धने यदि प्राण दित, धनी राजा ना मरित,
धरामर हइत रावण।
धने नाहि राखे देह, देह गेले नहे केह,
अतएव कि करिबे धन ?

यदि धन ही व्यक्ति की जीवन-रक्षा में समर्थ होता तो एक धनी राजा की मृत्यु न होती। रावण इस धरा पर अमर हो जाता। यह निष्कर्ष निकलता है कि धन से देह की रक्षा नहीं हो सकती तथा जब मृत्यु आती है तो कोई भी उसे रोक नहीं सकता। ऐसे में आपके धन का क्या लाभ?  कल्याण कल्पतरु

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
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भगवान् की चैत्त्यगुरु-रूप से परिचालना सरलता के द्वारा ही गुरु-वैष्णवों के साक्षात् दर्शन और कृपा प्राप्त की जाती है।

श्रीभगवान् चैत्त्यगुरु के रूप में हमें हमेशा सावधान और परिचालित करते हैं। ज्ञान अज्ञानवश की गई दोष त्रुटियों को क्षमा करके वे विवेक (सद्बुद्धि) प्रदाता के रूप में पथ-निर्देश दिया करते हैं। ज्ञान के आलोक में ही गुरु रूपी भगवान् का दर्शन संभव है, अज्ञानांधकार से वे करोड़ों योजन दूर रहते हैं, किन्तु जिज्ञासु व्यक्ति को प्ररेणा प्रदान करना उनके भक्त्वात्सल्य का ही परिचायक है। सरल निष्कपट व्यक्ति के समक्ष वे सर्वदा प्रकाशित हैं, कपटता से उन्हें प्राप्त करना असम्भव है। श्रीभगवान् ने शास्त्र आदि में सरलता को ही ब्राह्मणता और वैष्णवता के रूप में स्वीकृति दी है और कपटता को शूद्रत्व और अवैष्णवत्व कहकर निन्दा की है। अतः सरलता के द्वारा ही गुरु-वैष्णवों के साक्षात् दर्शन और कृपा प्राप्त की जाती है।

श्रील भक्तिवेदांत वामन गोस्वामी महाराज
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विपत्ति ही सम्पत्ति

भगवद्-भक्ति में प्रगाढ़ निष्ठा ही साधक-जीवन की रक्षा करती है। श्रीभगवान् साधक की निष्ठा को और बढ़ाने के लिए ही इस प्रकार की स्थिति उपस्थित करके परीक्षा लेते हैं। परीक्षा के प्रश्न कितने ही कठिन क्यों न हो, उत्तम पठित छात्र उनमें कभी असफल नहीं होता। मुझे विश्वास है कि, इस भगवद्-परीक्षा में तुम अवश्य सफलता प्राप्त करोगे। विपत्ति ही सम्पत्ति की मुख्य नींव है। दुर्बल हृदय वाला व्यक्ति विपत्ति को अशुभ मानकर उससे निवृत्ति या मुक्ति पाने की चेष्टा करता है। सबल व्यक्ति विपत्ति आने पर उसे मंगल का कारण मानकर उसको आलिंगन कर लेता है। इसलिए तुम विपत्ति को सम्पत्ति समझना एवं उसको दृढ़ता के साथ आलिंगन करके जय कर लेना।

श्रीमद् भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज जी
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जन्म, कर्म और संग के प्रभाव से प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव गठित होता है। एक ही माता-पिता की सन्तान होने पर भी उनके जन्म, वर्तमान कर्म और सँग में थोड़ा सा अन्तर होने के कारण एवं पूर्व अर्जित कर्म में अलग-अलग होने के कारण उनके स्वभाव एवं रुचि में ही जब भिन्नता देखी जाती है तो ऐसी अवस्था में विभिन्न परिवारों, स्थानों व जातियों के लोगों के स्वभावों और रुचियों में अन्तर होना कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्वभाव और रुचि वाले लोगों के साथ रहते हुये, सब में एकता के लिये किसी उपाय को खोज निकालने की आवश्यकता है। केवल मुख से एकता के बारे में बोल कर धोखा देने से उसके परिणाम भयावह होंगे।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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हमारा कोई भी जन्म क्यों न हो, विषय सभी जन्मों में प्राप्त हो जायेंगे

श्रीहरि ही सबके प्रभु हैं, बाकी सब उनके सेवक हैं। हरिकथा श्रवण करना ही उनकी सेवा है। हरिकीर्तनकारी गुरु होते हैं तथा श्रवणकारी शिष्य होता है । श्रवणकारी Submissive (अनुगत) को होना होगा। हरिकथा सुनने के लिए आग्रह रहना चाहिए। जिस दिन हरिकथा सुनने का सुयोग नहीं मिलता, वही दिन दुर्दिन है । आपलोग श्रीमद्भागवत की कथा सुनें। श्रीमद्भागवत कह रही है-अनेक जन्मों के बाद मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है, अतः यह अत्यन्त दुर्लभहै । मनुष्य जन्म अनित्य होने पर भी परमार्थप्रद है । स्वतन्त्रता का परित्याग कर शरणागत होकर निष्कपटरूप में भजन करने पर इसी जन्म में भगवान की प्राप्ति हो सकती है। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति मृत्यु से पूर्व ही क्षणमात्र भी विलम्ब न कर चरम – कल्याण प्राप्त करने के लिए यत्न करेंगे। आहार-विहार आदि सभी जन्मों में पाये जाते हैं, किन्तु परमार्थ (भक्ति) अन्य जन्मों में नहीं पायी जा सकती । हमारा कोई भी जन्म क्यों न हो, विषय सभी जन्मों में प्राप्त हो जायेंगे । मनुष्य न होने पर भी विषय सभी जन्मों में पाये जायेंगे, इसलिए मनुष्य जन्म में श्रेय (आत्म – कल्याण) का ही अनुशीलन करना चाहिए । भगवान् की सेवा ही एकमात्र श्रेय या मंगल है । सेवा किसे कहते हैं, इसे जानने की आवश्यकता है । केवल सेव्य (भगवान) का सुख विधान ही सेवा है । श्रीहरि सबके मूल हैं, सबके प्रभु हैं, सबके उपास्य हैं, सबके एकमात्र सेव्य हैं । हम सभी उन श्रीहरि के ही सेवक हैं। उनकी सेवा ही हमारा धर्म, कार्य या कर्तव्य है । इसके अलावा हमारा अन्य कोई कर्तव्य नहीं है।

श्रीलप्रभुपाद
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sādhu sange svalpa kāla chādiyā visaya nirjane la-ile nāma ei dosa kşaya Giving up all sense objects, spend some time in the company of Vaishnavas, then chant the Holy Name in a secluded place to eradicate the above flaw. At first one should begin by chanting for half an hour in such a secluded environ-ment. By chanting or meditating in the company of advanced Vaishnavas, one can see their mood. Then, by emulating it, one will be motivated to give up his indifference to the Holy Name. Beginners should engage in meditation in a group with other devotees. The group energy strengthens concentration in the early going. As one progresses, the presence of others may disrupt one’s concentration, however. Householders should designate a specific portion of the household as a meditation center, creating an atmosphere conducive to remembering the Holy Name. If possible, a Tulasi plant should be present there.

Srila Bhaktivinode Thakur
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श्रीहरिनाम चिन्तामणि
एइ त’ तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य।
सेइ आज्ञा जेइ पाले, सेइ जीव धन्य ।।
ये ना पाले तब आज्ञा, सेइ जीव छार।
कोटी जन्मे किछुतेइ ना ह ‘बे उद्धार ।।
कुसंग छाड़िये प्रभु राख तब पाय।
तव पादपद्म बिना ना देखि उपाय ।।
हरिदास – पदद्वन्द्वे विनोद याहार।
‘हरिनामचिन्तामणि’ सदा गान ता’र।।

हरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे महाप्रभु जी! आपकी आज्ञा है कि भगवद्-भक्तों को मायावादियों का संग सावधानीपूर्वक छोड़ देना चाहिए तथा शुद्ध-नाम परायण होकर भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहना चाहिए। आपकी इस आज्ञा का जो जीव पालन करता है, वही जीव धन्य है। जो अधम जीव आपकी इस आज्ञा का पालन नहीं करता है, वह चाहे किसी भी प्रकार के साधन करे, उस जीव का करोड़ों जन्मों में भी उद्धार नहीं होगा। हे प्रभु! आप हमें कुसंग से बचाकर अपने चरणकमलों में रखिए, क्योंकि आपके पादपद्मों की कृपा के अतिरिक्त हमारे कल्याण का और कोई उपाय नहीं है।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
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