प्रमाद-नामक अपराध
हरिदास बले प्रभु, हेथा सनातने।
आर त’ गोपाल भट्ट दक्षिण- भ्रमणे ।।
शिरखाइले अप्रमादे श्रीकृष्णभजन ।
प्रमादके अपराधे करिले गणन ।।३ ।।
अन्य अपराध त्यजि’ सदा नाम लय ।
तबु नामे प्रेम नाहि हयत उदय ।।
तबे जानि ‘प्रमाद’ नामेते अपराध ।
प्रेमभक्ति – साधनेते करितेछे बाध ।।
श्रीमन् महाप्रभु जी को श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे प्रभु! आपने यहाँ श्रीजगन्नाथ पुरी में सनातन गोस्वामी जी को एवं दक्षिण भारत भ्रमण ‘के समय गोपाल भट्ट गोस्वामी जी को प्रमाद रहित श्रीकृष्ण – भजन करने की शिक्षा दी थी। आपने नामपराध के अन्तर्गत प्रमाद की गिनती की थी। इस नामापराध के बारे में बोलते हुए आपने कहा था कि अन्य अन्य नामापराधों को छोड़कर यदि कोई साधक हरिनाम करता है और उसके हृदय में श्रीकृष्ण – प्रेम उदित नहीं होता, तब समझना होगा कि “प्रमाद” रूपी अपराध हो रहा है जिसके कारण प्रेम भक्ति की साधना में बाधा उत्पन्न हो रही है।
असावधानी को ही प्रमाद कहते हैं
प्रमाद – अनवधान एइ मूल अर्थ।
इहा हैते घटे प्रभु सकल अनर्थ ।।
औदासीन्य, जाड्य आर विक्षेप ए तिन।
प्रकार अनवधान बुझिबे प्रवीण ।।
प्रमाद का मुख्य अर्थ असावधानी ही है। इसी से सारे अनर्थ उदित होते हैं। विद्वान – वैष्णव लोग कहते हैं कि प्रमाद भी तीन प्रकार के होते हैं-साधन – भजन में उदासीनता अर्थात् निष्ठा का अभाव, आलस्य तथा दूसरी ओर मन का जाना।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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गृहसेवा को भगवान की सेवा मानकर भूल मत करना
हे जीव, हरिसेवा के नाम पर अपना इन्द्रियतर्पण मत करो । याद रखो कि कृष्ण के इन्द्रियतर्पण का नाम ही सेवा है। जिस कार्य से तुम्हारा इन्द्रियतर्पण हो या तुम्हारे बहिर्मुख आत्मीय स्वजनों का सुख हो, उस कार्य को करने का नाम सेवा नहीं है। उसे सेवा मानने का अर्थ है अपने को वञ्चित करना । गृहसेवा को भगवान की सेवा मानकर भूल मत करना । भगवान का आश्रय ग्रहण करो, माया की सेवा में और समय नष्ट मत करो। क्योंकि माया की सेवा करने से तुम्हारा कल्याण तो होगा ही नहीं, अपितु दिन-प्रतिदिन तुम्हारी संसार में आसक्ति बढ़ती ही जाएगी, जिसके फलस्वरूप तुम्हें भगवान की प्राप्ति नहीं होगी । तुम भगवान के लिए व्यस्त हो जाओ, तभी तो भगवान को पाओगे। इसीलिए कह रहा हूँ-चतुर बनो, समस्त बहिर्मुख लोगों की वञ्चनाकर कृष्ण की सेवा करो तभी श्रीगुरु- गौरांग तुम पर प्रसन्न होंगे ।
श्रीलप्रभुपाद
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गुरु महाराज (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी मगराज) के प्रति उनका विनययुक्त विश्वास
श्रील भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज स्वाभाविक दीनता से अलंकृत थे। अत्यधिक ज्येष्ठ होने पर भी उनका गुरु महाराज के प्रति प्रीति तथा विश्वासपूर्ण सम्बन्ध था। श्रील अरण्य गोस्वामी महाराज अपने अनेक त्यागी आश्रितजनों को हमारे गुरु महाराज के पास श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में भेजते थे तथा किसी से लिखवाकर कहलवाते थे, “मैं अपने अमुक शिष्य को गौड़ीय-विचारधारा में निष्णात होने के लिये आपके पास भेज रहा हूँ। कारण, आपके अथवा आपके आश्रित जनों के साथ रहकर सीखने का बहुत सुयोग है। मैं किसी को अपने निकट रखकर कुछ सिखा नहीं पाता अतएव आप द्वारा इस दायित्व को ग्रहण करने से मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।”
श्रीमद्भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज
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दोषों को अनदेखा कर गुणों को देखना
एक समय श्रील भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज ने मुझे हमारे गोकुल स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में होने वाली पारमार्थिक गतिविधियों के विषय में एक रिपोर्ट लिखने के लिये कहा। उस समय मैं गोकुल मठ में ही था। वह लेख श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की मासिक पत्रिका ‘श्रीचैतन्य-वाणी’ में प्रकाशित होना था। यद्यपि मुझे इससे पूर्व पत्रिका के लिये लेख लिखने का कोई भी अनुभव नहीं था, तब भी श्रील पुरी गोस्वामी महाराज की आज्ञा को गुरु आज्ञा से अभिन्न मानकर मैंने उसका पालन किया।
मैंने उन्हें रिपोर्ट तो लिखकर भेजी ही, साथ में यह निवेदन भी संलग्न किया, “श्रील महाराज जी, मुझे तो लिखने का बिल्कुल अभ्यास नहीं है इसलिए मुझसे जैसा बन पड़ा, मैंने वैसा लिखकर भेज दिया है। किन्तु मेरी प्रार्थना है कि आप स्वयं इसमें से जो स्वीकार योग्य हो उसे स्वीकार करके बाकी को छोड़ दीजियेगा।” जब उन्होंने उस रिपोर्ट को ‘श्रीचैतन्य वाणी’ पत्रिका में प्रकाशित किया, तब मैंने देखा कि उन्होंने उसमें से एक अक्षर को भी इधर-से-उधर नहीं किया, यथारूप प्रकाशित कर दिया।
उसके पश्चात् जब मेरी उनसे भेंट हुयी तब उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हारी भाषा साहित्यिक है। मुझे उस प्रबन्ध में कुछ भी ऐसा दिखलायी नहीं दिया, जिसे हटाने की आवश्यकता हो।”
उनकी बात सुनकर मुझे श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा श्रीगोविन्द देव मन्दिर के पुजारी, श्रीहरिदास पण्डित के विषय में श्रीचैतन्यचरितामृत (आदि-लीला ८.६२) में वर्णित ‘वैष्णवेर गुणग्राही, ना देखये दोष अर्थात् वे वैष्णवों के गुणों को ही ग्रहण करते थे, किसी में दोष नहीं देखते थे’ वाणी स्मरण हो आयी। वास्तव में यह श्रील पुरी गोस्वामी महाराज का एक विशेष गुण था। केवल एक बार नहीं, बल्कि मुझे पुनः पुनः उनके इस गुण को देखने का अवसर प्राप्त हुआ।
श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज जी द्वारा सञ्चित
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आस्तिक, नास्तिक सभी ईश्वर को मानते हैं
यदि कोई कहे कि मैं भगवान को ही नहीं मानता हूँ इसलिये उनकी प्राप्ति के उपाय के सम्बन्ध में आलोचना निरर्थक है तो उसके उत्तर में कहा गया है कि ईश्वर को मानना सभी जीवों में स्वतः सिद्धरूप से है। आस्तिक, नास्तिक सभी ईश्वर को मानते हैं। जहाँ पर ईशिता या ऐश्वर्य है, वहाँ पर स्वाभाविक रूप से सभी झुकते हैं। छोटे से छोटे प्राणी भी ईश्वर को मानते हैं। अपनी व्यवहारिक ज़िन्दगी में ईश्वर को हम सभी मानते हैं, इसलिये परमेश्वर मानने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है, बल्कि भगवान को मानना अधिक समझदारी की बात है। आग को न मानने से आग का कोई नुकसान नहीं है; दूसरी ओर आग को मानने से आग के द्वारा अनेक प्रकार के कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं, इसलिये जो भगवान को मानता है, उसका ही लाभहै। यह अधिक बुद्धिमानी का परिचायक है।
छोटे-छोटे ईश्वरों को हम देख सकते हैं, इसलिये मानते हैं; परमेश्वर को देखा नहीं जाता, अतएव हम नहीं मानते। यदि इस प्रकार तर्क हो तो उसका उत्तर यह है कि अपनी सीमित ताकत वाली क्षणभंगुर इन्द्रियों के द्वारा हम कितनी उपलब्धि कर सकते हैं। जिन सब विषयों की हमारी इन क्षुद्र-इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि न हो तो उनका अस्तित्त्व हम नहीं मानेंगे, क्या हमारी यह बात युक्तिसिद्ध होगी?
एक-एक प्रकार के विषय को समझने के लिये एक-एक प्रकार की
योग्यता की आवश्यकता होती है। जब तक वह अधिकार या योग्यता अर्जित न हो, तब तक हम उस वस्तु के विषय में ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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गुरुसेवा के बदले उत्साह पाने के नाम पर, प्रतिष्ठा की कामना-गुरुसेवा या शरणागति का लक्ष्ण नहीं
हमने कई बार देखा है कि, -कई लोग लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा की कामना करते हुए पाठ, कीर्तन, भाषण, प्रबंध आदि-लेखन, ग्रंथों का प्रकाशन आदि कार्यों में बहुत उत्साह दिखाते हैं। यदि कुछ पाने की संभावना या प्रशंसा-स्वरूप प्रतिष्ठा भी न मिले तो हमसे और गुरुसेवा नहीं हो पाती है। हम हमेशा ही गुरुदेव के पास उत्साह पाने के नाम पर प्रतिष्ठा की कामना किया करते हैं। यह वास्तविक गुरुसेवा और शरणागति का लक्षण नहीं है।
गुरुदेव में जो जितने तक आसक्त हैं, वे उतने ही गुरुसेवक हैं। हम महाजन-पदावली में देखते हैं- “विषये जे प्रीति एवे आछये आमार। सेइमत प्रीति हउक् चरणे तोमार।” (अर्थात् धन-सम्पत्ति विषयादि में मेरी जितनी प्रीति है, उतनी प्रीति तुम्हारे चरणों के प्रति भी हो।) मायिक विषयों को अपना समझकर उसके प्रति इतना आसक्त हो जाते हैं कि, उनसे एक क्षण भी दृष्टि हटाने पर कष्ट का बोध होता है। हरि-गुरु-वैष्णवों की सेवा की वस्तुओं के प्रति ‘अपनापन’ न रहने से भगवान की कृपा प्राप्त करने की सम्भावना कहाँ है? ‘हरि-गुरु-वैष्णवों की व्यवहार की वस्तुएँ नष्ट होती हैं तो हो जायें लेकिन मेरी चीज़ ठीक रहे’- इस प्रकार की बुद्धि सेवा-बुद्धि नहीं है। जगत की सभी वस्तुएँ भले ही ध्वंस हो जाएँ परन्तु हरि-गुरु-वैष्णव सेवा की वस्तुओं को कणमात्र भी मैं ध्वंस नहीं होने दूँगा-यही है असली सेवक का लक्षण ।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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निष्कपटता ही साधन-पथ का मूल अवलम्बन
तुम निष्कपट भाव से भजन पथ पर अग्रसर होते रहो; सेवा में अधिकार तुम अवश्य ही लाभ करोगे। तुम्हारे Spiritual Guide (पारमर्थिक पथप्रदर्शक) के आशीर्वाद से तुम कभी वंचित नहीं होओगे, यही मेरा स्नेहाशीष है। सरलता या निष्कपटता ही साधन पथ का मूल अवलम्बन है, उसमें गुरु-वैष्णवों की कृपा साथ में जुड़ने से ही सेवा आरम्भ होती है। सेवा-नित्य, शाश्वत और गतिशील है। सेवा की वृत्ति या भक्ति के द्वारा ही सबकुछ सहज प्राप्त किया जा सकता है। वास्तविक साधक-साधिकाओं को भक्ति के अलावा अन्य किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं रहती है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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वैष्णव-चरण-जल, प्रेम-भक्ति दिते बल
आर-केह नाहे बलवन्ता
वैष्णव चरण रेणु, मस्तके-भूषण बिनु
आर नाहि भूषणेर अंत
ऐसे वैष्णव के चरण-प्रक्षालन का जल शक्तिशाली होता है। वह आपको प्रेम भक्ति प्रदान कर सकता है। कुछ भी इतना शक्तिशाली नहीं है जितना ऐसे वैष्णव के पाद-प्रक्षालन का जल शक्तिशाली होता है। ऐसे वैष्णव के चरण कमलों क धूल भी बहुत शक्तिशाली होती है। यदि आप ऐसे वैष्णव के चरण कमल की धूल लेकर अपने मस्तक पर लगाते हैं तथा पूरी देह पर इस धूल का लेप करते हैं तब आपकी संपूर्ण देह आभूषण द्वारा अलंकृत हो जाती है। इस आभूषण की किसी अन्य आभूषण से तुलना नहीं की जा सकती है।
(ठाकुर वैष्णव-पद, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर)
वन्दे गुरौः श्रीचरणारविन्दम्
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