आलस्य रूपी रुकावट के लक्षण

मने ह ‘बे आहा कबे इँहार समान।
स्मरिव गाइव नाम ह’ये भाग्यवान् ।।

सेइ त’ उत्साह आसि’ अलसेर मने।
जाड्य दूर करे कृष्णनामेर स्मरणे ।।

मने ह ‘बे आज लक्ष नाम ये करिव ।
क्रमे क्रमे तिन लक्ष नाम ये स्मरिव ।।

महाग्रह ह ‘वे चित्ते नामेर संख्याय।
अचिरे याइवे जाड्य साधुर कृपाय ।।

हरिनाम की साधना में आलस्य के कारण भी रुचि नहीं होती। भगवद् – स्मरण के समय यदि ये आलस्य आ जाये तो साधक के इस दोष के कारण भी साधक के हृदय में हरिनाम-रस प्रकाशित नहीं होता। दुनियाँ के फालतु कार्यों में जैसे उनका समय बरबाद न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए भगवान के भक्त लोग हर समय भगवान का नाम करते रहते हैं परन्तु साधक के जीवन में ये सब तभी होता है जब उसे ऐसे साधु की संगति मिले जो हर समय हरिनाम का स्मरण करता रहता है व हर समय ही हरिनाम के रस में डूबा रहता है तथा साथ ही वह साधु, हरिनाम के इलावा और कुछ चाहता ही नहीं।

साधक को चाहिए कि ऐसे दुर्लभ साधु की खोज करके उसकी संगति में उठे-बैठे। सच्चे साधु के आदर्श चरित्र को देखकर वैसा आचरण करते रहने से साधक का चित्त आलस्य का परित्याग कर देता है। स्वभाव से ही अच्छे साधु अपने अनमोल समय को व्यर्थ नहीं गँवाते हैं। अतः साधु का ये आदर्श देखने से ये निश्चित है कि साधक की रुचियों में भी उसी प्रकार का बदलाव आता रहेगा। यही नहीं, साधु का वह सुन्दर आदर्श देखकर साधक के मन में भी आता है कि कब में भी इनकी तरह बन पाऊँगा। कब मेरे जीवन में ऐसा सौभाग्य उदित होगा जब मैं भी इन साधु-भक्तों की तरह हृदय में भगवान का स्मरण करूँगा व मुख से भगवान का नाम कीर्तन करूँगा? साधक का यही उत्त्साह, उसके आलस्य को खत्म करके उससे निरन्तर श्रीकृष्ण – स्मरण करवायेगा। वह स्वयं मन ही मन में यह धारणा बनाने लगता है कि आज मैं एक लाख हरिनाम करूँगा और धीरे धीरे मैं प्रतिदिन तीन लाख किया करूँगा। भक्तों के बढ़िया आचरण को देखकर साधक के मन में हरिनाम की निश्चित संख्या करने का व उस संख्या को लगातार बढ़ाने का आग्रह पक्का होता रहता है और उसे मालूम भी नहीं पड़ता कि साधु भक्तों की कृपा से बड़ी जल्दी उसके अन्दर भरा आलस्य भाग गया होता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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शास्त्रे फल-श्रुति यत, सेइ लोभे कतशत,
मूढ़जन भोग प्रति धाय।
से सब कैतव जानि’, छाड़िया वैष्णव-ज्ञानी,
मुख्यफल कृष्णरति पाय ॥

शास्त्रों में वर्णित पुण्य कर्मों के आकर्षक परिणामों से वशीभूत, असंख्य मूर्खजन भौतिक सुखों के पीछे भागते हैं। परन्तु एक बुद्धिमान वैष्णव भौतिक आनन्द को कपट से परिपूर्ण जानकर त्याग देता है। इसके स्थान पर वह कृष्ण से आसक्त होता है, जो वैदिक ज्ञान का वास्तविक फल है।

कल्याण कल्पतरु
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हमारे लिए श्रीकृष्ण की अपेक्षा गुरु की प्रयोजनीयता अधिक है

गुरु एवं वैष्णव अप्राकृत श्रीमन्दिर हैं। भगवान जहाँ-तहाँ पर प्रकाशित नहीं होते। वे गुरु एवं वैष्णवों के हृदय में ही अपने को प्रकाशित करते हैं। अनेक लोग भगवान का दर्शन करना चाहते हैं, किन्तु वे यह नहीं जानते कि गुरु के दर्शन से ही भगवान का दर्शन होता है। यदि श्रीगुरुपादपद्म नामक कोई वस्तु न रहे, तो भक्ति प्रारम्भ ही नहीं होती । गुरु ही कृष्ण के श्रीचरणकमलों के दर्शन में योगसूत्र हैं। कृष्ण अपने सबसे श्रेष्ठ सेवक या श्रेष्ठ वैष्णव को इस जगत में भेजकर जिस अपार करुणा का परिचय देते हैं, उस करुणाशक्ति के मूर्तविग्रह ही श्रीगुरुपादपद्म हैं।

श्रीगुरुदेव हमारे परम – आत्मीय हैं। इसलिए केवल सम्भ्रमपूर्वक केवल दूर रहकर कर्तव्यबुद्धि से गुरुसेवा करने से नहीं होगा, विश्रम्भपूर्वक अर्थात् दृढ़ विश्वास एवं प्रीतिपूर्वक गुरुसेवा करनी होगी। तभी मंगल होगा। हमारे लिए श्रीकृष्ण की अपेक्षा गुरु की प्रयोजनीयता अधिक है। श्रीगौरांगदेव समस्त गुरुओं के भी गुरु हैं। उन्होंने बताया है कि गुरु भगवान से अभिन्न होने पर भी भगवान के भक्तों में प्रधान हैं। उन भक्तराज कृष्णप्रेष्ठ गुरु को त्यागकर भगवान की सेवा नहीं होती । गुरुसेवा के अतिरिक्त जीव के मंगल का अन्य कोई उपाय नहीं है।

श्रीलप्रभुपाद
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शरणागति

जिन सब विषयों की हमारी इन क्षुद्र-इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि न हो तो उनका अस्तित्त्व हम नहीं मानेंगे, क्या हमारी यह बात युक्तिसिद्ध होगी?

एक-एक प्रकार के विषय को समझने के लिये एक-एक प्रकार की योग्यता की आवश्यकता होती है। जब तक वह अधिकार या योग्यता अर्जित न हो, तब तक हम उस वस्तु के विषय में ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि हम बहुत प्रकार की भाषा जानने पर भी यदि उर्दू भाषा न जानते हों तो दूसरी भाषाओं के ज्ञान के द्वारा उर्दू भाषा नहीं समझी जा सकती। आँखें रहने पर भी उर्दू भाषा की शिक्षा रूपी पृथक् अधिकार या योग्यता अर्जन न करने से जिस प्रकार उर्दू भाषा का रूप और शक्ति अर्थात् अर्थ हृदयंगम नहीं होता, उसी प्रकार परमेश्वर की उपलब्धि के लिये जो अधिकार या योग्यता चाहिये, वह अर्जित न होने तक जितनी प्रकार की भी दुनियावी योग्यता या ज्ञान क्यों न रहें हम उसे समझने अथवा उसकी उपलब्धि करने में समर्थ नहीं होते हैं। परमेश्वर स्वतः- सिद्ध तत्त्ववस्तु होने के कारण उनमें शरणागति बिना, उनकी कृपा बिना कोई भी उनको जानने व अनुभव करने में समर्थ नहीं होता है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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भगवद् सेवा के लिए एक कौड़ी जैसा उपकरण भी लाखों भगवद्-विमुख जीवों से श्रेष्ठ

श्रील प्रभुपाद, उन्होंने फरीदपुर (वर्तमान बंगलादेश स्थित) ज़िले के बहरमगंज में हजारों लोगों के सामने विशाल सभा में प्रवचन करते हुए कहा था कि, मैं भगवान की एक कौड़ी की रक्षा करने के लिए लाखों अनर्थ-ग्रस्त जीवों के विनाश-साधन को प्रश्रय दे सकता हूँ।’ यह आज से 32 साल पहले की बात है। उस समय यह सुनकर दिल आंदोलित हो उठा था। जिन महापुरुष ने आजीवन शाकाहार आहार करते हुए समस्त जीवों को अप्राकृत अहिंसा-नीति में प्रतिष्ठित करने का व्रत लिया हुआ है, उनके मुख से आज सार्वजनिक सभा में यह मैंने क्या सुना ! उस समय यह बात बहुत Revolting (आंदोलनकारी) लगी थी-किन्तु वास्तव में यही समस्त वेद-वेदान्त-उपनिषदों का सार शिक्षा-स्वरूप महावाक्य है।

हम गणित शास्त्र में देखते हैं कि, – Plus one is greater than minus any large amount or infinity अर्थात् minus power की संख्या यदि करोड़ों में भी हो फिर भी वह ‘+1’ की अपेक्षा बहुत नीचे की संख्या है। इसी प्रकार मायिक जगत्- ‘असत्’ अर्थात् अनित्य या अभाव के द्वारा निर्मित है; इसलिए यह हमेशा ही minus power है। दूसरी ओर अपार्थिव ‘जगत् (दिव्य) पूर्ण है; उस स्थान में बालू का एक कण भी पूर्ण-स्वरूप है-उसमें किसी प्रकार का मायिक भाव तथा अभाव प्रवेश नहीं कर सकता है। इसीलिए हरि-गुरु-वैष्णवसेवा की एक कौड़ी भी पूर्ण वस्तु है और वह जगत में भगवत्-सम्बन्धहीन लाखों प्राणियों से कई गुणा श्रेष्ठ है। यही शिक्षा श्रील प्रभुपाद के अतिमत्त्र्त्य जीवन-चरित्र में प्रकाशित हुई है। इस जगत में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। जहाँ किसी साम्राज्य का सम्राट अपनी किसी मनमर्जी को पूरा करने के लिए लाखों सैनिकों की बलि चढ़ाने से भी हिचकिचाये न हों। सम्राट की इस प्रकार की इच्छाओं को पूरा करना ही सेनापति-सेनाओं के बलिदान का कारण बन जाता है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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बुद्धिमत्तापूर्वक सेवा

श्रील प्रभुपाद के निशिकान्त सन्याल नामक एक शिष्य थे, जो कटक के रॉवेनशॉ महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। अपने पूरे परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी श्रीसन्याल पर ही थी। तब भी वे अपना सम्पूर्ण मासिक वेतन श्रील प्रभुपाद को समर्पित कर देते थे, जबकि श्रील प्रभुपाद ने उनसे कहा था-“यदि तुम इस प्रकार से अपना पूरा वेतन मुझे प्रदान करते रहोगे तब तुम्हारे परिवार का निर्वाह कैसे होगा? अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये कुछ बचाकर रखने से अच्छा है।”

श्रीसन्याल के परिवार के प्रति अकृत्रिम चिन्ताविशिष्ट श्रील प्रभुपाद ने श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ( संन्यास ग्रहण करने से पूर्व श्रील भक्त्यालोक परमहंस महाराज का नाम श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी था) को कहा, “चूँकि निशिकान्त सन्याल अपना समस्त वेतन हमें समर्पित कर रहा है, इसलिये उसके परिवार की देखरेख का दायित्व हमारा है। मैं चाहता हूँ कि आप उनके परिवार के निर्वाह का सम्पूर्ण प्रबन्ध कर दिया करें।” श्रील प्रभुपाद के आदेश पर श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने कई वर्षों तक श्रीसन्याल के परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यवस्था की। उन्हें जिस किसी भी वस्तु की आवश्यकता थी जैसे कि शिक्षा, उनकी सन्तानों के विवाह इत्यादि, सब कुछ उनके द्वारा व्यवस्थित किया गया।

बाह्यदृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब व्यवस्थाएँ करना असङ्गत है। एक गृहस्थ परिवार की आवश्यकताओं को देखना त्यागी व्यक्ति का कर्त्तव्य नहीं है तथा उसे सदैव श्रीहरि-गुरु-वैष्णव की सेवा में नियुक्त रहना चाहिये। तथापि इस परिस्थिति में दो विचार हैं। प्रथम, श्रील प्रभुपाद की ओर से उन्हें उस परिवार की देखरेख का प्रत्यक्ष आदेश था और गुरु के आदेश का पालन करने में कोई दोष नहीं होता, बल्कि गुरु का आदेश पालन करना ही शिष्य का कर्त्तव्य है। द्वितीय, श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने बुद्धिमत्तापूर्वक सब कुछ इस प्रकार से व्यवस्थित किया कि उन्हें इन सेवाओं के लिये कभी भी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने सेवाओं के दायित्व को भिन्न-भिन्न लोगों में कुछ इस प्रकार विभाजित कर दिया कि उन्हें एक बार भी परिवार को देखने नहीं जाना पड़ा।

श्रील भक्त्यालोक परमहंस महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज द्वारा सञ्चित
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श्रील केशव गोस्वामी महाराज जी से उदारता-शिक्षा की पूर्वस्मृति

तुम लोगों से मुझे कुछ नहीं चाहिए। पार्थिव (जागतिक) लेनदेन का सम्पर्क मेरे साथ नहीं रखने पर ही मुझे प्रसन्नता होगी। जीवन में निःस्वार्थ भाव से लोगों का उपकार करना ही मेरी इच्छा है; इस प्रवृत्ति को परम उदार श्रीगुरुपादपद्म से ही प्राप्त किया है। उनकी त्याग और उदार नीति ने मुझे स्तंभित कर दिया है और उनके चरणों में आश्रय प्रदान किया है। उनके सतीर्थ और शिष्य वात्सल्य ने मुझे अवाक् (मूक) कर दिया है। निःसंकोच ही उन्होंने अभावग्रस्त (ज़रूरतमंद) प्रार्थी को हज़ारों रुपये दिये, उधार के रुप में दिये जाने पर भी वे इस अधम को उन्हें खर्च के रूप में लिखने का निर्देश दिया करते थे। कहते थे- दायें हाथ से लोगों को जो दोगे, बाएँ हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। मैंने ऐसे परम मुक्तपुरुष नित्यसिद्ध महात्मा का सान्निध्य लाभ करने का सुयोग और सौभाग्य प्राप्त करने के बाद भी कर्मफल के कारण उस ‘कृतिरत्न’ (श्रीश्रीमद् भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज जी को श्रीश्रील सरस्वती प्रभुपाद जी द्वारा प्रदत्त उपाधि) को खो दिया है। Mission में मेरा personal विषय एक ही है- वह है अपना भजन-साधन। उससे यदि मैं विच्युत हो जाता हूँ, तो फिर “सकलेर तरे सकले आमरा, प्रत्येके आमरा परेर तरे” (सबके लिए हम सब हैं, प्रत्येक हम दूसरों के लिए) इस नीति से पतित हो जायेंगे। गुरुकृपा के बल पर मैं सभी गलत धारणाओं से परे था, हूँ और रहूँगा भी। तुम्हें मानसिक सांत्वना मिलने पर ही मैं निश्चिन्त हो सकूँगा।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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