नारायणोऽपि विकृतिं याति गुरोः प्रच्युतस्य दुर्बुद्धेः।
कमलं जलादपेतं शोषयति रविर्न पोषयति ॥

जो मूर्ख व्यक्ति गुरु-सेवासे रहित है अर्थात् दीक्षा लेकर भी गुरुसेवासे वंचित है, भगवान् भी उससे रुष्ट हो जाते हैं। जैसे – सूर्य कमलको विकसित करता है किन्तु जलरहित कमलको वही जला देता है, उसे पुष्ट नहीं करता। इस दृष्टान्तमें जल गुरु स्थानीय है, सूर्य भगवान् स्थानीय हैं तथा कमल साधक सदृश है ।

हरिभक्तिविलास
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भगवान् पूर्ण चित्-वस्तु हैं और जीव चित्-कण है। जड़-जगत् और चित्-जगत्-दोनोंकी बीच सीमापर जीवका प्रथम अवस्थान है। जो जीव यहाँ पर कृष्णके साथ अपना सम्बन्ध नहीं भूले, वे चित्-शक्तिका बल पाकर चित्-जगत्के प्रति आकृष्ट हुए अर्थात् नित्य पार्षद होकर कृष्णसेवानन्दका भोग करने लगे और जो जीव कृष्णसे विमुख होकर मायाको भोग करनेकी कामना करने लगे, मायाने अपनी शक्तिसे उन्हें अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। उसी समयसे हमें यह संसार-दशा प्राप्त हुई है। संसार दशा प्राप्त होनेके साथ-साथ जीवका सत्य परिचय अन्तर्हित हो जाता है। “मैं मायाका भोक्ता हूँ”, यह मिथ्या अभिमान जीवको विचित्र रूपसे आच्छादित कर देता है।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर
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भोगागार गृह और हरिसेवामय मठ एक नहीं हैं

गृहसेवा को भगवत् सेवा नहीं कहा जा सकता। गृहव्रतबुद्धि और हरिसेवा की प्रवृत्ति पृथक् हैं। हरिभजन कर पाने पर मठ और घर दोनों एक समान हैं। भजन न कर पाने पर दोनों स्थानों पर माया और मोह आकर हरिभजन में बाधा डालेंगे।

गृह-सेवा को हरिसेवा सोचने पर मंगल की आशा नहीं की जा सकती। अनात्मीय वस्तु पिता माता, स्त्री-पुत्र आदि के प्रति प्रीति और सेवा – बुद्धि रहने पर हरिसेवा कदापि सम्भव नहीं होती है। उसमें बँध जाने पर स्वजन-स्नेह भजनीय वस्तु हो जाएगा। ‘कौन किसका पिता, कौन किसका पुत्र’ – यह विवेक नष्ट हो जाने पर संसार दशा और अमंगल अनिवार्य है। दीक्षा ग्रहण के बाद भी यदि पिता, पुत्र, स्वदेश, स्त्री, जननी आदि हरिविमुख संग अनुकूल लगता है या उन लोगों की सेवा भगवत् सेवा लगती है, तब समझना चाहिए कि हम शुद्ध हरिभजन भूल गये हैं। इस प्रकार की भ्रान्ति और चित्त – चंचलता को छोड़कर कुछ समय Living Source (प्रकट साधु) का संग करना आवश्यक है। अन्यथा स्वजनासक्ति, पुत्रस्नेहपाश, पत्नी सहवास सुख आदि विभिन्न विपज्जनक वस्तुएँ हमें हरिभजन से नित्यकाल के लिए अलग कर देंगी। तब संसार ही हमारा आकांक्षणीय हो जाएगा। असत्संग के प्रभाव में ही गृहसेवा में हरिसेवा का भ्रम हो जाता है। ऐसे जञ्जाल से उद्धार पाने के लिए कृष्णभक्तों का संग और शास्त्र – श्रवण विशेष आवश्यक है।

श्रीलप्रभुपाद
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भक्ति ही साधन और भक्ति ही साध्य है

भगवान ही भगवान की प्राप्ति का उपाय हैं अर्थात भगवत् इच्छा ही भगवद्-प्राप्ति का उपाय है। भगवान की इच्छा का अनुवर्तन ही प्रीति कहलाती है; उसे ही भक्ति कहते हैं। इसलिये एकमात्र भक्ति द्वारा ही भगवान को पाया जाता है और कोई उपाय नहीं है
‘भक्त्याहमेकया ग्राह्यः’

भक्ति साथ में मिश्रित हो, तभी कर्म, ज्ञान एवं योग अपना-अपना फल प्रदान कर सकते हैं। किन्तु भक्ति रहित होने पर ये सब फल देने में असमर्थ हैं। जहाँ पर भागवत और वेद के वाक्यों का आनुगत्य है, वहीं पर कर्म का फल – इस लोक और उस लोक में इन्द्रिय सुख की प्राप्ति, ज्ञान का फल-मुक्ति या ब्रह्मसायुज्य की प्राप्ति और योग का फल-सिद्धि या ईश्वर-सायुज्य आदि की प्राप्ति हो सकती है। ‘भक्ति मुख निरीक्षक कर्म-ज्ञान- योग’ किन्तु वे अर्थात कर्म व ज्ञान भगवान को या भगवान के प्रेम को प्राप्त नहीं करा सकते। केवल मात्र निष्काम शुद्धभक्ति के द्वारा ही भगवान या भगवत-प्रेम प्राप्त होता है।

इसलिए भक्ति रहित सभी व्यक्ति ही लंगड़े हैं। प्रेम के द्वारा ही प्रेम की वृद्धि होती है, और किसी साधन से नहीं। भक्ति ही साधन और भक्ति ही साध्य है। जो भगवान को नहीं चाहते, और-और वस्तुएँ चाहते हैं, वे भगवान को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? ‘शुद्ध-भक्त एकमात्र भगवान को ही चाहते हैं, अन्य वस्तुओं के लिए आकाँक्षा उनके मन में नहीं होती, इसलिए वे ही भगवान को प्राप्त करते हैं। मायावादियों के विचार में शुद्ध-भक्ति नित्य नहीं है, जबकि शुद्ध-भक्ति में भगवान नित्य हैं, भक्त नित्य है और भक्ति नित्य है। जहाँ पर भगवान के स्वरूप को नहीं मानते हैं, बल्कि ऐसी धारणा करते हैं कि स्वरूप को मानने से तो वह मायिक हो जाएगा, वहाँ पर भक्ति हो ही नहीं सकती’।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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शुद्ध-नामाश्रित-व्यक्ति को नामापराध स्पर्श भी नहीं करते

शुद्धनामाश्रितजने अपराध दश।
कोनरूपे कोनकाले ना करे परश।।

नामाश्रितजने नाम सदा रक्षा करे।
अपराध कभु ता’र ना हइते पारे ।।

यतदिन शुद्ध नाम ना हय उदय।
ततदिन अपराध – आक्रमणे भय।।
अतएव नामाभासी यदि भाल चाय।
नामबले पापबुद्धि हइते पलाय ।।

शुद्ध – नामाश्रित – व्यक्ति को कभी भी एवं किसी भी रूप से शास्त्रों में वर्णित दस – नामापराध स्पर्श नहीं कर सकते क्योंकि नामाश्रित – व्यक्ति की सदा श्रीहरिनाम ही रक्षा करते हैं। उससे अपराध कभी हो ही नहीं सकता। जब तक जीव के हृदय में शुद्ध नाम उदित नहीं होता, तब तक ही अपराध होने का भय बना रहता है। इसलिए नामाभासी साधक यदि अपना मंगल चाहता है तो उसे नाम के बल पर पापबुद्धि जैसे अपराधों से दूर रहना चाहिए।

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श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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