विष्णु और ब्रह्म तत्त्व में सम्बन्ध
विष्णु परतत्त्व, ताँ ‘र निर्विशेष धर्म।
सविशेष – धर्म सह हय एक मर्म ।।
विष्णुर अचिन्त्यशक्ति विरोधभजन ।
अनायासे करि’ करे सौन्दर्य स्थापन ।।
जीवबुद्धि सहजेते अति अल्पतर।
अचिन्त्यशक्तिर भाव ना करे गोचर ।।
मिजबुद्ये चाहे एक स्थापिते ईश्वर।
खण्डज्ञाने पाय, ब्रह्मतत्त्वेते अवूर ।।
विष्णुर परम पद छाड़ि’ देवार्चित ।
बह्मे बड़ हय, नाहि बुझे हिताहित ।।
चिन्मयस्वरूपज्ञान ये बुझिते जाने।
विष्णु, विष्णुनामगुण एक करि’ माने ।।
एइ त’ विशुद्ध – ज्ञान श्रीकृष्णस्वरूप।
सम्बन्ध – बुद्धिते लभि’ भजे नामरूप ।।
भगवान विष्णु ही परतत्त्व हैं, एवं सविशेष हैं, किन्तु ज्ञान – मार्गीय साधन से, “वे भगवान को निर्विशेष के रूप में अनुभव करते हैं। भगवान की अचिन्त्य शक्ति ही विचारों के इस विरोध का नाश करती है तथा साधक के हृदय में भगवान के प्रति एक सुन्दर छवि को स्थापित करती है। जीव की बुद्धि, स्वाभाविक ही अल्पकर है अर्थात् बड़ी मूढ़ है इसलिए वह परमेश्वर की अचिन्त्य शक्त्ति के भाव को ग्रहण करने में असमर्थ रहती है। अपनी बुद्धि से ईश्वर को स्थापन करने की कोशिश खण्डज्ञान होने के कारण ब्रह्मतत्त्व को भी छोटा कर देती है। मायावादी लोग तमाम देवताओं द्वारा आराधित भगवान श्रीविष्णु के परमपद को छोड़कर, एक कल्पित ब्रह्म में उलझकर भ्रमित से हो जाते हैं तथा अपना हित व अहित भी नहीं समझते। हाँ, आत्मा के स्वरूपज्ञान को जो समझते हैं अर्थात् जिन्हें अपने चिन्मय स्वरूप का ज्ञान है, वे भगवान के नाम व गुण इत्यादि को भगवान से अभिन्न मानते हैं। यही श्रीकृष्ण स्वरूप का विशुद्ध ज्ञान है, ये विशुद्धज्ञान श्रीकृष्ण से नित्य सम्बन्ध को जान लेने पर ही हो सकता है और ऐसा होने पर जीव, भगवान की हरिनाम के स्मरण व कीर्तन रूपी भक्ति को करता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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शिव और विष्णु-तत्त्व में अभेदबुद्धि कैसे करें
जड़नाम, जड़रूपगुणे येइ भेद।
से भेद चित्तत्त्वे नाइ, एइ त’ प्रभेद ।।
विष्णुतत्त्वे भेदज्ञान अनर्थ – विकार ।
शिवेते विष्णुते भेद अति अविचार ।।
जड़ीय अर्थात् दुनियावी नाम, रूप व गुण में जो भेद होता है, चिन्मयतत्त्व में वैसा भेद नहीं है। चिन्मय तत्त्व की यही तो विशेषता है। श्रीविष्णुतत्त्व में भेदज्ञान ही अनर्थ है। शिव आदि देवताओं को भगवान से स्वतन्त्र समझना बिल्कुल गलत है।
भक्त और मायावादी के आचरण
नामैकशरण येइ भक्त महाजन ।
एकेश्वर कृष्णे भजि’ छाड़े अन्य जन ।।
अन्यदेव, अन्यशास्त्र निन्दा नाहि करे।
कृष्णदास बलि’ अन्ये पूजे समादरे ।।
प्रतिदिन गृहिभक्त निर्माल्य – अर्पणे।
देवपितृसर्वजीवे करेन तर्पणे ।।
यथा यथा अन्य देवे करेन दर्शन ।
कृष्णदास बलि’ ताँरे करेन वन्दन ।।
मायावादिगण यदि विष्णुपूजा करे।
प्रसाद – निर्माल्य भक्त नाहि लय डरे ।।
मायावादी हरिनामे अपराधी हय।
ताहार प्रदत्त पूजा हरि नाहि लय ।।
अन्यदेवनिर्माल्य – ग्रहणे अपराध।
शुद्ध भक्तिसाधने सर्वदा साधे बाध ।।
तबे यदि शुद्धभक्त श्रीकृष्ण पूजिया।
अन्यदेवे पूजा करे तत्प्रसाद दिया ।।
से प्रसाद ग्रहणेते नाहि अपराध ।
सेइरूप देवार्च नाहि भक्तिबाध ।।
शुद्धभक्ते नाम – अपराधी नाहि हय।
नाम करि’ प्रेम पाय, नामे देय जय ।।
जिन भक्तों ने भगवान श्रीकृष्ण के नाम की शरण ले ली है वे अन्य देवता को छोड़कर एकमात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करते हैं। हाँ, वे अन्य देवताओं एवं अन्य शास्त्रों की निन्दा नहीं करते बल्कि वे तो सभी देवताओं को श्रीकृष्ण का दास जानकर उनका आदर करते हैं। गृहस्थ भक्त भगवान का प्रसाद अपने पितरों व देवी-देवताओं को अर्पण करके उन्हें प्रसन्न करते हैं। वैष्णव लोग जहाँ – जहाँ भी किसी देवी या देवता का दर्शन करते हैं तो वे उन्हें श्रीकृष्ण का दास जानकर प्रणाम करते हैं। मायावादी लोग यदि भगवान की पूजा करते हैं, तो वैष्णव लोग उनका दिया हुआ प्रसाद इस भय से नहीं लेते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि मायावादी श्रीहरिनाम के चरणों में अपराधी होते हैं और उनके द्वारा की गई पूजा भगवान श्रीहरि ग्रहण नहीं करते हैं। इसके इलावा और – और देवी-देवताओं का प्रसाद भी नहीं लेना चाहिए; देवी-देवताओं का प्रसाद लेने से अपराध होता है, जो कि शुद्धभक्ति की साधना में बाधा पहुँचाता है। भक्त श्रीकृष्ण की पूजा करके उनका प्रसाद और – और देवी-देवताओं को अर्पित करते हैं। देवी-देवताओं को दिया हुआ श्रीकृष्ण का प्रसाद लेने से अपराध नहीं होता तथा इस प्रकार का देवी-देवताओं का प्रसाद लेना हरिभक्ति में बाधक भी नहीं होता। शुद्धभक्त श्रीनाम के चरणों में अपराधी नहीं होते हैं। वे हरिनाम संकीर्तन करकके भगवद् प्रेम प्राप्त करते हैं तथा हमेशा हरिनाम की जय-जयकार करते रहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमद्भागवतम
१-५-१८
तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद्धमतामुपर्यधः ।
तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं कालेन सर्वत्र गभीररंहसा ।।
जो व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान तथा कोविद हैं उन्हे चाहिए कि वे उस सार्थक अन्त के लिए ही प्रयत्न करे, जो उच्चतम लोक (ब्रह्मलोक) से लेकर निम्नतम लोक (पातल) तक विचरण करने से भी प्राप्य नहीं है। जहाँ तक इन्द्रिय-भोग से प्राप्त होने वाले सुख की बात है, यह तो कालक्रम से स्वतः प्राप्त होता है, जिस प्रकार हमारे न चाहने पर भी हमें दुख मिलते रहते हैं।
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