पापों में मति होने से ही नामापराध होता है

संसारी मानव येवा आचरये पाप।
प्रायश्चित्त आछे ता’र आर अनुताप ।।

किन्तु नामबले यदि पापे करे मति ।
प्रायश्चित्त नाहि ता’र बड़इ दुर्गति ।।

बहुयमयातनादि पाइलेओ तार।
सेइ अपराध हइते ना हय उद्धार ।।

पापे मतिमात्रे हय एरूप यन्त्रणा।
पापाचारे यत दोष ता’र कि गणना ।।

संसारी व्यक्ति जब पाप करता है तो उसके लिए प्रायश्चित तथा पश्चाताप का विधान है परन्तु यदि कोई यह सोचकर कि मेरे द्वारा किया गया हरिनाम मेरे पाप धो डालेगा, ऐसे हरिनाम के बलबूते पर पाप करने की भावनाओं को हृदय में रखने से उसका कोई प्रायश्चित नहीं है, उसकी तो दुर्गति ही होगी। यहां तक की बहुत तरह की नरक यन्त्रणाओं में कष्ट पाने पर भी उसका उद्धार नहीं होता।

मन में पाप की भावना आने से जब इतना कष्ट मिलता है तो नाम के सहारे पाप कर्म करना कितना बड़ा दोष है, उसके बारे में भला क्या कहा जाये।

श्रीहरिनाम चिंतामणि
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _

बिन्दु नाहि हय सिन्धु, वामन ना स्पर्शे इन्दु,
रेणु कि भूधर-रूप पाय?
लाभ मात्र अपराध, परमार्थ हय बाध,
सायुज्यवादीर हाय हाय ॥

जल की एक बूंद सागर नहीं बन सकती। एक वामन (बौना) व्यक्ति चन्द्रमा को स्पर्श नहीं कर सकता, तथा धूल का एक कण कैसे पर्वत बन सकता है? छोटा अपराध भी भक्तिमार्ग में बाधक है, तो फिर सायुज्य मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति के बारे में क्या कहा जाए? भगवान् में लीन होने की कामना करना महान भगवद्भपराध है।

कल्याण कल्पतरु
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _

भक्त और अभक्त, मुक्त और बद्ध सिद्ध और असिद्ध एक नहीं हैं

वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ हैं श्रीगुरुदेव । उन कृष्णप्रेष्ठ श्रीगुरुदेव के उपदेशों का श्रवण नित्यकाल करना चाहिए । प्रत्यह उनके उपदेशों की आलोचना और श्रवण न कर अन्य कर्म करने पर भयंकर दुःख को बुलावा देना होगा । गुरु – वैष्णवों का अनुकरण करना या असत्संग करना अनुचित है । उनका अनुसरण करना होगा । भगवान जिनके हृदय में वास करते हैं, उनका संग ही करणीय है। भक्त और अभक्त, मुक्त और बद्ध सिद्ध और असिद्ध एक नहीं हैं। जिस प्रकार असिद्ध (बिना पके हुए) चावल खाने से नहीं चलता है, चावल सिद्ध होने पर और कुछ शीतल होने पर खाने योग्य होता है, उसी प्रकार सिद्ध भक्तों का संग ही सबसे अधिक आवश्यक और मंगलजनक है।

श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _ _

युग धर्म हरिनाम संकीर्त्तन

संकीर्त्तन का अर्थ है सम्यक् कीर्तन, सुष्ठु कीर्तन अथवा निरापराध कीर्त्तन। इसके इलावा भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला, परिकर, धाम- इन सब का कीर्त्तन भी संकीर्त्तन कहलाता है। बहुत से श्रद्धालु व्यक्तियों द्वारा मिलकर उच्च स्वर में होने वाले हरिनाम-कीर्त्तन को भी संकीर्त्तन कहते हैं।

हरिनाम जप से कीर्त्तन श्रेष्ठ है। होठों को हिलाये बिना हरिनाम जप करने से जप करने वाले का मंगल होता है। किन्तु कीर्त्तन से अपना व दूसरे का या यूँ कहें कि दोनों का मंगल होता है। दृष्टान्त स्वरूप कहा जा सकता है कि जो कमाता है, वह अपने भोजन की व्यवस्था करता है, वह अच्छा है किन्तु उसकी अपेक्षा और भी उत्तम है जो कमा कर अपना और अन्य दसों आदमियों के भोजन की व्यवस्था करता है। उच्चकीर्त्तन द्वारा वृक्ष इत्यादि व पशु-पक्षी आदि जंगम प्राणियों का भी मंगल होता है। इसके इलावा जप से तो चित्त विक्षिप्त भी हो सकता है किन्तु उच्च-संकीर्त्तन में विक्षेप की आशंका नहीं रहती। दरवाजे खिड़कियाँ बन्द करके जप करने का प्रयत्न करने पर भी पहले हमने जिन जिन विषयों का संग किया है, उन सब का चिन्तन आकर ह्लगड्डह्यद्ध करेगा। मेरी इच्छा के विरुद्ध भी अनजाने में मेरा चित्त कहीं और चला जायेगा। थोड़ी सी आवाज़ होने पर भी मेरा चित्त भटक जायेगा किन्तु उच्च-संकीर्त्तन में ध्येय वस्तु श्रीहरि में आसानी से चित्त लग सकेगा। इसलिये जप की अपेक्षा उच्च कीर्त्तन में अधिक लाभ है। विशेषतः कलियुग में जब जीव अत्यन्त विषयाविष्ट, कामातुर, व्याधिग्रस्त और बड़ी कम उम्र वाला हो गया है – ऐसे समय में हरिसंकीर्त्तन ही मंगल प्राप्ति के एकमात्र उपाय के रूप में निर्दिष्ट हुआ है :-

कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मरवैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥
(भा० 12/3/52)

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _

ऋषियों और भगवद् भक्तों में अन्तर

“ब्रहांस्तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।
यान् श्रुत्वा श्रद्धया मत्र्त्ता मुच्यते सर्वतोभयात् ।।”

नारद एक दासी के पुत्र थे। किन्तु आत्म-तत्त्व में प्रतिष्ठित श्रीवसुदेव महाराज ने उन्हें ‘हे ब्रह्मण’ कहकर संबोधित किया एवं उनसे भागवत धर्म के सम्बन्ध में जानना चाहा। श्रद्धा के साथ जिसका श्रवण करने पर सभी प्रकार के भय से मुक्ति मिलती है, उसी भागवत धर्म के विषय में वे श्रवण करने के इच्छुक हुए हैं। यहाँ जो ‘तथापि’ शब्द का व्यवहार हुआ है, उसका विशेष अर्थ है। वह क्या है? वह है श्रीनारद ऋषि जैसे महापुरुष के दर्शन मात्र से ही सब पवित्र हो जाया करते हैं। “गंगार परश हइले पश्चाते पावन। दर्शने पवित्र कर एइ तोमार गुण।।” गंगा का स्पर्श करने से पवित्रता आती है किन्तु आपके दर्शन मात्र से ही समस्त अमंगल दूर हो जाते हैं- मैं धन्य हो गया हूँ; फिर भी मैं आपसे प्रश्न पूछ रहा हूँ
भागवत धर्म के सम्बन्ध में जानना चाहता हूँ। यहाँ प्रश्न suggestive (परामर्शमूलक) हुआ है। सूत गोस्वामी से शौनकादि 60 हज़ार ऋषियों ने प्रश्न पूछा था – आप हमारे मंगल के लिए जिस विषय को उपयुक्त समझते हैं, उसी का कीर्तन करें। किन्तु श्रीवसुदेव का प्रश्न दूसरा है भागवत धर्म ही एकमात्र परम मंगल का विषय है एवं उसी के प्रति वे आकृष्ट हुए हैं, दूसरे धर्म के विषय में उनका आग्रह नहीं है। इसलिए यहाँ सोच विचारकर देखना होगा, वसुदेव का चित्त बहुत उन्नत है।

शास्त्रों में कहा गया है- “सत्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितम्” । जो विशुद्ध सत्व में अवस्थित हैं, वे ही ‘वसुदेव’ शब्द से परिचित हैं। जगत में जो सत्वगुण वर्तमान है, वह माया के आश्रित है, इसीलिए उसे विशुद्ध-सत्व नहीं कहा जा सकता है। जिस सत्वगुण से मायिक गुण विशेष रूप से दूर है, वही विशुद्ध-सत्व है। इसलिए वसुदेव का हृदय किसी भौतिक गुणवाली वस्तु से निर्मित नहीं है। साठ हजार ऋषियों के विचारों में मल था। “नासौ ऋषिर्यस्य मतं न भिन्नम्” (अर्थात् वह ऋषि ऋषि नहीं जिसका अपना मत न हो) – विभिन्न मत नहीं रहने पर कैसे ऋषि हैं? इनकी तुलना में श्रीवसुदेव महाराज के विचार बहुत उन्नत हैं। वे जीव के वास्तविक मंगल-विधान के विषय से अवगत थे। सूत गोस्वामी की तरह वसुदेव भी जीव के आत्यंतिक कल्याण की बात को लेकर विशेष रूप से जागरूक थे।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _

विश्रम्भ-सेवक का वैशिष्ट्य

श्रीगुरुपादपद्द्म आश्रितों के जीवन-सर्वस्व हैं, जीवन के जीवन हैं। जो सर्वरूप से व सब प्रकार से सेवा की पराकाष्ठा प्रदर्शन करते हैं, वे ही विश्रम्भ या स्निग्ध सेवक हैं। जो सेवा के द्वारा सेव्य का प्रीति विधान करते हुए उनका चित्त जय कर लेते हैं, वे ही वास्तव में सेवक के रूप में चिन्हित होते हैं। “गुरुर सेवक हय मान्य आपनार” (गुरु के सेवक मेरे आदरणीय हैं)- यह भाव कनिष्ठ या विश्रम्भ समस्त प्रकार के सेवकों के प्रति प्रयोज्य है; तथापि साधन-भजन के क्षेत्र में अधिकार का विचार अवश्य ही स्वीकार्य है। कोई किसी के स्नेह का पात्र तथा कोई किसी का सेव्य है। ‘परम आदरणीय जीवन स्वरूप’ सेवक-स्नेह के पात्र के रूप में वरणीय है। वहाँ पर एक दूसरे को गलत समझने का कोई अवकाश ही नहीं है, इसीलिए वहाँ पर अपराध का भी विचार नहीं आ सकता। सेवा निष्ठा, सरलता, अमायिकता (निष्कपटता), हृदयजयी-व्यवहार सभी को विस्मित कर सकता है। सेवक की यही विशेष सद्‌गुणावली है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _

निष्कपट रूप से अनुकीर्त्तन करने पर श्रील प्रभुपाद की कृपा

एक समय श्रील भक्ति प्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज ने मुझसे वार्तालाप करते हुए बताया, “श्रील प्रभुपाद से किसी विशेष सेवा-कार्य की प्रार्थना करने पर उन्होंने मुझसे कहा था, ‘आप श्रीमन्महाप्रभु तथा गौड़ीय वैष्णव-आचार्यों की वाणी का सदैव सर्वत्र प्रचार करना।’

“श्रील प्रभुपाद की बात सुनकर मैंने उनसे कहा, ‘मैं तो सम्पूर्ण रूप से निरक्षर हूँ, मैं कैसे प्रचार करूँगा?’

“श्रील प्रभुपाद ने उत्तर दिया, ‘आपने आज तक वैष्णवों के मुख से जो कुछ श्रवण किया है, उसका ही कीर्त्तन करना। सदैव अनुकीर्त्तन करने का प्रयास करना, भगवान् निष्कपट भक्त के हृदय में स्वयं प्रेरणा प्रदान करते हैं।’

“श्रील प्रभुपाद की उसी वाणी अथवा कृपा-निर्देश के बल से ही मैं निरक्षर होने पर भी सदैव निर्भीक होकर सभी स्थानों पर उनकी वाणी का कीर्त्तन करता हूँ। कभी-कभी तो देखता हूँ कि मेरे जैसे व्यक्ति के मुख से श्रील प्रभुपाद की वाणी निःसृत होकर विद्वानों तक की जिह्वा को भी स्तम्भित कर देती है। श्रील प्रभुपाद की कृपा से मुझे ग्रन्थों के नाम, श्लोक, पृष्ठ संख्या, श्लोक संख्या आदि भी स्मरण रहते हैं तथा यदि कोई मुझसे कोई प्रमाण पूछता है तो मैं उन्हें अपनी पेटी में रखे ग्रन्थों में से उस ग्रन्थ का नाम आदि बतलाकर उन्हीं से ही दुर्दैवाकर दिखला देता हूँ।”

श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज जी द्वारा सञ्चित
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _

जब भक्त यह चिंतन करता है कि किस तरह इस भक्तिमय सेवा को बढ़ाया जा सकता है, किस तरह वह एक बेहतर भक्त बन सकता है, तब भगवान जो परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, प्रत्युत्तर देते हैं।

श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी
_ _ _ _ _ _ _ _

To understand things beyond material conception, one must hear from a bona fide ācārya:

TRANSLATION: Śrī Caitanya Mahāprabhu then assured the brahmaņa, “Have faith in my words and do not burden your mind any longer with this misconception.”

PURPORT: This is the process of spiritual understanding. Acintyāḥ khalu ye bhāvā na tāms tarkeņa yojayet. We should not try to understand things beyond our material conception by argument and counter argument. Mahājano yena gatah sa panthāh: we have to follow in the footsteps of great authorities coming down in the parampara system. If we approach a bona fide ācārya and keep faith in his words, spiritual realization will be easy.

Cc. Madhya 9.195
_ _ _ _ _ _ _ _ _