श्रीविष्णु के विभिन्न अंशों का प्रकाश
विष्णुर ये विभिन्नांश दुइ त’ प्रकार।
पश्चात् गुण जीवे बिन्दु बिन्दु तार ।।
गिरिशादि देवे एइ गुण पन्चाशत्।
तदधिक परिमाणे सर्वदा संयुत ।।
तद्व्यतीत आर पन्चगुण अंश माने।
प्रकाशित आछे तवे विचित्रविधाने ।।
श्रीविष्णु के विभिन्न अंश दो प्रकार के हैं- साधारण जीव एवं देवता। जीव में भगवान के ही 50 गुण बिन्दु बिन्दु रूप से विद्यमान हैं जबकि शिव – आदि देवताओं में यह 50 गुण ही कुछ अधिक मात्रा में रहते हैं। भगवान का ये विचित्र सा विधान है कि इसके अतिरिक्त इन देवताओं में पांच और गुण आशिक रूप से विद्यमान होते हैं जो कि पूर्णमात्रा में केवल श्रीविष्णु जी में ही विद्यमान रहते हैं।
60 गुण से श्रीविष्णु-तत्त्व परम ईश्वर हैं
सेइ पन्च – पन्चाशत् गुणपूर्ण ताय।
विष्णुते विराजमान सर्वशास्त्रे गाय ।।
तद्व्यतीत आर पन्चगुण नारायणे।
आछे तार सत्ता कभु नाहि अन्य जने ।।
षष्टिगुणे विष्णुतत्त्व परम ईश्वर।
गिरिशादि अन्यदेव ताँहार किंकर ।।
विभिन्नांश गिरिशादि जीव श्रेष्ठतर ।
विष्णु – सर्वजीवेश्वर सर्वदेवेश्वर ।।
उक्त 55 गुण श्रीविष्णु जी में पूर्ण रूप से विराजमान हैं, ऐसा सर्वशास्त्र में कहते हैं, इसके अलावा और 5 गुण श्रीविष्णु में पूर्ण रूप से हैं किन्तु शिव आदि देवता एवं जीव में ये गुण नहीं हैं। इन 60 गुणों से ही श्रीविष्णु – तत्त्व सभी ईश्वरों के ईश्वर अर्थात् परम ईश्वर हैं। अतः शिव आदि अन्य देवी-देवता, भगवान विष्णु जी के दास दासियाँ हैं। विष्णु जी के विभिन्नांश ये देवता श्रेष्ठत्तर जीव हैं, कहने का तात्त्पर्य यह है कि भगवान विष्णु जी सभी जीवों के तथा सभी देवताओं के ईश्वर हैं इसलिए उन्हें सर्वजीवेश्वर व सर्वदेवेश्वर कहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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देवदुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्तकर यदि कृष्णभजन ही नहीं हुआ, तब तो जन्म-जन्मान्तर के लिए अत्यन्त असुविधा में ही पड़ना हुआ । ‘कृष्ण भजिबार तरे संसारे आइनु । मिछे मायाय बद्ध हये वृक्षसम हैनु ।।’ अर्थात् ‘कृष्ण भजन करने के लिए संसार में आया । परन्तु झूठी माया में बँधकर वृक्ष के समान हो गया ।’
पशु मनुष्य होते हैं हरिभजन करने के लिए परन्तु हम मनुष्य होकर भी यदि पशु के समान आहार-विहार में ही व्यस्त रहे-संसार में ही मत्त रहकर हरिभजन नहीं किया अथवा हरिभजन के नाम पर जैसा विषयी था, वैसा विषयी ही रहा, तब हमारा जीवन व्यर्थ ही बीत गया, मनुष्य जन्म पाकर कोई लाभ नहीं हुआ ।
श्रीलप्रभुपाद
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आसक्ति ही जीव के बन्धन और मुक्ति का कारण है
जीव अपने कर्मफल से भले ही अनित्य परिवेश में पड़ जाये, परन्तु उसका स्वरूपज्ञान जागृत रहने से वह अनित्य परिवेश में वास करते हुए भी अथवा अनित्य पदार्थों का व्यवहार करते हुए भी उनमें कभी भी आसक्त नहीं होता। अनासक्तभाव से ही जागतिक कर्त्तव्यों को पूरा करने में समर्थ होता है। ज़रुरत पड़ने पर विषयों या भोगों को स्वीकार करके भी वह उनमें आसक्त, मोहित या उनके वशीभूत नहीं होता है। त्रिगुणात्मक जगत् में रहने पर भी अपने निर्गुण स्वरूप का स्मरण होने के कारण निर्गुणधाम के प्रति ही उसकी प्रगति होती रहती है। आसक्ति ही जीव के बन्धन और मुक्ति का कारण है। गुणमय विषयों में आसक्ति ही बन्धन का कारण तथा निर्गुण श्रीहरि तथा उनके धाम व उनके परिकर आदि में आसक्ति ही मुक्ति और परम सुख का कारण होती है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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One gets a guru by the mercy of Sri Hari
Tulasi Dasa says “binu hari krpa milahin nahin santa.” And the other side of this is, “bina santa krpa milahin nahin hari.” In other words, by the grace of the Supreme Lord, one gets a sadhu and by the grace of the sadhu, one gets the Supreme Lord .
Both are interrelated. You see, Dhruva’s mother told him to chant the Name of the Supreme Lord with faith, even though she was not a saint. Yes, she was a patha-pradarsaka guru , not a tattvika guru or srotriya brahmanistha guru. What was the result of that? Dhruva started calling out for the Lord with faith and as a result, he met a sadhu . He met Narada Goswami. Then Narada Goswami gave him a mantra and taught him the process of bhajan . Shortly after that, Dhruva attained the Supreme Lord.
So the conclusion is that one first gets a suddha bhakta or guru by the mercy of Sri Hari and then one gets Sri Hari by the mercy of guru .
श्रीलगुरुदेव
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