एकमात्र भक्तिपथका अवलम्बन करना आवश्यक है
स मृग्यः श्रेयसां हेतुः पन्थाः सन्तापवर्जितः ।
अनवाप्तश्रमं पूर्वे येन सन्तः प्रतस्थिरे ॥
(स्कन्दपुराण)
( पूर्व-महाजनों ने जिस मार्गको अत्यन्त सुलभ अर्थात् श्रमरहित जानकर ग्रहण किया है, वही पथ कल्याण-प्राप्तिके लिए सन्तापरहित है, अतएव वही पथ एकमात्र ग्रहण करने योग्य है। )
कोई भी पन्थ किसी एक व्यक्ति द्वारा सुन्दर रूपसे निरूपित नहीं होता। पूर्व-महाजनोंने एकके बाद दूसरेने क्रमशः उस भक्तियोग पथको साफ-सुथरा किया है, उस पथकी छोटी-मोटी समस्त विघ्न बाधाओंको दूरकर उसे सहज और निर्भय बनाया है। इसलिए उसी मार्गका अवलम्बन करना ही कर्त्तव्य है। श्रुति, स्मृति, पुराण और पञ्चरात्र – इन शास्त्रोंकी विधियोंका उल्लंघनकर यदि श्रीहरिकी ऐकान्तिकी अर्थात् अनन्या भक्ति भी की जावे तो उस भक्तिसे कभी भी कल्याण नहीं हो सकता, बल्कि उसे उत्पातका हेतु ही समझना चाहिये।
श्रुति-स्मृति-पुराणादि-पञ्चरात्र-विधिं बिना।
ऐकान्तिकी हरेर्भक्तिरुत्पातायैव कल्पते ॥
ब्रह्मयामल (भक्तिरसामृतसिन्धु)
बाबाजी-शुद्धभक्ति का ऐकान्तिक भाव अर्थात् अनन्य भाव पूर्व-महाजन-पथ का अवलम्बन करनेसे ही प्राप्त होता है। पूर्व महाजन-पथ को छोड़कर किसी दूसरे पथकी सृष्टि करनेसे ऐकान्तिक भाव प्राप्त नहीं होता। इसीलिए शुद्धभक्तिको समझ न सकनेके कारण उसके कुछ-कुछ भावाभासको ग्रहणकर दत्तात्रेय, बुद्ध आदि अर्वाचीन प्रचारकोंमेंसे किसीने मायावादमिश्र, किसीने नास्तिकतामिश्र एक-एक क्षुद्र पन्थ प्रदर्शन कर उसीमें ऐकान्तिकी हरिभक्तिका आरोप किया है, परन्तु वास्तवमें उन लोगोंके द्वारा प्रवर्तित पथ हरिभक्ति नहीं है, उत्पात विशेष हैं। रागमार्गीय भजनमें श्रुति-स्मृति-पुराण-पञ्चरात्रादि विधियोंकी अपेक्षा नहीं रहती। वहाँ तो केवल व्रजजनानुगमनकी अपेक्षा होती है। परन्तु विधिमार्गके अधिकारी साधकोंको ध्रुव, प्रह्लाद, नारद, व्यास और शुक आदि महाजनों द्वारा निर्दिष्ट एकमात्र भक्तिपथका अवलम्बन करना आवश्यक है। अतएव वैध भक्तों के लिए साधुमार्ग अनुसरणके अतिरिक्त कोई भी दूसरा उपाय नहीं है।
जैव धर्म
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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हमारे पास और अधिक दिन नहीं हैं
श्रीगुरुपादपद्म को कृष्णप्रेष्ठ या नित्यसिद्ध ब्रजवासी जानने पर ही ब्रज में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। नित्यसिद्ध महाजन श्रीगुरुपादपद्म का अनुगमन और अनुसरण करना ही हमारा कर्तव्य है। तभी ब्रज में जा सकते हैं। किन्तु स्वतन्त्र होकर (भगवद् वस्तु को) माप लेने का विचार आने से ही संसार होगा, ब्रज में नहीं जा सकेंगे। निष्कपट रूप से हरिभजन करने के लिए हमें जी-जान से चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि हमारे पास और अधिक दिन नहीं हैं। हमें इस जगत से चले जाना पड़ेगा।
आश्रयविग्रह श्रीगुरुपादपद्म के आनुगत्य में ही सेवा करनी होगी। सेवा बुद्धि या सेवा की चिन्ता प्रबल रहने पर अन्य किसी प्रकार की चिन्ता मन में आ ही नहीं सकती। श्रीरूपानुगवर श्रीगुरुपादपद्म की चरणधूलि हमारी एकमात्र आकांक्षा का विषय होने पर ही हमारा मंगल हो सकता है। श्रीगुरु-गौरांग के सुख की ओर हमारा तीव्र लक्ष्य रहने पर अपने सुख की इच्छा जीव को विपत्ति में नहीं डाल सकती। हरिभजन के उद्देश्य से ही हमें जीवन निर्वाह करना चाहिए। बाधा – विपत्ति आने पर कभी भी भजन नहीं छोड़ना चाहिए।
श्रीलप्रभुपाद
जगद्गुरू प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर
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अनासक्तभाव से ही जागतिक कर्त्तव्यों को पूरा करना
जीव अपने कर्मफल से भले ही अनित्य परिवेश में पड़ जाये, परन्तु उसका स्वरूपज्ञान जागृत रहने से वह अनित्य परिवेश में वास करते हुए भी अथवा अनित्य पदार्थों का व्यवहार करते हुए भी उनमें कभी भी आसक्त नहीं होता। अनासक्तभाव से ही जागतिक कर्त्तव्यों को पूरा करने में समर्थ होता है। ज़रुरत पड़ने पर विषयों या भोगों को स्वीकार करके भी वह उनमें आसक्त, मोहित या उनके वशीभूत नहीं होता है। त्रिगुणात्मक जगत् में रहने पर भी अपने निर्गुण स्वरूप का स्मरण होने के कारण निर्गुणधाम के प्रति ही उसकी प्रगति होती रहती है। आसक्ति ही जीव के बन्धन और मुक्ति का कारण है। गुणमय विषयों में आसक्ति ही बन्धन का कारण तथा निर्गुण श्रीहरि तथा उनके धाम व उनके परिकर आदि में आसक्ति ही मुक्ति और परम सुख का कारण होती है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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जिस सेवा से घमण्ड पैदा होता है, वह सेवा नहीं
जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद के एक संन्यासी (भक्तिविलास उपाधि से युक्त — श्रीश्री भक्तिविलास पर्वत महाराज, उनका पूर्व नाम था ‘श्रीहरिदास मुनि’। वे प्रभुपाद से पहले अप्रकट हो गए थे।) शिष्य थे, वर्तमान में वे प्रकट नहीं हैं। उनके जीवन में हमने जागतिक कार्यों में किसी प्रकार की कर्म-कुशलता कभी नहीं देखी। उनके समय के कुछ ‘प्रभावशाली’ पाठक और वक्ता संन्यासियों ने दो-एक दिन उनकी निष्क्रियता पर कटाक्ष किया, तो इस पर श्रील प्रभुपाद ने सिंह के समान गर्जन कर उसका विरोध किया था। ‘मैं बहुत बड़ा वक्ता हूँ, मैं बहुत बढ़िया पाठक हूँ, सभी लोगों को अपने पाठ-भाषण से मुग्ध कर सकता हूँ, मेरी बहुत क्षमता है, मेरा भाषण सुनकर बहुत सारे लोग मठ में खिंचे चले आते हैं, इसलिए मैं एक प्रिय और प्रधान शिष्य हूँ-इस प्रकार की बुद्धि रखने वाले व्यक्ति को श्रील प्रभुपाद ने कभी भी श्रेष्ठ सेवक का स्थान प्रदान नहीं किया है। भक्ति-वृत्ति अलग वस्तु है। वह बहुत सौभाग्य से ही मिलती है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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सत्य स्वीकार करने का साहस
मैं किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं हूँ। मैं मात्र दास हूँ
श्रीराधारमण ब्रह्मचारी की बाल्यावस्था समाप्त होने के कुछ समय पश्चात् ही श्रील प्रभुपाद ने अप्रकट-लीला प्रकाशित कर दी। श्रील प्रभुपाद के जाने के पश्चात् गौड़ीय मठ के अन्धकार-युग को देखकर श्रीराधारमण ब्रह्मचारी का हृदय दुःखी होता था। युवा होने के कारण उन्होंने विचार किया कि तत्कालीन खेदजनक अवस्था को सहन करने की अपेक्षा अपने परिवार के पास लौटना अच्छा होगा। ऐसा विचार कर श्रीराधारमण ब्रह्मचारी ने अपनी इच्छा को अपने पिता श्रीवैकुण्ठनाथ प्रभु के समक्ष रखा, जिन्होंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उनका घर लौटने पर स्वागत किया।
श्रीराधारमण प्रभु का मठ से चले जाने का सम्वाद सुनकर गुरु महाराज (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) उनके पूर्वाश्रम में पहुँचे तथा श्रीवैकुण्ठनाथ प्रभु को पूछा, “आप श्रील प्रभुपाद के आश्रित हैं। यद्यपि आपका पुत्र स्वयं अपनी इच्छा से घर में आने के लिये कह रहा था तथापि आप अपने पुत्र के पुनः संसार में प्रवेश का अनुमोदन कैसे कर सकते हैं?”
श्रीवैकुण्ठनाथ प्रभु ने उत्तर दिया, “वास्तव में मैं नहीं चाहता कि वह मठ को छोड़ दे किन्तु में यह भी नहीं चाहता कि वह निरुत्साहित हो जाये तथा यह विचार करे कि कोई भी उसका साथ देने वाला नहीं है क्योंकि उसने अपने लिये एक अलग पथ का चयन किया है। मैं नहीं चाहता कि वह अपने आपको निष्कासित अनुभव करे अथवा यह समझे कि उसे उसके उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया गया है। इसी कारण मैंने उसे घर आने की अनुमति प्रदान की है। यदि आप चाहते हैं कि वह ब्रह्मचारी ही बना रहे एवं पुनः मठ में लौट जाये तो वह अपनी इच्छा से आपके साथ जा सकता है। मुझे कोई आपत्ति नहीं है तथा यह मेरे लिये प्रसन्नता का ही विषय होगा।”
गुरु महाराज ने श्रीराधारमण ब्रह्मचारी के साथ वार्तालाप किया तो उन्होंने कहा, “श्रीहयग्रीव प्रभु, आपने मेरे लिये अत्यधिक कष्ट सहन किया है। मुझे पुनः मठ लौटा ले जाने के लिये यहाँ आने पर आपने मेरे वास्तव बन्धु का कार्य किया है। इसके लिये मैं सदैव आपके श्रीचरण-कमलों का ऋणी हूँ। यदि मैं पुनः मठवास करना स्वीकार करता हूँ तथा हरिसेवा के उद्देश्य से वर्तमान मामला-मुकद्दमों में सम्मिलित भी हो जाता हूँ तब भी मठ के भविष्य के विषय में सामञ्जस्य कर पाऊँगा, मुझे इसमें संशय है। श्रील प्रभुपाद के अप्रकट के पश्चात् मठवासियों के परस्पर व्यवहार का अनुभव कर मेरे हृदय पर जो छाप पड़ी है उससे मैं पुनः मठ में जाने हेतु उत्सुक नहीं हूँ। कृपया मुझे इसके लिये क्षमा कीजिये। मैं आपको वचन देता हूँ कि शीघ्र ही इन विषयों पर गहन विचार करूँगा।”
गुरु महाराज के चले जाने के पश्चात् श्रीराधारमण ब्रह्मचारी ने विचार किया, “मैंने यह क्या कर दिया? मैंने अपने मङ्गलाकांक्षी वैष्णव के प्रयासों को विफल कर दिया एवं उन्हें वापस लौटने हेतु विवश कर उनका अपमान कर दिया।” यह जानकर कि यह उनके भजन में बाधा बन जायेगा, वह पश्चाताप् करते हुए दिन व्यतीत करते तथा भोजन एवं शयन भी मात्र अभ्यासवशतः ही करते।
कुछ दिनों के पश्चात् एक विशेष शास्त्रीय उक्ति उनके विचार में आयी- “शुभस्य शीघ्रम् अशुभस्य काल हरणम् अर्थात् शुभ कार्य शीघ्रताशीघ्र करने चाहिये तथा अशुभ कार्य को करने में जितना अधिक से अधिक हो विलम्ब करना चाहिये।” यह विचार कर वह गुरु महाराज के समक्ष प्रस्तुत हुए जो कि उस समय मेदिनीपुर में प्रचार कर रहे थे। गुरु महाराज उन्हें देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा श्रीराधारमण ब्रह्मचारी के श्रीहरि, गुरु, वैष्णव की सेवा हेतु अपना जीवन समर्पित करने के दृढ़ निश्चय को देखकर अत्यधिक हर्षित हुए तथा उन्होंने विचार किया कि इन्हें संन्यास प्रदान कर देना चाहिये। गुरु महाराज का उस समय संन्यास नहीं हुआ था अतः उन्होंने श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज से श्रीराधारमण ब्रह्मचारी को संन्यास देने हेतु प्रार्थना की। श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए रेमुणा स्थित श्रीक्षीरचोरा गोपीनाथ मन्दिर में श्रीराधारमण ब्रह्मचारी को संन्यास प्रदान किया। उसके पश्चात् वह श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज के नाम से सुविख्यात हुए।
हमने इस प्रसङ्ग के विषय में किसी से भी श्रवण नहीं किया था, यहाँ तक कि गुरु महाराज से भी नहीं। हमें इस सम्बन्ध में तब ज्ञात हुआ जब श्रील सन्त गोस्वामी महाराज ने स्वयं इस विषय में व्रजमण्डल परिक्रमा के समय वृन्दावन में तथा पुनः चण्डीगढ़ स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में बताया था। श्रील महाराज अनेक बार कहते नि थे, “मैं पूज्यपाद माधव महाराज के स्नेहपूर्ण पथप्रदर्शन से अत्यधिक लाभान्वित हुआ हूँ।
उन्होंने मेरे जीवन की रक्षा की है। यदि मैं घर में ही रह जाता तो न जाने मेरा क्या होता? उन्होंने भयानक विपत्ति से मेरा उद्धार किया है।”
श्रील प्रभुपाद के अनेक शिष्यों में से श्रील सन्त गोस्वामी महाराज एवं गुरु महाराज ने पश्चिम बङ्गाल के मेदिनीपुर स्थित श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ में वास किया था। यद्यपि गुरु महाराज ने बहुत सी भिक्षा संग्रह की थी तथा मठ के निर्माण के लिये भूमि भी खरीदी थी, तब भी वह सब कुछ स्वयं के नाम पर नहीं करके श्रील सन्त गोस्वामी महाराज के नाम पर ही करते थे। गुरु महाराज की उनके प्रति इस प्रकार की प्रीति थी। श्रील सन्त गोस्वामी महाराज कहते थे, “मैं किसी भी वस्तु तथा व्यक्ति का स्वामी नहीं हूँ। मैं मात्र दास हूँ।
श्रील भक्तिकुमुद संत गोस्वामी महाराज
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अच्छा बनने का दिखावा करना- विप्रलिप्सा, अच्छा होने का प्रयास-दीनता
हृदय में स्वाभाविक दीनता न रहने पर चित्त वज्र के समान कठोर हो जाता है, जिससे सरस (रस-युक्त) भक्तिवृत्ति का अभाव होने लगता है।
कोई स्वयं गलत आचरण कर न्यायकारी या अच्छा आदमी बनने का ढोंग करना चाहता है- यह ‘विप्रलिप्सा’- दोष के अन्तर्गत है, जोकि भजन में बाधा है। ‘मैं असत्-अन्यायकारी हूँ’, इसे गुरु-वैष्णवों के सामने ज्ञापन करते हुए सत् बनने के प्रयास को दीनता कहते हैं। जड़ अहंकार और दम्भ प्रकाशित करने पर (भगवान्) श्रीमधुसूदन उनका दर्प (गर्व) चूर कर देते हैं, यही शास्त्र-सिद्धान्त है। जो भजन-प्रयासी व्यक्ति हैं, वे निरभिमान (अभिमान रहित) हैं; उनके हृदय में दाम्भिकता का कोई स्थान नहीं है। हृदय में स्वाभाविक दीनता न रहने पर चित्त वज्र के समान कठोर हो जाता है, जिससे सरस (रस-युक्त) भक्तिवृत्ति का अभाव होने लगता है। दीनता ही सेवक या साधक का भूषण है-अलंकार है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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