प्राकृत-वैष्णव नामाभास के अधिकारी हैं

प्राकृत – वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र गाय ।।

प्राकृत – वैष्णव, जो वैष्णवप्रायः या कनिष्ठ – वैष्णव हैं, वे नामाभास के अधिकारी हैं शास्त्र ऐसा कहते हैं।

मध्यम-वैष्णव ही नाम के अधिकारी है तथा वे ही नामभजन में होने वाले अपराधों पर विचार करते है

मध्यम – वैष्णव मात्र नामे अधिकारी।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी ।।

उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव ।।

निज निज अधिकार करिया विचार।
साधुनिन्दा – अपराध करि’ परिहार ।।

साधुसंग, साधु – सेवा, नाम – संकीर्त्तन।
सर्व जीवे दया-एइ भक्त आचरण ।।

मध्यम – वैष्णव ही एकमात्र हरिनाम करने के अधिकारी हैं तथा वे ही श्रीनाम – भजन में अपराध का विचार करते हैं। उत्तम वैष्णव के अपराध की सम्भावना ही नहीं रहती क्योंकि वे सर्वत्र ही श्रीकृष्ण का वैभव देखते हैं। अपने – अपने अधिकारों का विचार करके साधु – निन्दा छोड़नी चाहिए। साधु-संग, साधु-सेवा, श्रीनाम संकीर्तन तथा सभी जीवों पर दया करना ही भक्तों का आचरण है।

साधु-निन्दा होने पर क्या करना चाहिए

प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण।
तबे अनुतापे धरि’ से साधुचरण ।।

काँदिया बलिब – “प्रभो, क्षमि’ अपराध।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद ।।

साधु बड़ दयामय तबे आर्द्रमने ।
क्षमिवेन अपराध कृपा – आलिंगने ।।

एइ त’ प्रथम अपराधेर विचार।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार ।।

हरिदास – पादपद्ये भ्रमर ये जन।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ।।

असावधानी वश यदि अचानक कभी साधुनिन्दा हो जाये, तब प्रायश्चित के साथ, उस साधु के चरणों को पकड़ लेना चाहिए तथा उनके चरणों में पड़कर रोते – रोते कहना चाहिए- “हे प्रभो! मेरा अपराध क्षमा करो। हे वैष्णव ! इस दुष्ट – निन्दक पर कृपा करो।” साधु बड़े दयालु होते हैं, उनका हृदय बड़ा कोमल होता है। इतना करने मात्र से वे तुम्हें क्षमा कर देंगे तथा कृपा पूर्वक तुम्हें आलिंगन कर लेंगे।

भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपद्मों के जो भौरे हैं. ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ उनका ही जीवन है।

इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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भगवत्सेवा से भी गुरुसेवा श्रेष्ठ है । गुरुसेवा के समान सर्वश्रेष्ठ धर्म अन्य कुछ भी नहीं है-इन सभी बातों को हम शास्त्र में सुनते हैं और मुख से भी बोलते हैं, किन्तु देहासक्ति, गृहासक्ति या स्वतन्त्रता प्रबल होने के कारण हम उसे (गुरुसेवा को) भूल कर अपनी सेवा और गृहसेवा को ही बड़ा कर्तव्य मानकर उसी में ही व्यस्त हो जाते हैं। जिस प्रकार बालक क्रीड़ा में प्रमत्त रहने के कारण कर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, खाना-पीना, लिखाई – पढ़ाई आदि सबकुछ भूल जाता है, हमारी अवस्था भी उसी प्रकार की हो गयी है । दीक्षाग्रहण के बाद भी हमारी भगवत् सेवा प्रवृत्ति जग नहीं रही है, प्रतिष्ठा और अर्थसंग्रही की स्पृहा एवं स्वजनों की सेवा की प्रचेष्टा ही हमारी नाक में रस्सी बाँधकर चारों ओर घुमा रही है । सौभाग्य से सेवा का सुयोग प्राप्तकर भी हम उसे पैरों से ठोकर मार रहे हैं। इसका परिणाम कैसा विषमय है, उसे बाद में समझ पाने पर अवश्य ही हताश होंगे, इसमें सन्देह नहीं है ।

श्रीलप्रभुपाद
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