श्रद्धाहीन व्यक्ति को हरिनाम देने का फल
इहा ना करिया यिनि देन नामधन।
सेइ अपराधे ताँ’र नरके पतन।।
नाम पेये शिष्यकरे नाम – अपराध।
ताहाते गुरुर हय भक्तिरसबाध ।।
एइ नाम अपराधे मुँहे शिष्य गुरु।
नरकेते याय एइ अपराध उरू।।
पापियों की पापमय बुद्धि को खत्म न करके तथा उनके हृदय में भगवद् – नाम के प्रति श्रद्धा उत्पन्न न करके जो व्यक्ति उन्हें हरिनाम – धन प्रदान करता है, उसका इसी अपराध से पतन हो जाता है। श्रद्धाहीन शिष्य हरिनाम प्राप्त करके नामापराध करता है, जिससे गुरु की भक्ति – रस प्राप्ति में बाधा पहुँचती है। इस नाम- अपराध के कारण गुरु और शिष्य, दोनों ही नरक में जाते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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कर्म का स्वरूप
जड़- बुद्धि से ग्रसित व्यक्ति जड़ीय- द्रव्यों के द्वारा तथा काल के आश्रय में रहकर मृत्यु के भय से आपकी साधना करता है। हे हरि! आप जीवों को अभय देने वाले हो तथा आपके समान और कोई नहीं है। आपके चरणों का आश्रय लेने मात्र से ही जीव भवसागर से पार हो जाता है। कर्म-मार्ग में आपके चरणों का आश्रय प्राप्त करने के लिए यज्ञ करना, तालाब व कुएँ का निर्माण करवाना, तीनों समय स्नान करना, दान, योग, वर्णाश्रम – धर्म का पालन, तीर्थयात्रा, व्रत, माता – पिता की सेवा, ध्यान, ज्ञान, देवताओं के लिए तर्पण, तपस्या तथा प्रायश्चित आदि विधान – जड़ीय द्रव्यों तथा जड़ीय भावों को आश्रय करने के कारण जड़ीय हैं। इन सब उपायों के द्वारा जड़ीय द्रव्यों को आश्रय करके हमेशा ही शुभकर्म होता है। जड़ीय अर्थात् दुनियावी उपायों का चरमफल भी जड़ीय अर्थात् दुनियावी ही होता है परन्तु जब किसी साधक की भक्ति में सिद्धि प्राप्त होती है तो यह जड़ीय व अनित्य उपाय अपने आप ही छूट जाते हैं क्योंकि तमाम सिद्धियों का सार पूर्णानन्दमय भगवान की प्राप्ति ही है। यही जीवों का सर्वोत्तम उपेय अर्थात् प्रयोजन है तथा यही सभी प्रयोजनों के सारों का सार है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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हरिकथा में श्रद्धा या रुचि ही भक्ति का मूल है
अपनी सुख – सुविधाओं के लिए और दूसरों की सुख – सुविधाओं के लिए जो किया जाता है, वही कर्म है । उसमें कृष्ण के सुख के अनुसन्धान की कोई बात नहीं होती । अपने और दूसरे के सुख का अनुसन्धान ही उसका तात्पर्य या उद्देश्य है । जबकि कृष्णसुखानुसन्धान का नाम है भक्ति ।
यह संसार साधारण लोगों के लिए कर्मक्षेत्र है। किन्तु भक्तों के लिए यह संसार भक्तिसाधनक्षेत्र है। कर्तृत्वाभिमान से संसार में जो कुछ किया जाता है, वह कर्म है। जबकि गुरु कृष्णदास अभिमान से भगवत् चालित होकर भगवान का कार्य समझकर जो किया जाता है, वह भक्ति है।
कर्म कब तक करणीय है ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्र कहते हैं-
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
मत्कथा – श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ।।
जब तक कर्म के प्रति निर्वेद या विरक्ति नहीं आ जाती, तब तक कर्म करना होगा । अथवा सौभाग्य से साधुसंग के फल स्वरूप यदि किसी की भगवत् कथा में श्रद्धा या रुचि हो जाती है, तब उसे और कर्म नहीं करना पड़ेगा । इन दोनों लक्षणों में से जिसमें एक भी लक्षण दिखाई न दे, उसे संसार क्षेत्र में कर्म करना ही होगा ।
हरिकथा में श्रद्धा या रुचि ही भक्ति का मूल है। ‘हरिकथा हि केवलं परमं श्रेयः’ – ऐसा दृढ़ विश्वास ही श्रद्धा या हरिकथा में रुचि का लक्षण है ।
जिसकी जिसमें श्रद्धा और रुचि है, वही उसका मुख्य या प्रधान कार्य है। ऐसी अवस्था में बलवान् साधु का संग करना विशेष आवश्यक है। इसके अतिरिक्त कर्मोन्मुखता या भोगोन्मुखता छोड़कर सेवोन्मुखता प्राप्त करने का या सेवोन्मुख होने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अतः व्यस्त, चञ्चल या हताश न होकर Living Source (प्रकटित भक्त) से वीर्यवती हरिकथा सुनकर उसे अपने जीवन में पालन करने के लिए अपनी क्षमता के अनुसार यत्न करना ही बुद्धिमत्ता या चातुर्य है। यही शास्त्र कहते हैं-
ततो दुःसगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासंगमुक्तिभिः ।।
अर्थात् बुद्धिमान् व्यक्ति को दुःसंग का त्यागकर सत्संग करना चाहिए । सन्तपुरुष अपनी वाणी के द्वारा मन की आसक्तियों को काट डालते हैं।
साधुसंग – कृपा किम्वा कृष्णेर कृपाय ।
कामादि दुःसंग छाड़ि शुद्धभक्ति पाय ।।
अर्थात् साधुसंग की कृपा या कृष्ण की कृपा से व्यक्ति दुःसंग और काम आदि का त्यागकर शुद्धभक्ति प्राप्त कर लेता है।
श्रीलप्रभुपाद
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सत्य हरिकथा का प्रचार ही जीवों के प्रति वास्तविक दया है
सदैव सत्यकथा के प्रचार में व्रती रहना। सत्-साहसी व्यक्तियों के भगवान् ही सहायक होते हैं। यदि सम्पूर्ण पृथ्वी असत् मार्ग पर चलने लग जाये तब भी हम उसका दासत्व नहीं करेंगे। पाप-प्रवृत्ति या असत्-कथा को किसी प्रकार का प्रश्रय देने के लिए जन्म नहीं ग्रहण किया है। आज भी हम वर्तमान विश्वविद्यालय की आसुरिक शिक्षा को प्रश्रय देने के लिए तैयार नहीं हैं। कलि की प्रबलता से जो विश्व की प्रगति [के नाम पर दुर्गति] हो रही है, उसे रोकना होगा। विश्व का मंगल चाहने वाले व्यक्तियों का यही एकमात्र व्रत होना चाहिए। इसी का नाम है महावदान्य एवं इसी को जीवों के प्रति दया कहते हैं। तुम निर्भीक होकर सत्य बात कहना। सत्य के प्रचार के लिए नित्यानन्द प्रभु, हरिदास ठाकुर आदि वैष्णवगण पाखण्डियों के द्वारा प्रताड़ित हुए थे। यहाँ तक कि, अनेक महाजनों को सत्य के लिए प्राण त्याग करने पड़े हैं। इसलिए डरने से नहीं चलेगा। महाप्रभु की Policy है-तृणादपि सुनीच होकर एवं वृक्ष की अपेक्षा सहनशील होकर जीवों पर दया अथवा प्रचार करना होगा। भगवान् की सत्य हरिकथा का प्रचार ही जीवों के प्रति वास्तविक दया है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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‘आर्थिक समस्या, घरेलु समस्या, राजनैतिक समस्या आदि का समाधान होने से ही व तथाकथित सामाजिक समानता होने से ही विश्व – समस्या का समाधान होगा इस प्रकार की शिक्षा हमारे गुरुदेव जी ने नहीं दी। चिकित्सा दो प्रकार की है- Symptomatic and Pathological अर्थात् रोग के लक्षणों के अनुसार एवं रोग के कारण के अनुसार । Symptomatic चिकित्सा में थोड़े समय के लिए आराम देखा जाता है किन्तु रोग का कारण समाप्त नहीं होता, इसलिए रोग के दुबारा होने की आशंका बनी रहती है। एक रोग समाप्त होता है तो दूसरा शुरु हो जाता है जबकि Pathological treatment में रोग के कारण को खोज कर उसे दूर किया जाता है, क्योंकि रोग का कारण समाप्त हो जाने के कारण उसके दुबारा होने की सम्भावना नहीं रहती। ऐसी चिकित्सा को ही उत्तम चिकित्सा कहा जाता है। उसी प्रकार विश्व-समस्या के मूल कारण को यदि समाप्त कर दिया जाए, तभी समस्या का वास्तविक समाधान होगा नहीं तो कुछेक समस्याओं का ही समाधान करते रहेंगे तो उससे नयी-नयी समस्याएँ उत्पन्न होंगी।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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कर्मी और ज्ञानी – दोनों का ही अन्तिम परिणाम है पतन
श्रीगीता में कहा गया है, “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।” भौतिक कामना होने से ही पतन होगा। श्रीचैतन्य चरितामृत कहती है- “ज्ञानी मुक्तदशा पाइनु करि’ माने। वस्तुतः बुद्धि शुद्ध नहे कृष्णभक्ति बिने।।” (ज्ञानी लोग, – ‘मुक्त दशा मुझे मिल गई है’ – ऐसा मानकर चलते हैं। वस्तुतः कृष्णभक्ति के बिना बुद्धि शुद्ध नहीं हो सकती ।) श्रीमद् भागवत में उस विमुक्तमानी (अपने को मुक्त मानने वाले) ज्ञानी लोगों के सम्बन्ध में कहा गया है, – “पतन्त्यधोऽनादृत-युष्मदंघ्रयः।” इसलिए कर्मी और ज्ञानी दोनों के ही अन्तिम परिणाम में पतन होना अनिवार्य है-उनका पुनरावर्तन (आना-जाना) समाप्त नहीं होता है। कृष्णभक्ति के बिना हृदय कभी भी शुद्धसत्त्व से उज्ज्वलित नहीं होता है – उस हृदय की कभी भी भगवान् के विश्राम-स्थल के रूप में गिनती नहीं की जा सकती है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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इस संसार में वास्तव सुख-शान्ति असंभव
श्रीगुरुपादपद्म को साधक-साधिका (यदि) भजन मार्ग के सभी अनुकूल-प्रतिकूल विषयों के बारे में बताते हैं तो भजन में निष्ठा बढ़ती है। सांसारिक दुःख-ज्वाला यंत्रणा हमेशा ही रही है और रहेगी भी यह जड़जगत दुःख से ही निर्मित है। श्रीमद्भागवत ने कहा है, – “तस्मात् इदं जगदशेषमसत्स्वरूपम्। स्वप्नाभमस्तविषणं पुरदुःख-दुःखम्।।”(यह समस्त जगत अनित्य है अतएव स्वप्न के समान अस्थायी है, ज्ञान शून्य जड़ वस्तु है एवं अति दुःखदायी है) इस माया के जगत में वास्तविक सुख-शांति हो ही नहीं सकती है, इसीलिए जगद्गुरु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कीर्तन किया है, “भाबिया देखह भाई, अमिश्र आनन्द नाई, जे आछे, से दुःखेर कारण। से सुखेर तरे तबे, केन मायादास हबे, हाराइबे परमार्थ धन।” (सोचकर देखो भाई शुद्ध आनन्द नहीं है, जो कुछ है वह दुःख का ही कारण है। तो फिर उस सुख के लिए क्यों मायादास बनोगे, खोओगे परमार्थ धन)।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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