हरिनाम का स्वरूप
तुमि त’ चिन्मय सूर्य, तोमार स्वरूप।
सम्पूर्ण चिन्मय – एइ तत्त्व अपरूप ।।
सर्वत्र चिन्मय तव श्रीविग्रह हय।
नाम – धाम – लीला तव सम्पूर्ण चिन्मय ।।
तव मुख्य नाम सब तोमाते अभिन्न ।
जड़ीय वस्तुर नाम वस्तु हैते भिन्न ।।
भक्तमुखे आइसे नाम गोलोक हइते।
आत्मा हैते देहे व्यापि नाचे जिह्वादिते ।।
एइज्ञाने नाम लैले हय तव नाम।
नामे जड़बुद्धि या’र ता’र दुःखग्राम ।।
श्रील हरिदास ठाकुर जी कहने लगे- हे प्रभु! आपका स्वरूप तो चिन्मय सूर्य के समान है। आपका नाम, श्रीविग्रह, धाम तथा लीला सभी चिन्मय हैं। आपके मुख्य नाम आपसे अभिन्न हैं जबकि जड़ीय अर्थात् दुनियावी वस्तुओं के नाम उन वस्तुओं से भिन्न हैं। भक्तों के मुख से उच्चारित भगवनाम, गोलोक से आकर प्रकट होते हैं। यह हरिनाम, आत्मा के माध्यम से सारे शरीर में फैलकर जिहा के ऊपर नृत्य करते हैं। भगवान का नाम चिन्मय है तथा गोलोक – धाम से अवतरित होता है, इस प्रकार की भावना से हरिनाम करनेपर ही शुद्ध – हरिनाम होता है। जिसका ऐसा दिव्य ज्ञान नहीं है और जो हरिनाम में जड़ीय बुद्धि रखते हैं, उन्हें बहुत लम्बे समय तक नरक की यंत्रणाओं को सहना होता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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काय-मन-वाक्य
शास्त्र साक्षात् श्रीकृष्ण हैं- श्रीकृष्ण का अवतार हैं । हम सभी के कल्याण के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ही शास्त्र रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं । भगवान श्रीगौरांगदेव ने कहा है-
शास्त्र – गुरु आत्मरूपे आपनारे जानान।
कृष्ण मोर प्रभु, त्राता – जीवेर हय ज्ञान।।
यदि हम मनोधर्म के द्वारा चालित होकर शास्त्र आलोचना करेंगे, तो वञ्चित हो जाएँगे। शास्त्र शरणागतजन के निकट ही प्रकाशित होते है। भगवान में जिस प्रकार अचला भक्ति है, उसी प्रकार अचला भक्ति यदि श्रीगुरुदेव में होती है, तब ऐसे महात्मा के निकट ही शास्त्र का यथार्थ अर्थ प्रकाशित होता है। पण्डित – अभिमानी दाम्भिक व्यक्ति शास्त्र का तात्पर्य हृदयंगम नहीं कर पाता। हम यदि काय-मन-वाक्य के द्वारा शरणागत होकर साधु की कथा का श्रवण करेंगे, तभी शास्त्र के मर्मार्थ को समझ पाएँगे।
श्रीलप्रभुपाद
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सनातन धर्म
“सनातन धर्म all-accommodating एवं all embracing है। कारण, यह धर्म किसी भी व्यक्ति-विशेष या किसी भी जाति-विशेष अथवा सम्प्रदाय-विशेष का धर्म नहीं है। भौगोलिक सीमा द्वारा विभक्त किसी भी देश का धर्म सनातन धर्म नहीं है। हिन्दु धर्म को ‘सनातन धर्म’ नहीं कहा जाता है। सनातन-वस्तु का जो धर्म है, वह ही सनातन धर्म है। देह और मन असनातन हैं, इसलिये उनका धर्म भी असनातन है अर्थात् अनित्य है; देह और मन से अतीत आत्मा सनातन होने के कारण उसका धर्म ही सनातन धर्म है। सभी जीवों का स्वरूप-धर्म ही सनातन-धर्म है। त्रिगुणात्मक प्रकृति के संग से जीवों में जो बहुत से नैमित्तिक धर्मों का प्रकाश देखा जाता है, वह वर्णभेद से, आश्रमभेद से, जातिभेद से, देशभेद से अलग-अलग है। बद्ध जीव के लिये स्वरूप के धर्म में प्रतिष्ठित होना कोई सहज बात नहीं है। इसीलिए क्रममार्ग से स्वरूपधर्म तक पहुँचने के लिए वर्णाश्रम-धर्म की व्यवस्था दी गयी है। प्रचलित समाज की व्यवस्था में वर्णाश्रमधर्म को सनातन धर्म कहने का उद्देश्य यह है कि उसका चरम लक्ष्य है-सनातनधर्म। बद्धजीव के कल्याण के लिये समाज की ऐसी सुवैज्ञानिक व्यवस्था कहीं भी नहीं देखी जाती। सनातन धर्म के मुख्य तात्पर्य – ‘श्रीभागवत धर्म’ को श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने स्वयं आचरण करके प्रचार किया है तथा उन्होंने कहा है कि इस भागवत-धर्म के आश्रय में सभी विश्ववासी एक ही प्रीति-सूत्र में बंध सकते हैं।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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प्रभुपाद द्वारा गुरुभ्राताओं एवं समस्त वैष्णवों को ‘प्रभु’ सम्बोधन का रहस्योद्घाटन
एक समय श्रीराधारमण ब्रह्मचारी ने श्रील प्रभुपाद से गुरुभ्राताओं का परस्पर एक दूसरे को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधन करने के कारण के विषय में जिज्ञासा की तथा श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित उत्तर प्रदान किया
“ऐसा कहा गया है- ‘गुरुर सेवक हय मान्य आपनार अर्थात् गुरु-सेवक विशेष सम्मान के पात्र होते हैं।’ इस विचार के अनुसार हम अपने समस्त कनिष्ठ एवं ज्येष्ठ गुरुभ्राताओं को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधित करते हैं जिससे कि हममें तृण से भी अधिक सुनीचता का भाव विकसित हो सके। यदि कोई व्यक्ति स्वयं को वैष्णव एवं अन्यों को कनिष्ठ अथवा स्वयं से कम उन्नत समझता है तो वह मात्र जड़ अभिमान को ही पुष्ट करता है। पारमार्थिक राज्य में यदि हम एक-दूसरे को अपने गुरु के सेवक के रूप में देखते हैं तो अन्य भक्त हमसे कनिष्ठ अथवा कम उन्नत हैं, यह विचार हृदय को स्पर्श भी नहीं करेगा। तब हमारे पास अन्यों के प्रति द्वेष अथवा असम्मान की भावना का अवसर नहीं होगा।
“यही अन्यों को ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधन करने का रहस्य है। यदि कोई स्थूल अभिमान को त्यागकर श्रीगुरुदेव का दास बनना चाहता है तो उसे श्रीगुरु के सेवकों में कनिष्ठ एवं वरिष्ठ का भेद नहीं करना चाहिये। शास्त्र कहते हैं, ‘तद् भृत्य भृत्य भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ अर्थात् हे लोकनाथ ! आप मुझे अपने दासों के दासानुदास के दास के रूप में स्मरण करें।’ हमें यह विचार भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेना चाहिये। इस प्रकार शास्त्र निश्चितकर कहते हैं कि श्रीगुरु के सेवक को तथा वास्तव में समस्त वैष्णवों को ही ‘प्रभु’ कहकर सम्बोधित करना चाहिये।”
श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज
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गुरुपादपद्म के मन की आन्तरिक इच्छा के अनुरूप सेवा से ही उनको जीत सकते हैं- रुपये या परिश्रम से नहीं
बड़े-बड़े संन्यासी, ब्रह्मचारी दिन-रात परिश्रम करने के बाद भी श्रील प्रभुपाद का हृदय जीत नहीं सके। यह हमने उनके प्रकटकाल में प्रत्यक्ष देखा। अतिमर्त्य पुरुषों का ‘हृदय’ जीतने के लिए किस प्रकार की चित्तवृत्ति चाहिए, अगर उस विषय में कभी हमने चर्चा ही नहीं की तो उनका हृदय हम कैसे जीतेंगे? गुरुपादपद्म के मन मुताबिक चलना ही गुरुसेवक का एकमात्र कर्त्तव्य है। हम सोचते हैं कि, गुरुदेव को बहुत धन की कमी हो गयी है, बहुत सामर्थ्य की जरूरत आन पड़ी है; हम जैसे भी हों यदि कुछ रुपये-पैसे का संग्रह कर देते हैं तो शायद प्रभुपाद का दिल जीत लेंगे। उत्सव समारोहों में शारीरिक श्रम की जरूरत है, अतएव दिन रात श्रमदान करने से ही सेवा हो जायेगी- हम लोग ऐसा ही सोचते हैं। किन्तु अतिमर्त्य पुरुषों की जो कृष्णसेवामयी चेष्टा है, वह रुपये-पैसे या सामर्थ्य से यदि पूरी नहीं होती है, तो उसके द्वारा अतिमर्त्य ‘मन’ को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? गुरुपादपद्म का ‘मन’ जीतने के लिए उनके आंतरिक मन की निरंकुश (पूर्ण) गूढ़ इच्छा (मनोभीष्ट) को जानना होगा और उसी के अनुरूप तन-मन-वाक्य से सब प्रकार की सेवा करनी होगी। श्रील प्रभुपाद की प्रकट लीला में जिन्हें निगूढ़तम सेवाप्रवृत्ति का एकदम सटीक अभ्यास करने का अवसर मिला था, वे ही वास्तव में धन्य हैं। हम यदि अपनी मनगढ़ंत धारणाओं को श्रीगुरुपादपद्म की सेवा पर लागू कर देंगे तो वह कभी भी सेवा के रूप में मान्य नहीं होगी। हम अपनी विचारधारा को गुरुदेव की विचारधारा मानकर उसी के अनुसार जो प्रयास करते हैं, वह वास्तव में सेवा नहीं है- यह एक प्रकार का auto-suggestive nature (स्व-सूचक स्वभाव) है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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बाधा-ग्रस्त होने पर ही हरिभजन में वृद्धि होती है
जहाँ कहीं भी रहो, भजन-साधन ही हमारा मुख्य कृत्य है। जहाँ नास्तिक ज्यादा होते हैं, वहीं अच्छे ढंग से साधन-भजन होता है। जहाँ किसी प्रकार की बाधा-विपत्ति नहीं है, वहाँ सुधरने का मौका ही कहाँ है? हरिभजन में बाधा आने पर ही भजन के सम्बन्ध में आग्रह और एकाग्रता बढ़ती है। इसलिए उसे भजन के अनुकूल परिवेश के रूप में ही मान लेना चाहिए। जो नामपरायण हैं, जो प्रतिदिन श्रीविग्रहसेवा-पूजा और भक्ति-ग्रन्थों की चर्चा करते हैं, उनके लिए सभी स्थान ही भजन के अनुकूल हैं। इसलिए तुम मन खराब मत करो। भजन करने से मन में धैर्य और उत्साह आता है। तुम दृढ़ता के साथ भजन में नियुक्त रहना।
श्रील वामन गोस्वामी महाराज
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The fault is in our practice
A saranagata bhakta , surrendered devotee, will get God realisation, bhakti and also a reduction in attachment to this world. All three will come. He will lose interest in whatever is not favourable to Krsna. He will get vairagya , complete detachment.
We performed Vraja-mandala parikrama and engaged in sravana and kirtana. We did everything, but still we have not got attachment to Bhagavan. Then we should understand that we are lacking in surrender to the Supreme Lord. Whatever bhakti a surrendered soul has, he gets equal detachment from the things that are unfavourable to the Supreme Lord. If our attachments in this material world are increasing, we should understand that there is some fault in our surrender. First of all, I am not performing enough bhajan and whatever little I am doing is not according to the prescribed rules. Therefore I am not getting the desired result. The scriptures are not giving false information. Vedavyasji is not deceiving us. There is a mistake in our following and the fault is in our practice.
श्रीलगुरुदेव
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