहण कर लेता है अर्थात् इससे मायावाद स्वीकार का दोष उपस्थित होता है। जीव वास्तव में शुद्ध चित्-वस्तु है तथा चिद्धर्मसे गठित है। तटस्थ-धर्म वशतः जीव मायिक धर्ममें आबद्ध होने योग्य होता है; वह भी केवल उस अवस्थामें ही जब वह कृष्णदास्यरूप अपना स्वधर्म भूल जाता है। शुद्ध जीव की सत्ता, उसका आकार और विकार-सब कुछ चिन्मय होता है। किन्तु जीव अणुचैतन्य होनेके कारण उसकी सत्ता और उसके आकार आदि भी अणु होते हैं। इसलिए जब जीव मायाबद्ध होता है, तब सबसे पहले माया निर्मित मनोमय लिङ्गदेह जीवके शुद्ध आकारको आच्छादित करता है और कर्मक्षेत्रमें उपस्थित होनेपर स्थूलदेह उस लिङ्गदेहको भी ढककर उसे जड़कर्मोंके लिए उपयोगी बना देता है। पर स्मरण रहे कि शुद्धस्वरूप को ऊपर से ढकने वाले स्थूल और लिङ्गशरीर मायिक विकार हैं, आत्मस्वरूप नहीं। परन्तु दोनों में सौसादृश्य है। भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन पाँच मायिक स्थूलतत्त्वोंसे बद्धजीवका स्थूल शरीर गठित होता है तथा मन, बुद्धि. और अहंकार- इन तीन लिङ्गतत्त्वों से लिङ्ग शरीर गठित होता है। इन दोनों आच्छादनोंके दूर होनेपर जीव मायासे मुक्त हो जाता है तथा तब जीवका आत्ममय चित्-शरीर प्रकाशित होता है। मुक्तपुरुष अपने आत्मशरीर की इन्द्रियों से कार्य करते हैं। स्थूलजगतका आहार, विहार, स्त्रीसङ्ग, मलमूत्रत्याग, शारीरिक आघात, पीड़ा और वियोगका क्लेश-वह कुछ भी चित्-शरीरमें नहीं होता। जीव देहात्माभिमानरूप विवर्त्त धर्ममें स्थूलशरीर द्वारा जो कार्य करते हैं, उसे भ्रमसे स्वीकारकर सुख-दुःखका अनुभव करते हैं। मुक्तपुरुषों के सम्बन्धमें और भी एक गूढ़ रहस्य है, वह यह कि मुक्त होनेपर भी जब तक जड़-ज्ञानाभिमान रहता है या जड़-व्यतिरेक निर्वाणबुद्धि रहती है, तब तक भक्तिके उपयोगी भागवती तनु (देह) प्राप्त नहीं होता। भक्त-साधुसङ्गके फलस्वरूप जो गौण मुक्तिदशा उपस्थित होती है, वही शुद्ध भागवती तनुका उदय करा सकती है। ज्ञानी-जनोंके सङ्गसे जो मुक्ति होती है, वह ‘यथार्थ मुक्ति नहीं, बल्कि मुक्तिका अभिमानमात्र है। वह भी जीवोंके लिए केवल एक दुर्गतिमात्र है। यहाँ संक्षेपमें जीवका शुद्धस्वरूप, बद्धस्वरूप और मुक्तस्वरूप-इन विषयोंकी आलोचना की गयी है, जीवके कर्त्तव्याकर्त्तव्यका विचार अन्यत्र किया जाएगा।
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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सब समय साधुसंग में रहना चाहिए
आत्मा की नित्य वृत्ति को जाग्रत कर भगवान की सेवा – प्राप्ति के लिए यत्न करना चाहिए। ब्रजेन्द्रनन्दन की सेवा प्राप्ति के लिए ही सदैव यत्नवान् होना होगा। कृष्ण जिनपर कृपा करते हैं, उनकी भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पत्ति या आश्रय नहीं रहता। जन्म, ऐश्वर्य, श्रुत (पाण्डित्य) और श्री (सौन्दर्य) के गर्व से गर्वित होने से उनकी कृपा प्राप्त नहीं होगी, तब संसार में ही वास होगा।
श्रेयः पन्था में परिचालित होने से प्रेयः पन्था अच्छी नहीं लगती। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति श्रेयः पन्था को ग्रहण कर मृत्युकाल तक सत्संग में भगवान का भजन करते हैं। जगत की सभी वस्तुएँ भगवान की हैं। उसमें लोभ करने से ही असुविधा में हम पड़ जायेंगे। जो भगवान की कथा के श्रवण से विमुख हैं, वे ही संसार में आसक्त या आबद्ध रहते हैं। वे मनोरथ में विचरण कर दुर्दैव में पड़ते हैं।
मैं वैष्णव हो गया हूँ इस प्रकार की दुर्बुद्धि छोड़कर दीन होकर कृपा – प्रार्थना करते-करते सेवा – प्राप्ति के लिए यत्न करना होगा। गुरु – वैष्णव – भगवान की कृपा होने पर ही भगवान की सेवा प्राप्त करूँगा। तब और अहंकार नहीं रहेगा। मानव काम – क्रोध के वशीभूत होकर दाम्भिक होता है। दाम्भिक होने से गुरु-वैष्णवों के चरणकमलों का आश्रय अनावश्यक लगने लगता है। उससे बद्धदशा की फाँसी (पाश) और भी दृढ़बद्ध होती है।
सब समय साधुसंग में रहना चाहिए। सत्संग को छोड़कर हम बच नहीं सकते। सत्संग से अलग रहकर निर्जन में मानसिक चिन्ताधारा को लेकर रहने से प्रभु होने की दुर्बुद्धि प्रबल होती है। तब सावधान नहीं रहने से साधु – गुरु की आज्ञा के अनुवर्ती न रहने से विपद में पड़ जायेंगे । निराश्रय होने पर ही माया उसे पकड़ लेगी – अपना दास बनाकर संसार में घुमायेगी।
श्रीलप्रभुपाद
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प्राकृत – जड़ता प्रबल रहने से तथा दम्भ और मत्सरता के रूप में प्रकट होने पर वैष्णव-पूजन सम्भव नहीं होता। अप्रकटित वैष्णवों की पूजा कभी-कभी तो दाम्भिक लोग भी कर लेते हैं, किन्तु मनुष्य रूपधारी प्रकट वैष्णवों अथवा भगवत्पार्षदों की पूजा मत्सरता के कारण उनके लिए करनी सम्भव नहीं होती। कर्मजड़ स्मार्तगण मन्त्रों के द्वारा श्रीविष्णु का पूजन या श्रीशालग्रामादि का अर्चन करते हैं, किन्तु जब श्रीविष्णु, जीवों पर साक्षात् रूप से कृपा करने के लिये बाहर में मनुष्य रूप धारण कर जगत में अवतीर्ण होते हैं तो एकमात्र निष्किंचन भक्तों के इलावा महा-महापण्डितगण भी उनकी साक्षात् सेवा-पूजा से वन्चित होते हैं। मायिक जड़ता या जड़ प्रतिष्ठा की आकांक्षा ही इस भाव से वन्चित होने का कारण है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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विद्या, धनादि के मद से वैष्णवों को नहीं पहचान सकते
दुनियावी ज्ञान से अर्थात् बाहरी परिचय से वैष्णव का स्वरूप पहचानना असम्भव है । अधिक धन रहने से ही उसकी अधिक वैष्णवता हो, ऐसा नहीं। अधिक लोगों को इकट्ठा कर पाने से ही वे अधिक वैष्णव हो सकेंगे, ऐसा भी नहीं। शास्त्रादि में अधिक पाण्डित्य प्राप्त करने से वे विष्णु भक्त हो जाएँगे, ऐसा भी नहीं। श्रीचैतन्य दासगणों का अधिक धन नहीं भी हो सकता, उनका अधिक लोक-संग्रह नहीं भी हो सकता, उनका अधिक तर्क-वितर्क रूप पाण्डित्य का अधिकार नहीं भी हो सकता किन्तु वे इन सब विषयों से क्यों उदासीन हैं, इसे जानने का अधिकार जनसाधारण का नहीं है अर्थात् वे इसे नहीं समझ सकते। वास्तविकता ये है कि श्रीचैतन्य सेवा को ही वे धन, जन और पाण्डित्य की अपेक्षा अधिक मानते हैं। इसलिए उनका गौरव, महिमा और श्रेष्ठता लोकदृष्टि से देखे जाने की सम्भावना नहीं है।
वैष्णव चिनिते पारे काहार शक्ति।
आछये सकल सिद्धि देखये दुर्गति ॥
खोला बेचा श्रीधर ताहार एइ साक्षी।
भक्तिमात्र निल अष्टसिद्धि के उपेक्षि ॥
यत देख वैष्णवेर व्यवहार दुःख।
निश्चय जानिह सेड़ परानन्द सुख ॥
विषय मदान्ध सब किछुड़ ना जाने।
विद्यामदे धन मदे वैष्णव ना चिने ॥”
(चै.भा.म. 9/238-241)
अर्थात वैष्णव को पहचानने की शक्ति भला किसमें हो सकती है, क्योंकि आठों सिद्धि उनके पास होते हुए भी दुनियावी दृष्टि से उनमें दुर्गति देखी जाती है। केले की सब्जी बेचने वाले श्रीधर इसके जवलन्त प्रमाण हैं। सभी के सामने उन्होंने आठों सिद्धियों को न माँगकर भगवान से भक्ति ही माँगी।
वैष्णवों के जितने भी व्यवहारिक दुःख देखे जाते हैं, उनमें उन्हें दुखी मत समझना, निश्चय जानना कि उन्हें परानन्द सुख की अनुभूति हो रही है। विषयों के मद में अन्धे जीव वैष्णवता के इस रहस्य के बारे में कुछ भी नहीं जानते, और यही कारण है कि विद्या, धनादि के मद से वे वैष्णवों को नहीं पहचान पाते।
श्रीलप्रभुपाद भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर
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विरह के लिए वस्तु का ज्ञान होना आवश्यक
वस्तु के सम्बन्ध में जिसका जितना ज्ञान है, उसका उतना ही विरह जागरूक होता है। वस्तु के ज्ञान का अभाव. रहने पर वहाँ विरह संभव नहीं है। जिसके सम्बन्ध में ‘विरह’, यहाँ उसे ही ‘वस्तु’ कहा जा रहा है, समझना होगा। इसलिए श्रील ठाकुर भक्तिविनोद के सम्बन्ध में वास्तविक ज्ञान नहीं होने पर हमें उनके सम्बन्ध में विरह नहीं होगा। वस्तु-ज्ञान ही मिलन है; वह वस्तु हृदय में प्रतिष्ठित नहीं होने पर, विरह संभव नहीं है। हम उनके संबंध में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकें, इसीलिए हर साल ठाकुर की जीवनी की चर्चा किया करते हैं।
(श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की विरह तिथि पर)
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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औषधि रूप से नहीं, केवल निवेदित तुलसी ही मात्र ग्रहणीय
तुलसी-श्रीभगवान् की प्रेयसी सेविका हैं। अतः उन्हें भगवान् की सेवा में लगाने का अधिकार, हमें है। श्रीकृष्ण-पादपद्म में अर्पित होने पर ही तुलसीरानी संतुष्ट होती हैं। श्रीभगवान् को निवेदित की हुई तुलसी ही भक्त ग्रहण कर सकते हैं। कोई भी अनिवेदित वस्तु भक्त के लिए ग्रहण योग्य नहीं है। इसीलिए सखा उद्धव ने श्रीकृष्ण से कहा, “त्वयोपभुक्त-स्त्रक्-गंध-वासालंकार-चर्चिताः। उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि।।” (हे भगवन्! हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं। आपके प्रदत्त निर्माल्य, वस्त्र, गन्ध, अलंकार, आदि को ग्रहण करते-करते हम आपकी माया पर अवश्य ही विजय प्राप्त करेंगे)। अम्बरीष महाराज के आचरण के सम्बन्ध में भागवत में लिखा गया है- “श्रीमत्तुलास्यां रसनां तदर्पिते।” अर्थात् श्रीकृष्ण को समर्पित तुलसी को ही वे ग्रहण करते थे। आयुर्वेद आदि शास्त्रों में औषधि-वृक्ष का निर्यास (निचोड़), रोग-निवारक औषधि के रूप में निर्दिष्ट होने पर भी एकनिष्ठ भगवद् भक्तगण अनिवेदित तुलसी का रस या ‘ossimum sanctum’ कभी भी ग्रहण नहीं करते हैं या नहीं करेंगे। श्रीतुलसी-वृक्ष रूपी अर्चावतार हैं, इसीलिए यह विशेष विधान है। भगवान् का चरणामृत या भक्त का चरणामृत भी विशेष लाभदायक है। श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है- “भक्तपदधूलि आर भक्तपदजल। भक्तभुक्तशेष एइ तिन साधनेर बल।। (भक्त के चरणों की धूलि और भक्त के चरणों का जल, भक्त का प्रसाद- ये तीन साधन के बल हैं)। श्रीतुलसी जी के स्नान का जल पान करने से भी भक्ति लाभ होती है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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