भगवान के नाम और नामी अर्थात् भगवान में कोई अन्तर नहीं होता

आर एक कथा आछे द्वैतनिवर्त्तने।
विष्णुनाम, विष्णुरूप विष्णुगुणगणे ।।

विष्णु हैते पृथग्रूपे ना मानिबे कभु।
अद्वय अखण्ड विष्णु चिन्मयत्वे विभु ।।

अज्ञानेते यदि हय द्वैत उपद्रव ।
नामाभास हय तार, प्रेम असम्भव ।।

सद्‌गुरुकृपाय सेइ अनर्थविनाश।
भजिते भजिते शुद्धनामेर प्रकाश ।।

भेदबुद्धि के निवारण के लिए एक बात और भी है कि भगवान विष्णु का नाम, उनका रूप, उनके गुण में कोई अन्तर नहीं है, इन्हें श्रीविष्णु से कभी भी पृथक नहीं मानना चाहिए। श्रीविष्णु तत्त्व अपने आप में चिन्मय है, अखंड है तथा विभु है। विष्णु तत्त्व से न तो कोई बड़ा है और न ही कोई उसके बराबर है। अज्ञानता से भी यदि विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि में भेदबुद्धि हो जाये अर्थात् कोई भगवान को व उनके नाम आदि को उनसे अलग समझे, तो ऐसे जीव के लिए भगवद् प्रेम की प्राप्ति असंभव है। हाँ, ऐसी स्थिति में उसका नामाभास हो सकता है। सद्‌गुरु की कृपा से यदि उसकी भेदबुद्धि रूपी अनर्थ खत्म हो जाये तो उसके हृदय में शुद्ध नाम प्रकाशित हो जायेगा।

मायावादियों के कुतर्क एवं अपराध

मायावादज्ञाने द्वैत हैल प्रवर्त्तन।
अपराध हय, आर नहे निवर्त्तन ।।

मायावादी बले- बह्म हय परतत्त्व ।
निर्विशेष – निर्विकार निराकार सत्त्व ।।

“विष्णुरूप, विष्णुनाम माया कल्पित।
माया अन्तर्द्धाने विष्णु हन ब्रह्मगत ।।

ए सब कुतर्क मात्र, सत्य शून्यवाद।
परतत्त्वे सर्वशक्ति अभाव प्रमाद ।।

शक्तिमान् बह्म येइ, सेइ विष्णु हय।
नामेर विवादमात्र, वेदेर निर्णय ।।

मायावादियों की शिक्षा के प्रभाव से अगर विष्णु और विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि में भेद का भाव प्रकट होता है तो इससे श्रीकृष्ण के चरणों में अपराध होत्य है। ऐसे अपराधों से कभी निवृति नहीं मिलती। मायावादी कहते हैं- निर्विशेष – निर्विकार निराकार ब्रह्म ही परत्तत्त्व है तथा उनके अनुसार है कि शून्यवाद ही सत्य है, बाकी सब केवल कुतर्क ही हैं। मायावादियों का यह भी कहना है कि भगवान के रूप व उनके नाम आदि सब माया में ही कल्पित हैं। अर्थात् अभी जो आप भगवान का स्वरूप देख रहे हो, ये माया से बना है, जैसे ही माया हट जाएगी तो भगवान विष्णु निराकार ब्रह्म बन जाते हैं। परतत्त्व भगवान को सर्वशक्तिमान न मानना अर्थात् परत्तत्त्व में सर्वशक्ति को ना मानना ही प्रमाद है। जबकि सत्य ये है कि जो शक्तिमान ब्रह्म हैं वही भगवान विष्णु हैं, सिर्फ नाम का ही अन्तर है, यही वेदों का निर्णय है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमद्भागवतम
११-५-३३

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं. शरण्यम्।

भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ।।

हे प्रभु! आप महापुरुष हैं और मैं आपके उन चरणकमलों की पूजा करता हूँ, जो शाश्वत ध्यान के एकमात्र लक्ष्य हैं। वे चरण भौतिक जीवन की चिन्ताओं को नष्ट करते हैं और आत्मा की सर्वोच्च इच्छा-शुद्ध भगवत्प्रेम की प्राप्ती-प्रदान करते हैं। हे प्रभु! आपके चरणकमल समस्त तीर्थस्थानों के तथा भक्ति-परम्परा के समस्त सन्त-महापुरुषों के आश्रय हैं और शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तीशाली देवताओं द्वारा सम्मानित होते हैं। हे प्रभु! आप इतने दयालु है की आप उन सबों कि स्वेच्छा से रक्षा करते हैं, जो आदरपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं। इस तरह आप अपने सेवकों के सारे कष्टों को दयापूर्वक दूर कर देते हैं। निष्कर्ष रूप में, हे प्रभु! आपके चरणकमल वास्तव में जन्म तथा मृत्यु के सागर को पार करने के लिए उपयुक्त नाव हैं, इसीलिए ब्रह्मा तथा शिव भी आपके चरणकमलों की शरण की तलाश करते रहते हैं।
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