पाँचवा परिच्छेद

अन्य देवी देवताओं को श्रीकृष्ण से अलग समझना भी अपराध है

जय गदाधरप्राण जाहवा – जीवन ।
जय सीतानाथ जय गौरभक्तगण ।।

हरिदास बले तबे करि’ योड़हात।
द्वितीयापराध एबे शुन जगन्नाथ ।।

श्रीगदाधर पंडित जी के प्राण श्रीगौराङ्ग. महाप्रभु जी, श्रीमती जाहवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की जय हो।

श्रीहरिदास जी हाथ जोड़कर कहने लगे- हे जगन्नाथ! श्रीगौर हरि ! अब दूसरा अपराध सुनिए।

विष्णुतत्त्व

परम अद्वय – ज्ञान विष्णु परतत्त्व ।
चित्स्वरूप जगदीश सदा शुद्ध सत्त्व ।।

गोलोकविहारी कृष्ण से तत्त्वेर सार।
चतुःषष्टि गुणे अलंकृत रसाधार ।।

षष्टिगुण नारायण – स्वरूपे प्रकाश।
सेइ षष्टिगुण विष्णु – सामान्यविलास ।।

पुरुषावतारे आर स्वांश अवतारे ।
सेइ षष्टिगुण स्पष्ट कार्य – अनुसारे ।।

परम अद्वयज्ञान श्रीविष्णु ही परमतत्त्व हैं। वे चित्स्वरूप हैं, जगदीश हैं एवं सदा शुद्धसत्त्व स्वरूप हैं। वे पर- तत्त्व के सार हैं अर्थात् गोलोक – विहारी श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ तत्त्व हैं। ये श्रीकृष्ण ही 64 गुणों से अलंकृत एवं सभी रसों के आधार हैं। 60 गुण भगवान श्रीनारायण जी के रूप में प्रकाशित हैं। ये 60 गुण ही श्रीविष्णुजी में सामान्य रूप से विलास करते हैं। पुरुषावतार एवं स्वांश अवतारों में ये 60 गुण उनके कार्यानुसार स्पष्ट रूप से झलकते हैं।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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