श्रीमद्भागवतम
६-३-३२

श्रृण्वतां गृणतां वीर्याण्युद्दामानि हरेर्मुहः ।

यथा सुजातया भक्त्या शुद्ध्येन्नात्मा व्रतादिभिः ।।

जो निरंतर भगवान् के पवित्र नाम तथा क्रिया-कलापों का श्रवण और कीर्तन करता है वह बडी आसानी से भक्ती-योग के पद को प्राप्त कर सकता है, जो उसके हृदय पर पडी धूल को तत्काल साफ कर सकता है। ऐसी विशुद्धता वैदिक कर्मकांडीय संस्कारों एवं व्रतों के करने से कथमपि नहीं प्राप्त हो सकती।