कालिदासे एइरूपे दुष्कृति – खण्डन।
पुनः तव कृपाप्राप्ति गाय जगजन ।।
आमि जड़बुद्धि नाथ, एकमात्र गाइ।
नाम – चिन्तामणि – तत्त्व कभु नाहि पाइ।।
वैष्णव – अपराध रूपी दुष्कृति के कारण यदि किसी साधक की अन्य शुभकर्मों के साथ श्रीहरिनाम में समबुद्धि होती है तो उस साधक को चाहिए कि वह उस दुष्कृति को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयत्न करे, तभी उस साधक की हरिनाम के प्रति शुद्ध बुद्धि होगी और उसे श्रीकृष्ण – प्रेमधन की प्राप्ति होगी। नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि – हे प्रभो ! चारों वर्णों से बाहर यदि अन्त्यज जाति का गृहस्थी भी शुद्ध नाम – परायण हो तथा कोई पवित्र भाव से उसकी चरण रज लेकर अपने शरीर पर लगाये, उसका झूठा प्रसाद सेवन करे तथा उसके चरणों का जल पान करे तो ऐसा करने से उसकी आपके शुद्ध – हरिनाम में निर्मल मति हो जाएगी। बहुत से भक्तों का कहना है कि इसी प्रकार से श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पार्षद श्रील कालिदास जी की दुष्कृतियों की समाप्ति हुई थी और उन्हें पुनः भगवान की कृपा प्राप्त हुई थी।
बड़ी दीनता के साथ श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि – हे प्रभु! मैं जड़बुद्धि हूँ और एकमात्र आपका ही नाम-कीर्तन करता हूँ परन्तु अभी तक नाम – चिन्तामणि तत्त्व को प्राप्त नहीं कर पाया।
श्रीहरिदास ठाकुर जी की हरिनाम में निष्ठा
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि- हे महाप्रभु! मैं आपके चरणों में यही प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा करके हरिनाम के रूप में मेरी जिह्वा पर नृत्य करते रहना। आप मुझे इस संसार में रखो या अपने धाम में, जहाँ आपकी इच्छा हो वहीं मुझे रखो परन्तु मुझे कृष्णनामामृत का अवश्य पान कराते रहना। जगत् के जीवों को हरिनाम देने के लिए ही आपका अवतार हुआ है और नाम ग्रहण करने वालों में से मैं भी एक हूँ, इसलिए प्रभु! मुझे अवश्य ही अंगीकार करना। मैं तो अधम हूँ परन्तु आप तो अधम- तारणहार हैं।
हे पतितपावन! हम दोनों का सम्बन्ध भी बड़ा विचित्र है। मेरा और आपका सम्बन्ध कभी टूटने वाला नहीं है क्योंकि मैं अधम हूँ और आप अध म-तारण हो। आपसे मेरा नित्य-सम्बन्ध है, इसीलिए मैं आपसे हरिनामामृत प्रदान करने की प्रार्थना करता हूँ।
कलियुग में हरिनाम ही युग-धर्म क्यों हुआ
कलियुगे सुदुःसाध्य अन्य शुभकर्म।
अतएव नाम आसि’ हइल युगधर्म ।।
हरिदास – दास भक्तिविनोद से जन।
हरिनाम – चिन्तामणि गाय अकिन्चन।।
कलियुग में दूसरे सभी शुभ कार्य दुःसाध्य से हो गये हैं, अतः जीव पर करुणा करने के लिए हरिनाम ही युगधर्म के रूप में प्रकट हुआ है।
श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी के जो दास हैं तथा जो भगवद्-भक्ति का रसास्वादन करते हैं, वे अकिंचन ही ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ का गान करते हैं।
श्रीहरिनाम चिंतामणि
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साधु संग , हरिकथ श्रवण तथा हरि गुरु- वैष्णवों की सेवा से उदासीन रहने पर शुद्ध-नाम नहीं होगा
मंगलाकांक्षी साधक श्रीनाम के चरणकमलों में स्वयं को अर्पण कर देते हैं। वे दृढ़तापूर्वक जानते हैं कि श्रीनामसंकीर्तन ही सर्वार्थसिद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। जिस दिन हमारी मन्त्रसिद्धि होगी, उसी दिन हमारे मुख में सदैव ही हरिनाम नृत्य करता रहेगा।
जो कृष्णकीर्तन करते हैं, ऐसे मठवासी भक्तों की सेवा से विमुख होकर भजन का अभिनय करने पर हमारा मंगल नहीं होगा। आदरपूर्वक मठवासी भक्तों की सेवा करने पर ही श्रीनामकीर्तन में अधिकार प्राप्त हो सकता है, नाम – भजन में रुचि बढ़ेगी। किन्तु ऐसा न कर यदि हम अपने आत्मीय-स्वजनों की सेवा में ही लगे रहेंगे, तो हरिनाम नहीं होगा। किन्तु गृहस्थ भक्त यदि साधुसंग एवं भजन के प्रभाव से कर्ता अभिमान और गृहासक्ति से मुक्त होकर घर में वास कर सकते हैं, तथा घर में रहने वाले लोगों को एवं समस्त वस्तुओं को अपने भोग की वस्तु न समझकर भगवान की सेवा की वस्तु समझ सकें, तो उनका भी मंगल होगा।
साधुसंग में ही हरिनाम होता है। असाधुओं के संग में हरिनाम नहीं होता। साधुसंग, हरिकथा श्रवण तथा हरि गुरु- वैष्णवों की सेवा से उदासीन रहने पर नाम नहीं होगा। इसलिए गृहस्थ हो या मठवासी, सभी के लिए इन तीन विषयों में चेष्टारत रहना आवश्यक है। तभी मंगल हो सकता है, हरिनाम में रुचि हो सकती है, चेतन का उन्मेष होगा, अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ जाएगा।
श्रीलप्रभुपाद
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विरह में सेवा
श्रीनरोत्तमानन्द ब्रह्मचारी (श्रीमद्भक्तिकमल मधुसूदन गोस्वामी महाराज) के अंग्रेजी भाषा में विशेष अधिकार तथा सम्वाददाता के कार्य में दक्ष होने के कारण श्रवण किये गये विषय को कीर्त्तन करने में नैपुण्य को देखकर श्रील प्रभुपाद ने उन्हें श्रीमद्भक्तिरक्षक – श्रीधर गोस्वामी महाराज तथा अन्य संन्यासी-ब्रह्मचारियों के साथ मुम्बई में प्रचार-सेवा कार्य हेतु भेजा। मुम्बई में श्री एम० पी इन्जीनियर ने, जो उस समय थिओसोफिकल सोसायटी के अध्यक्ष थे तथा बाद में स्वतन्त्र भारत के प्रथम महाधिवक्ता (Advocate General) बने, गौड़ीय मठ के प्रचारकों को सोसायटी की सभा में प्रवचन देने हेतु निमन्त्रण किया। श्रील भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज के प्रवचन तथा भक्तों के कीर्तन और उनके आचार-विचार को देख-सुनकर श्री एम पी० इन्जीनियर अत्यन्त प्रभावित हुए।
बाद में, श्रील प्रभुपाद के मुम्बई आने पर श्री एम० पी० इन्जीनियर ने उनसे वहाँ पर गौड़ीय मठ की एक शाखा स्थापित करने हेतु प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना का उत्तर प्रदान करने से पूर्व श्रील प्रभुपाद ने श्रीनरोत्तमानन्द ब्रह्मचारी से पूछा, “यदि आपको मुम्बई में प्रचार-सेवा कार्य हेतु नियुक्त किया जाये तो आपको कोई असुविधा तो नहीं होगी?”
श्रीनरोत्तमानन्द ब्रह्मचारी ने उत्तर में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर रचित कीर्त्तन के पद का गान किया-
तोमार सेवाय, दुःख हय जत,
सेओ त’ परम सुख।
सेवा-सुख-दुःख, परम सम्पद,
नाशये अविद्या-दुःख ॥
शरणागति
(आत्मनिवेदन ८.४)
[आपकी सेवा करते हुए यदि दुःख भी होता है, तो वास्तव में वही मेरे लिये परम सुख है। सेवा में प्राप्त होने वाले सुख एवं दुःख ही सर्वोच्च सम्पत्ति हैं, कारण, उनके द्वारा अविद्या रूपी दुःख का नाश होता है।]
“यद्यपि मुझ जैसे नवीन साधक के लिये श्रीगुरु के साक्षात् सङ्ग में रहने से अधिक पारमार्थिक लाभ होता किन्तु मेरा दृढ़ विश्वास है कि आपके आदेश का पालन करने हेतु दूर से भी आपकी सेवा करने से मैं उस पारमार्थिक लाभ से वञ्चित नहीं होऊँगा।”
श्रील प्रभुपाद के आदेश-निर्देशानुसार श्रीनरोत्तमानन्द ब्रह्मचारी ने मुम्बई के अनेक स्थानों पर प्रचार कार्य किया। श्रील प्रभुपाद ने द्वादश स्कन्धयुक्त श्रीमद्भागवतम् पर उनका नाम अङ्कित कराकर मुम्बई में उनके निकट कृपा-आशीर्वाद स्वरूप भिजवाया था। श्रील मधुसूदन गोस्वामी महाराज इस बात को स्मरण करके कहा करते थे, “जब मुझे श्रील प्रभुपाद द्वारा भेजा गया सम्पूर्ण श्रीमद्भागवतम् ग्रन्थ प्राप्त हुआ तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो श्रील प्रभुपाद मुझे श्रीभागवत-धर्म के आचार और प्रचार में नियुक्त होने का निर्देश प्रदान कर रहे हैं।”
श्रीमद्भक्तिकमल मधुसूदन गोस्वामी महाराज
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भक्ति के द्वारा ही साधु की साधुता का परिचय – अपनी अच्छाई-बुराई के विचार से नहीं
हम लोग जन्म से ही, पूर्व कर्मों के आधार पर, कुछ अच्छाई-बुराई के विचारों को लेकर जीवन यापन करते हैं। फिर atmosphere (माहौल) और environment (पर्यावरण) से भी अच्छे-बुरे का विचार हमें मिलता है। इसी के अनुसार हमने जो वृत्ति या स्वभाव प्राप्त किया है, उसी के द्वारा साधुता के बारे में कुछ सोच बना लेते हैं- लेकिन वह सब कल्पना है, वास्तविक साधुता नहीं है। साधुता का परिचय सेवा-बुद्धि से मिलता है। जितने दिनों तक सेवा, उतने दिनों तक भक्ति। भक्ति में या सेवा में भौतिक atmosphere या environment का कोई आधिपत्य नहीं है। श्रील प्रभुपाद किसी के अंतःकरण में भक्ति या सेवावृत्ति देखने पर उन्हें अपना आत्म-परिचय देते थे, अन्यथा उनका निजत्व हमेशा ही बाह्य जगत के लिए छिपा रहता। भक्ति का प्रधान लक्षण है शरणागति । अपना निजत्व लुटा देने को ही शरणागति कहते हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केधव गोस्वामी महाराज
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साधन-भजन के द्वारा ही श्रीगुरु-भगवान् की महिमा की अनुभूति
सेवा-विहीन जीवन व्यर्थ है, इसीलिए समर्पितात्म (शरणागत) भक्त अपने जीवन का सम्पूर्ण दायित्व श्रीगुरु-भगवान् के श्रीचरणों में समर्पित करते हैं। वे जानते हैं कि, श्रीभगवान् मेरे हैं और मैं श्रीभगवान् का हूँ। सद्गुरु के माध्यम से ही प्रेममय श्रीभगवान् का प्रकाश होता है; श्रीभगवान् जीव की मनोवांछित सभी इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं-वे कंगालों के बन्धु हैं। जिनका श्रीभगवान् के प्रति प्रचुर भक्तिविश्वास नहीं है किन्तु सरलता है, उनके साधन भजन में कातस्भाव आ जाता है; वे श्रीगुरु और भगवान् की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। जो लोग गुरु-वैष्णव-भगवान् की श्रद्धापूर्वक सेवा-पूजा के द्वारा साधन-भजन करते हैं, वे प्रत्यक्ष रूप से ही इनके महिमा-महात्म्य को अनुभव कर सकते हैं।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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हिंसारहित जीवनयापन
आत्मा का नित्यत्व होने के कारण पुनर्जन्म में विश्वास युक्तिसंगत और स्वाभाविक है। इसलिये इस जन्म के अच्छे तथा बुरे कर्मों का फलभोग सभी प्राणियों को करना होगा। बलवान जब दुर्बलों के प्रति अत्याचार करें तो भले ही यहाँ दुर्बल उनका कुछ न कर पायें पर कर्मफल भोग के समय उन्हें उनका फल अवश्य ही भोगना होगा। उन्हें वहाँ कोई भी बचा न पायेगा। परमेश्वर का हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक चलता है तथा वे सभी को उचित समय पर उचित फल प्रदान करते हैं तथा करेंगे। यह सब विचार समाज में प्रचारित होने पर बहुत से लोग संयम से जीने के लिए चेष्टा करेंगे। यही नहीं, इस सु-प्रचार से वे हिंसारहित जीवनयापन करते हुए दूसरों को परहिंसा रहित करने की चेष्टा करेंगे तथा परहिंसा से पीड़ित होने की दुर्भावना भी शान्त होगी।
श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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