आत्मा नित्य शुद्धधन, हरिदास अकिंचन,
योगे तार की फल घटना।
कर भक्ति-योगाश्रय,
ना थाकिबे कोन भय,
सहज अमृत सम्भावना ॥
आत्मा शाश्वत, विशुद्ध, भगवान् हरि का दास, तथा जड़ पदार्थ के कल्मष से विहीन है। योग प्रक्रिया द्वारा आत्मा को क्या लाभ प्राप्त हो सकता है? भक्तियोग का आश्रय ग्रहण करो तत्पश्चात् तुमको भय का कारण ही नहीं रहेगा। तुम सरलतापूर्वक अमृतत्व को प्राप्त करोगे।
कल्याण कल्पतरु
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अभिनय करने से मंगल नहीं होगा
हममें से प्रत्येक को अधोक्षज भगवान का सेवक बनना पड़ेगा। पुरोहित अथवा प्रतिनिधि के द्वारा सेवा-कार्य नहीं होता है। किसी – किसी सम्प्रदाय में देखा जाता है कि एक व्यक्ति ने Spokesman होकर उपासना की, और अन्य सभी व्यक्ति खड़े रहे। इसको सेवा नहीं कहा जाएगा । आचार्य के अनुगत होकर अपने को सेवा में नियुक्त करना होगा। साधुसंग, नामकीर्तन, हरिकथा श्रवण, श्रीमूर्तिपूजा आदि द्वारा मंगल होगा, किन्तु इनका अभिनय करने से मंगल नहीं होगा। यदि आत्मसमर्पण न कर इन सभी कार्यों का अनुकरण किया जाता है, तो वह केवल अभिनय है।
श्रीलप्रभुपाद
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‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष, आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
(कठ 1/2/23)
परमात्मा बहुत तर्क, मेधा या पाण्डित्य द्वारा प्राप्त नहीं होते। जो शरणागत होते हैं, उनके सामने ही परमात्मा स्वयं को प्रकाशित कर देते हैं। दुनियावी व्यक्ति (empiricist) आरोह-पथ के द्वारा अन्वेषण करते-करते अन्त में भगवान् को निर्विशेष, निराकार कहने को मज़बूर होते हैं। कारण, किसी प्रकार के Challenging mood (आरोह-पथ) से हम उन्हें स्पर्श नहीं कर सकते हैं। भगवान् नृसिंह देव द्वारा अलौकिक रूप में स्तम्भ से प्रकट होने पर भी हिरण्यकशिपु उनको भगवान् नहीं समझ पाया, उन्हें एक अद्भुत प्राणी समझ कर युद्ध करने लगा। किन्तु श्रीप्रह्लाद जी ने भक्ति के द्वारा भगवद्-रूप का दर्शन कर उनका स्तव किया। हिरण्यकशिपु ने अजय, अजर, अमर एवं प्रतिपक्षहीन अद्वितीय अधिपति होने की लालसा से सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी का स्तव कर वरदान प्राप्त किया था कि वर्तमान और भविष्य में ब्रह्मा जी द्वारा सृष्ट किसी भी प्राणी से उसकी मृत्यु न हो। किन्तु भगवान् ने ब्रह्मा जी द्वारा दिये गये वरदानों की सत्यता की रक्षा करते हुए भी अपनी सर्वशक्तिमत्ता द्वारा श्रीनृसिंह मूर्ति में आविर्भूत होकर उस का वध किया था : दूसरी तरफ, हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र विष्णु-भक्त श्री प्रह्लाद की हत्या करने के लिये असंख्य उपाय किये किन्तु उसको मारने में सफल नहीं हो पाया। श्रीभगवान् ने अपनी अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव से उस की रक्षा की थी।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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ब्रह्म में लीन हो जाना वास्तव में आत्महत्या जैसा अपराध
मान लिया जाये कि, किसी ने आत्महत्या की है। उसने क्यों आत्महत्या की? उसका कारण यह है कि, जीवित रहना किन्हीं कारणों से उसके लिए अत्यन्त कष्टदायक हो गया था। उस वेदना का अंत करने पर वह सुखी होगा – यही उसकी सोच है। यहाँ सुख ही उसका मूल उद्देश्य है। इसीलिए आनन्द या सुख प्राप्ति ही सभी का एकमात्र प्रयोजन है। लेकिन वास्तविक सुख की खोज नहीं करके, केवल दुख दूर करने की चेष्टा से, जो सुख प्राप्ति का प्रयास किया जाता है, उसमें जीव की आत्महत्या जैसे जघन्य कार्य में ही रूचि होती है। आत्महत्या करके किसी को कभी भी सुख नहीं मिलता है। इसलिए उसे पापी कहा गया है। यहाँ तक कि, वह व्यक्ति यदि डॉक्टरों के प्रयास से जीवन लाभ भी करता है, तो भी उसे Penal code (दण्ड संहिता) के कानून के अनुसार कठोर सज़ा दी जाती है। क्योंकि आत्महत्या करना Crime, Sin and Unlawful (अपराध, पाप और गैरकानूनी) है – इसमें किसी को भी अधिकार नहीं है। इसलिए जो लोग अपनी सत्ता को ब्रह्म में मिलाकर हमेशा के लिए दुखों से छुटकारा पाना चाहते हैं, भगवान् उस आत्महत्या जैसे अपराध के कारण, उनकी चेतना को आवृत और आबद्ध करके, उन्हें सुधारने के लिए, राजद्रोहियों की तरह Intern अर्थात् कैदी बनाकर रखते हैं। इसलिए सभी प्रकार के विचारों से इस सिद्धान्त पर पहुँचा जाता है कि भगवान् -उपास्य हैं, जीव – उपासक है और भक्ति ही उपासना है। इनका कभी भी नाश नहीं होता एवं श्रीकृष्ण प्रेम ही जीवों का एकमात्र प्रयोजन है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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जीव-सेवा से अधोपतन, भगवत् और भागवत-सेवा ही कर्त्तव्य
बद्ध जीव की सेवा करने से भगवान् की सेवा नहीं होती यह तत्त्व और सिद्धान्त-सम्मत विचार है। इसके ढेर सारे प्रमाण हैं; इस स्थान पर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत महाराज की हिरण के बच्चे के प्रति प्राकृत माया और जड़ासक्ति का उदाहरण ग्रहण योग्य है। मृत्यु के समय बद्ध जीव की सेवा और चिन्तन करने के फलस्वरूप उन्हें पशु जन्म लेना पड़ा। मुक्त पुरुष और सिद्ध-महात्माओं की सेवा करने से गुरु-वैष्णवों की परिचर्या के द्वारा श्रीभगवान् की सेवा अवश्य ही होगी; क्योंकि वे सर्वदा श्रीभगवान् के साथ साक्षात् सम्पर्क बनाये हुए हैं। बद्ध जीवों में कृष्ण-स्मृति के ज्ञान का अभाव होने के कारण उनके प्रति सेवा, सहायता, सहानुभूति प्रकट करना सभी बद्धत्व का कारण बन जाते हैं। बद्ध जीवों के लिए ‘सेवा’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है; परम मुक्त पुरुष और सर्वाराध्य श्रीभगवान् के लिए ही ‘सेवा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार बद्ध जीव के लिए ‘प्रेम’ नहीं- दया, सहानुभूति शब्दों का प्रयोग किया जाता है; परम प्रेमास्पद श्रीभगवान् ही ‘प्रेम’ पदवाच्य हैं। मूल Power House से disconnected घर में किस प्रकार बत्ती जलाई जा सकती है? अतएव बद्ध जीवों की सेवा के द्वारा कभी भी आत्म-कल्याण लाभ नहीं हो सकता है, बल्कि इससे अधोगति ही होती है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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असावधानी वश यदि पाप हो जाता है तो उसके प्रायश्चित की कोई आवश्यकता नहीं रहती
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि यदि कभी किसी भक्त से प्रमाद वश अथवा असावधानीवश कोई पाप हो जाये तो उसे उसके लिए प्रायश्चित की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह पाप तो क्षणिक है। वह ज्यादा समय तक भक्त के पास टिक नहीं सकता। वह क्षणिक पाप तो हरिनाम के रस के प्रवाह में बह जाता है। इसलिए असावधानीवश भक्तों के द्वारा हुये किसी भी पाप से उनकी दुर्गति नहीं होती।
परन्तु यदि कोई चंचल व्यक्ति हरिनाम के बल पर नये-नये पाप करता चला जाता है तो उसकी ये क्रिया केवल मात्र कपटता ही होगी क्योंकि इसमें उसने कपटता का आश्रय लिया हुआ है अर्थात् यदि कोई व्यक्ति यह सोच कर नये-नये पाप करता रहे कि हरिनाम के प्रभाव से मेरे समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे तो वह कपटी है। नामापराध से व्यक्ति को शोक एवं मृत्यु रूपी भय की प्राप्ति होती है। भक्ति शास्त्रों के अनुसार असावधानी और जानबूझ कर किये जाने वाले पापों में ज़मीन आसमान का अंतर है।
श्रीहरिनाम चिंतामणि
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