बहुवाक्यविरोधेन सन्देहो जायते सदा।
उपोष्या द्वादशी तत्र त्रयोदश्यान्तु पारणम् ॥
(हरिभक्तिविलास १२/१०९ श्लोकधृत नारदीय वचन)
जहाँ पर (एकादशीके उपवास-दिनके निर्धारणके विषयमें) अनेक प्रकारके मतोंके कारण सन्देह हो तो, द्वादशी में उपवास करके त्रयोदशीमें पारण करना ही कर्त्तव्य है ॥
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मायिक जगत् हय जीव – कारागार।
जीवेर वैमुख्य – दोषे दण्ड प्रतिकार ।।
तबे यदि जीव साधु – वैष्णव – कृपाय।
सम्बन्ध – ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ।।
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ।।
यावत् सम्बन्ध – ज्ञान स्थिर नाहि हय।
तावत् अनर्थ नामाभासेर आश्रय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि यह मायिक जगत तो जीव का कारागार है। जीव की भगवद् – विमुखता नामक दोष के कारण उसको यह दण्ड देकर शोधन किया जाता है। इस परिस्थिति में यदि जीव साधु – वैष्णवों की कृपा प्राप्त करता है तो वह पुनः सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण नाम प्राप्त करता है तथा हरिनाम करते-करते सभी धर्मों के सार – स्वरूप, श्रीकृष्ण – प्रेमधन को प्राप्त करता है, जिसके सामने सायुज्य, सामीप्य आदि मुक्तियाँ तुच्छ सी प्रतीत होती हैं। जब तक किसी का सम्बन्ध ज्ञान पूरी तरह पक्का नहीं हो जाता, तब तक वह अनर्थो से रहित होकर शुद्ध हरिनाम नहीं कर सकता, ऐसी स्थिति में उसके द्वारा किया गया हरिनाम केवल मात्र नामाभास ही होता है।
श्रीहरिनाम चिंतामणि
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श्रीगुरुदेव की कृपा से हमारे समस्त अमंगल नष्ट हो जाते हैं
श्रीराधाकुण्ड के तट पर श्रीगुरुदेव का नित्य कुञ्ज है। वहाँ उन्होंने सेवा के द्वारा कृष्ण को बाँध दिया है। श्रीगुरुदेव की कृपा से ही गिरिवर गोवर्धन को प्राप्त कर सकते हैं। कृष्ण ही अन्य मूर्ति में गोवर्धन हैं। मन के धर्म से युक्त होने पर गोवर्धन का दर्शन पत्थर के रूप में होता है। श्रीमती वार्षभानवी (वृषभानुनन्दिनी श्रीमतीराधिका) जिस स्थान पर क्रीड़ा करती हैं, वह जड़जगत की मिट्टी – कीचड़ से निर्मित वस्तु नहीं है, वह दिव्य चिन्तामणिमय हैं। श्रीश्री राधामाधव की अन्तरंग सेवा प्राप्ति की आशा जिनकी कृपा से मिलती है, वे ही श्रीगुरुदेव हैं।
श्रीगुरुदेव की कृपा से हमारे समस्त अमंगल नष्ट हो जाते हैं और सब प्रकार से मंगल होता है। मापने का धर्म या जड़नीति के द्वारा कृष्ण को कदापि नहीं जान सकते । एकमात्र केवला भक्ति के द्वारा उनको जान सकते हैं । यह भक्ति भक्तश्रेष्ठ श्रीगुरुदेव की कृपा से ही प्राप्त होती है।
श्रीलप्रभुपाद
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श्रीभागवत धर्म
श्रीभागवत् शास्त्र में वर्णित धर्म को भागवत-धर्म कहते हैं या यूँ कहें कि भगवान् से सम्बन्धित जो जो भी धर्म हैं, उन्हें भागवत धर्म कहते हैं, इसीलिये भगवान् के भक्तों के धर्म को भी भागवत धर्म कहते हैं। सद्धर्म, आत्म-धर्म, सनातन धर्म और भक्ति-धर्म भी इसी के अन्य नाम हैं। श्रीभागवत् के 11 वें स्कन्ध में महाराज निमि और नवयोगेन्द्रों के संवाद में भागवत धर्म का स्वरूप और उसका आचरण विस्तार रूप से वर्णित हुआ है। नवयोगेन्द्रों में से एक कवि नामक मुनि भागवत धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुये कहते हैं ‘ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये । अजः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हितान् ॥’ (भा. 11/2/34)
अर्थात् कवि मुनि कहते है कि भगवान ने स्वयं अपने मुख से नासमझ व्यक्तियों को भी अनायास आत्मलाभ अर्थात् अपनी प्राप्ति के जो तमाम आसान-आसान उपाय बताये हैं, उन्हीं को भागवत धर्म समझना। मनु आदि ऋषियों द्वारा प्रणीत धर्म को वर्णाश्रम-धर्म कहते हैं। भागवत् धर्म के वक्ता स्वयं भगवान् हैं, इसलिये भगवान् की प्राप्ति का इससे सुन्दर, सहज व सुगम मार्ग और कोई नहीं हो सकता। आँखें बन्द करके दौड़ने से भी इस राह में न फिसलन है और न पतन ही। कारण, भागवत धर्म के आरम्भ में ही भगवान के चरणों में ली गयी शरणागति की बात है। सर्वशक्तिमान भगवान् जिनके रक्षक और पालक होते हैं, उनके पतन की आशंका भला कहाँ रह जाती है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला, सभी के लिए पाठ्य नहीं
द्वादश स्कन्ध युक्त श्रीमद्भागवत में, इसीलिए दशम स्कन्ध ही सार का सार है। क्योंकि, वहाँ अखिल रसामृतमूर्ति श्रीकृष्ण की अशेष लीला-कथाएँ ही वर्णित हैं। भले ही अज्ञानी लोगों के मंगल के लिए ही उस पारमहंसी संहिता की रचना हुई है, सत्य है, फिर भी भागवत में कथित श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएँ सभी के लिए पाठ्य नहीं हैं। इन सब लीलाओं में दो भाग देखे जाते हैं। एक अनर्थ-युक्त अवस्था में साधन-कम में चर्चा के लिए, अर्थात् वह बद्ध जीवों की अनर्थ-निवृत्ति के लिए आलोच्य है – बाकी अनर्थों से मुक्त होने के बाद आलोच्य हैं। अनर्थयुक्त अवस्था में, कृष्ण की बाल्य लीला, असुर वध, गोवर्धन-धारण इत्यादि लीलाओं की उपयोगिता है; किन्तु कृष्ण के द्वारा वस्त्र-हरण, नौकाविलास, रासलीला इत्यादि के सम्बन्ध में चर्चा, स्वयं व्यासदेव ने ही अनाधिकारियों के लिए निषेध की है। वास्तव में जो अधिकारी हैं, केवल वे ही उन लीलाओं की चर्चा कर सकेंगे। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कहा गया है, –
“नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनशत्याचरन्मौठ्याद् यथा रुद्रोऽब्धिजं विषम् ।।”
अर्थात् समर्थवान व्यक्ति के अलावा कोई ऐसा आचरण मन. से भी न करे। रूद्र (शिव) के अलावा, यदि कोई और समुद्र से निकले, विष का पान करता है तो उसकी गति जैसी होगी, वैसे ही मूर्खता वश, इन सब लीलाओं का अनुकरण करने पर उसका विनाश अवश्यम्भावी है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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Duty पालन नहीं, प्राणों के साथ सेवा करना ही सेवक का धर्म
ठाकुर जी की पूजा के अलावा अन्ये छोटे-मोटे सेवा कार्यों को भी जितना संभव हो अपना समझकर करना। मठ-मन्दिर को यदि तुम अपना नहीं समझ सकोगे तो सुष्ठु रूप से सेवा अनुष्ठित नहीं होगी। जब मठ की प्रत्येक वस्तु के प्रति तुम्हें लगाव और आसक्ति अनुभव होगी, तभी सेवक कहलाने योग्य हो सकते हो। Duty पालन करना ही सेवक का धर्म नहीं है। उसमें राजसिक भाव और जड़ जगत का आदान-प्रदान विद्यमान रहता है। सेवक अपनी इच्छा से स्वतः प्रेरित होकर, अपना समझकर, हस्-िगुरु-वैष्णवों की प्रीति के लिए मठ में जो कार्य करता है, वही वास्तविक सेवा है। उसमें प्राण हैं। सेवा-प्राण होना ही सेवक का मूल लक्षण है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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