विभिन्न-वादों के सिद्धान्त
शास्त्रेर सिद्धान्ते तबु पूज्य नारायण।
ब्रह्मा शिव सृष्टिलय कार्यर कारण ।।
वासुदेव छाड़ि’ येइ अन्यदेवे भजे।
ईश्वर छाड़िया सेइ संसारेते मजे ।।
केह बले, “विष्णु परतत्त्व बटे जानि ।
सर्वविष्णुमय विश्व वेदवाक्य मानि ।।
अतएव सर्वदेवे विष्णु अधिष्ठान।
सर्व देवार्चने हय विष्णुर सम्मान ।।
एइ त’ निषेधपर वाक्य, विधि न्य।
अन्यदेवपूजार निषेध एइ हय ।।
सर्व विष्णुमय विश्व, ए कथा बलिले।
विष्णुपूजा कैले सब देवे पूजा मिले ।।
तरुमूले जैल दिले शारवार उल्लास।
पल्लवे ढालिले जल वृक्षेर विनाश ।।
अतएव पूजि विष्णु अन्यदेव त्यजि’।
ताहातेइ अन्यदेव काये काये पूजि ।।
एइ विधि – वेदेर सम्मत चिरदिन।
दुर्विपाके एइ विधि छाड़े अर्वाचीन ।।
मायावाददोषे जीव कलि आगमने।
बहुदेव पूजे विष्णु सामान्य दर्शने ।।
एक एक देव एक एक फलदाता।
सर्वफलदाता विष्णु सकलेर पाता ।।
कामिजन यदि तत्त्व जानिवारे पारे।
विष्णु पूजि’ फल पाय, छाड़े देवान्तरे ।।
शास्त्रों के सिद्धान्त के अनुसार श्रीनारायण ही सर्व पूज्य हैं, जबकि ब्रह्माजी व शिवजी तो इस संसार की सृष्टि करने के लिए व प्रलय करने के कार्य के लिए हैं। जबकि सच्चाई यह कि भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर जो और – और देवताओं का भजन करते हैं, वे ईश्वर कर्को छोड़कर संसार में ही फसे रहते हैं। कोई कहता है कि ये ठीक है कि श्रीविष्णु तत्त्व ही परतत्त्व हैं, यह – वेद-वाणी है; इसे मैं मानता हूँ परन्तु ये सारा विश्व ही विष्णुमय है इसलिए वेद के इस सिद्धान्त के अनुसार सब देवताओं में ही श्रीविष्णु का अधिष्ठान है, अतः सभी देवताओं का अर्चन होने से वह श्रीविष्णु का ही सम्मान होता है।’ यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उपरोक्त शास्त्र सिद्धान्त है परन्तु प्ग्ने विधि का सिद्धान्त नहीं है, ये तो निषेध का सिद्धान्त है अर्थात् सारा विश्व विष्णुमय होता है या सभी देवताओं में विष्णु भगवान का अधिष्ठान होता है- इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी देवता की पूजा करने से या सब देवताओं की पूजा करने से भगवान विष्णु की पूजा हो जाती है, इसे शास्त्र – वाक्य का तात्पर्य है कि भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे वृक्ष की जड़ को सींचने से उसका तना, उसकी शास्वाएँ, टहनियाँ व पत्तों आदि का पोषण हो जाता है अर्थात् सभी को पानी मिल जाता है, जबकि पत्तों पर जल डालने से वृक्ष सूख जाता है, उसे पानी नहीं मिलता। इसलिए अन्य देवताओं की पूजा त्यागकर, श्रीविष्णु जी की पूजा करनी चाहिए, इस से अन्य देवताओं की पूजा तो अपने आप हो जाती है। प्राचीन काल से, वेद – सम्मत यह विधि ही चली आ रही थी; किन्तु दुर्भाग्यवश अब कुछ नये मूढ़ व्यक्तियों ने यह विधि छोड़ दी। मायावाद के दोष से व कलियुग के आने से लोग भगवान विष्णु को सभी देवताओं के समान जानकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने लग पड़े हैं। एक-एक देवता, एक-एक फल को देने वाला है, किन्तु श्रीविष्णु सर्वफलदाता एवं सबके पालक हैं। सकामी व्यक्ति भी यदि इस तत्त्व को समझ लें तो वे भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करके अपने-अपने फलों को पा लेगें तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा छोड़ देंगे।’
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीचैतन्य चरितामृत
मध्य लीला २२.१२८
साधुसङ्ग, नामकीर्तन, भागवतश्रवण ।
मथुरावास, श्रीमूर्तिर श्रद्धाय सेवन ।।
मनुष्य को चाहिए कि भक्त की संगती करे, भगवान् के पन्नित्र नाम का कीर्तन करे, श्रीमद्भागवत सुने, मथुरा में वास करे तथा श्रद्धा सम्मानपूर्वक अर्चाविग्रह की पूजा करे।
मध्य लीला २२.१२९
सकलसाधन-श्रेष्ठ एइ पञ्च अङ्ग ।
कृष्णप्रेम जन्माय एइ पाँचेर अल्प सङ्ग ।।
भक्ति के ये पाँच अंग सर्वश्रेष्ठ हैं। यदि इन पाँचो को रंचमात्र भी सम्पन्न किया जाय तो कृष्ण-प्रेम जागृत होता है।
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