कल्याण कल्पतरू
इहाते ये गूढ़ मर्म, बूझ वैष्णवेर धर्म,
पात्रभेदे अधिकार भिन्न।
विनोदे निवेदन, विधिमुक्त अनुक्षण,
सारग्राही श्रीकृष्णप्रपन्न ॥

वैष्णवों की प्रकृति एवं कार्यकलापों के गूढ़ मर्म को समझने का प्रयास करो। विभिन्न प्रकार के भक्तों के लिए भक्ति के विभिन्न प्रकार के धरातल हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर निवेदन करते हैं कि विभिन्न नियमों एवं सिद्धांतों के हठधर्मी पालन करने के चंगुल में मत फँसो। एक प्राकृत भक्त को चाहिए कि वह उसी प्रकार कृष्ण के प्रति समर्पित होने का प्रयास करे जिस प्रकार सारग्राही भक्त समर्पित होते हैं।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर
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गुरुकृपा और कृष्णकृपा पृथक् नहीं है

कृष्ण यदि कृपा करेन कौन भाग्यवाने ।
गुरु – अन्तर्यामीरूपे सिखाय आपन ।।
गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे ।
गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन कौन भक्तगणे ॥

गुरुकृपा और कृष्णकृपा पृथक् नहीं है। गुरुदेव कृष्णभजन के अतिरिक्त और कुछ नहीं करते। कृष्ण भी अपने प्रियजन की सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी की सेवा ग्रहण नहीं करते। सभी प्रकार की सेवाओं को गुरुदेव ही कृष्ण के चरणों में निवेदन करते हैं। जिनकी सब समय सेवा करनी होगी, वे श्रीगुरुदेव ब्रह्माण्डवासी कोई साधारण जीव नहीं हैं। वे कृष्ण की इच्छा से पतित जीवों का उद्धार करने के लिए इस जगत में अवतीर्ण होकर जीवों को भक्तिलता का बीज प्रदान करते हैं। भगवान की सेवा करने की सुबुद्धि प्रदान करते हैं। कृष्ण की कृपा गुरु के द्वारा ही हम तक पहुँचती है- बह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव । गुरुकृष्णप्रसादे पाय भक्तिलता-बीज ।। अर्थात् ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते-करते कोई भाग्यवान् जीव गुरु एवं कृष्ण की कृपा से ही भक्तिलता का बीज प्राप्त करता है ।

श्रीलप्रभुपाद
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निष्कपट सेवा ही साधुसंग तथा श्रेष्ठसंग की प्राप्ति का अचूक उपाय है

श्रीभगवद-प्रेम की प्राप्ति के लिये जो मठ का आश्रय लेते हैं वे त्याग या भोग की कसरत में अपने मूल्यवान समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते। वे तो श्रीभगवद् प्रीति के अनुकूल और प्रतिकूल को समझकर शास्त्र और महाजनों के द्वारा बताये गये रास्ते के अनुसार विषयों को ग्रहण करते हैं व त्याग करते हैं। वास्तविकता भी यही है कि युक्त वैराग्य ही भक्ति का सहायक है। केवल चिन्मात्र बोध या विषयों में विरक्ति ही भक्ति का हेतु नहीं है। शुद्ध-भक्त का संग ही भक्ति का हेतु एवं पोषक है। भक्ति-साधना करने वाले जिस किसी भी वर्ण या आश्रम में रहकर उस-उस वर्ण व आश्रम के अभिमान को छोड़कर शुद्ध भक्तों के संग के द्वारा भक्ति को पुष्ट करते हुए धीरे-धीरे श्रीभगवद्-प्रेमानन्द को प्राप्त कर सकते हैं। निष्कपट सेवा ही साधुसंग तथा श्रेष्ठसंग की प्राप्ति का अचूक उपाय है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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दूसरों की बुद्धि से बड़ा व्यक्ति बनने की अपेक्षा अपनी बुद्धि से फकीर होना अच्छा है

शिक्षा ही प्रयोजनीय है-उपाधि की आवश्यकता नहीं है। उपाधि को व्याधि कहते हैं। भक्तों के द्वारा उपाधि-संग्रह की चेष्टा अभक्तिपूर्ण है। इसलिए यह भक्तों के लिए जितनी कम होगी, उतना ही अच्छा है। हरि-गुरु-वैष्णवों की सेवा नहीं करने से विद्या, अविद्या के रूप में गणित होती है। उसके द्वारा भक्तों का अधःपतन अनिवार्य है। ‘ज्ञान’ एक वस्तु है और उपाधि अलग वस्तु है। उपाधि में दंभ-अहंकार आदि मनुष्य को नीचे गिराकर भक्ति-विरोधी बना देता है। साधारण ग्रामीण नीति में कहते हैं, दूसरों की बुद्धि से बड़ा व्यक्ति बनने की अपेक्षा अपनी बुद्धि से फकीर होना अच्छा है। श्रील जीव गोस्वामीपाद ने मधुसूदन सरस्वती से वेदान्त पढ़कर उनको ही वेदान्त विचार में परास्त करके शिष्य बना लिया था। मधुसूदन के समान सरल अध्यापक से अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है। किन्तु असरल अवैष्णवो की शिक्षा सब प्रकार से अग्रहणीय है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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अपराध रहित होने के लिए श्रीनाम और श्रीधाम से निष्कपट प्रार्थना प्रयोजन

भजन राज्य में अपराध भयानक दोष और त्रुटि है। श्रीनामापराध, धामापराध, सेवापराध साधन-क्षेत्र में सब प्रकार से परित्यज्य हैं। परन्तु इन्हें कम समय में वर्जन करना अत्यन्त कठिन कार्य है। श्रीनाम् प्रभु और श्रीधाम से प्रार्थना करनी होती है, जिससे अपराध से निर्मुक्त होकर हम धामवास और श्रीनाम-ग्रहण कर सकें। श्रीगुरु-वैष्णवों की चरणरज की प्राप्ति और उनकी अहैतुकी करुणा ही हमें वास्तव योग्यता और अधिकार में प्रतिष्ठित कर सकती है। भजन राज्य में पार्थिव समस्त योग्यताएँ निरर्थक हैं तथा दाम्भिकता की परिचायक हैं।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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क्षति की पूर्ति नितान्त असम्भव

कृष्ण कृपापूर्वक अपने जिन समस्त निजजनों को आकर्षित करके उन्हें नित्यलीला में प्रविष्ट करा रहे हैं, पुनः कृष्ण के ही द्वारा कृपा करके उन्हें यथासमय इस मर्त्यधाम में प्रेरित नहीं करने पर माया द्वारा आबद्ध जगत् के जीवों के ये दुर्दिन अन्य किसी प्रकार से भी समाप्त नहीं होंगे। ठाकुर हरिदास के अप्रकट लीला प्रकाश करनेपर श्रीमन्महाप्रभु ने उनके विरह में विह्वल होकर कहा था- ‘कृपा करि कृष्ण मोरे दियाछिल सङ्ग। स्वतन्त्र कृष्णेर इच्छा हैल सङ्ग भङ्ग ॥’ चै०च० (अन्त्य-लीला ११.९४) [श्रीकृष्ण ने अतिकृपापूर्वक मुझे (श्रील हरिदास ठाकुर का) सङ्ग प्रदान किया था। आज श्रीकृष्ण की स्वतन्त्र इच्छा से ही मेरा सङ्ग भङ्ग हो गया।] ‘हरिदास आछिलो पृथ्वीर रत्न-शिरोमणि। ताहा बिना रत्न-शून्या हइल मेदिनी ॥’ चै०च० (अन्त्य-लीला ११.९७) [श्रील हरिदास पृथ्वी पर विराजित सर्वोत्तम रत्न-स्वरूप थे, हरिदास के बिना यह पृथ्वी रत्न से शून्य हो गयी है।] वास्तव में ही नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज, नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिहृदय वन महाराज, नित्यलीलाप्रविष्ट श्रीमद् कृष्णदास बाबाजी महाराज एवं नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज आदि वैष्णव समस्त विश्व के उद्धारक हैं तथा उनके अभाव की पूर्ति सर्वथा असम्भव है। उनकी तुलना केवलमात्र उनसे ही हो सकती है।

श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज
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One who engages in devotional service under the guidance of the spiritual master in disciplic succession becomes qualified to see the Lord face to face:
TRANSLATION: The Supreme Personality of Godhead, Anantadeva, replied as follows: O King, as a result of your having accepted the in-structions spoken about Me by the great sages Nārada and Angirā, you have become completely aware of transcendental knowledge. Be-cause you are now educated in the spiritual science, you have seen Me face to face. Therefore you are now completely perfect.
PURPORT: The perfection of life is to be spiritually educated and to understand the existence of the Lord and how He creates, maintains and annihilates the cosmic manifestation. When one is perfect in knowledge, he can develop his love of Godhead through the associa-tion of such perfect persons as Nārada and Angira and the members of their disciplic succession. Then one is able to see the unlimited Supreme Personality of Godhead face to face. Although the Lord is unlimited, by His causeless mercy He becomes visible to the devotee, who is then able to see Him. If one takes to spiritual life under the direction of Narada Muni or his representative and thus engages him-self in the service of the Lord, he qualifies himself to see the Lord face to face…. One must follow the instructions of the spiritual master. Thus one becomes qualified and later sees the Supreme Personality of Godhead.

Bhāg. 6.16.50
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