श्रील सनातन गोस्वामी विरचित

हरिभक्ति विलास
१.१२७

न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः ।
तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा ह्यहम् ।।

कोई भले ही संस्कृत वैदिक साहित्य का बहुत बडा विद्वान क्यों न हो यदि उसकी भक्ति शुद्ध नहीं है तो वह मेरा भक्त नहीं माना जा सकता। यदि कोई चण्डाल परिवार में जन्मा व्यक्ति मेरा शुद्ध भक्त है उसमें सकाम कर्म या ज्ञान को भोगने की कोई इच्छा नहीं है तो वह मुझे अत्यंत प्रिय है। उसे सभी प्रकार से सन्मान दिया जाना चाहिए और वह जो कुछ भी दे उसे स्वीकार करना चाहिए। ऐसो भक्त उसी तरह पूज्य है जैसे मैं हूँ।