वैष्णव आभास, प्राकृत-वैष्णव, वैष्णवप्राय और कनिष्ठ-वैष्णव ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं
साधुसेवाहीन अर्चे लोकिक श्रद्धाय ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय ।।
वैष्णव – आभास सेइ, नहे त’ वैष्णव ।
केमने पाइबे साधुसंगेर वैभव ।।
अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि।
तारे कृपा करिवेन वैष्णव आपनि ।।
जिनकी साधुसेवा में रुचि नहीं है किन्तु जो लौकिक – श्रद्धा से श्रीमूर्ति का अर्चन करते हैं, ऐसे वैष्णवों को प्राकृत वैष्णव कहते हैं। ये वैष्णव वास्तविक वैष्णव नहीं होते, हाँ, ये वैष्णवों की तरह ही होते हैं; वैष्णव- आभास कहा जा सकता है ऐसे वैष्णवों को। यही कारण है कि इनकी गिनती कनिष्ठ वैष्णवों में होती है। ऐसों पर श्रेष्ठ वैष्णव लोग स्वयं ही कृपा करते हैं।
मध्यम-वैष्णव
कृष्णप्रेम, कृष्णभक्ते मैत्री आचरण।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी – उपेक्षण ।।
करिले मध्यमभक्त शुद्ध भक्त ह’न।
कृष्णनामे अधिकार करेन अर्जन ।।
श्रीकृष्ण में प्रेम, श्रीकृष्ण भक्तों से मित्रता, अज्ञानी पर कृपा एवं द्वेषी की उपेक्षा, ये चार गुण मध्यम भक्त में होते हैं। मध्यम – भक्त ही शुद्ध भक्त हैं, ऐसे भक्त श्रीकृष्ण नाम करने का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं।
उत्तम-वैष्णव
सर्वत्र याँहार हय कृष्ण – दरशन।
कृष्णे सकलेर स्थिति, कृष्ण – प्राणधन ।।
वैष्णवावैष्णव – भेद नाहि थाके ताँ ‘र।
वैष्णव-उत्तम तिनि कृष्णनामसार ।।
जिन्हें सर्वत्र ही श्रीकृष्ण – दर्शन होता है, जो सभी प्राणियों में श्रीकृष्ण का दर्शन करते हैं, श्रीकृष्ण ही जिनके प्राणधन हैं, जो वैष्णव व अवैष्णव में भेद नहीं देखते, वे ही उत्तम वैष्णव हैं। श्रीकृष्ण नाम ही उनका सार – सर्वस्व होता है।
मध्यम-वैष्णव ही साधु-सेवा करते है
अतएव मध्यम वैष्णव महाशय।
साधु – सेवारत सदा थाकेन निश्चय ।।
इसलिए मध्यम वैष्णव ही हर समय साधु-सेवा में रत रहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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कृष्णनाम के अतिरिक्त जगत में भव-व्याधि की दूसरी कोई औषधि नहीं है
भागवतधर्म – भक्तिधर्म या भगवत्सेवाधर्म ही सद्धर्म है। भगवत्सेवा और भक्तसेवा दोनों ही सद्धर्म हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सभी असद्धर्म-अनित्यधर्म या अनात्मधर्म हैं । सद्धर्म भगवान की भक्ति ही आत्मधर्म, नित्यधर्म या सनातन धर्म है ।
सभी भगवान के सेवक हैं-यह विचार आ जाने पर समदर्शी हो सकते हैं, बड़े-छोटे की भेदबुद्धि से मुक्त हो सकते हैं। सब प्रकार से शान्तिप्रद पथ का अनुसरण कर जो मंगल प्राप्त होता है, वह मंगल अन्य कुछ नहीं, भगवत् सेवा ही है।
भगवद् भक्ति ही सनातन धर्म, नित्यधर्म, परमधर्म या आत्मधर्म है । भक्ति के बिना जीव का जीवन व्यर्थ है। भगवान की भक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी चेष्टाएँ प्रभु होने की चेष्टाएँ हैं। एक ओर भक्ति है और दूसरी ओर प्रभुत्व-प्राप्ति की चेष्टारूप कर्म, ज्ञान योग और अन्याभिलाष हैं । हरिनाम कीर्तन भागवत धर्म या सद्धर्म की पराकाष्ठा है। कृष्णनाम के अतिरिक्त जगत में भव-व्याधि की दूसरी कोई औषधि नहीं है ।
श्रीलप्रभुपद
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श्रील गुरुदेव, दुनियावी विद्वान या अविद्वान नहीं होते। वे तो भगवान श्रीहरि की करुणा के साक्षात्-विग्रह होते हैं तथा हम सब जीवों को अनमोल जीवन की सही राह दिखाने व उस पर अंगुली पकड़-पकड़ कर चलाने के लिए भगवद्-धाम से इस जगत में अवतरित होते हैं।
श्रीलगुरुदेव
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किटपक्षिमृगाणां च हरौ संन्यस्तचेतसाम् ।
ऊर्ध्वामेव गतिं मन्ये किं पुनर्ज्ञानिनां नृणाम् ।।
जहाँ कीटकों, पक्षियों तथा पशुओं तक को भगवान् की दिव्य भक्ति के प्रति पूर्णतया समर्पित होने पर उच्चतम सिद्धि-पद तक ऊपर उठने का आश्वासन प्राप्त हो, वहाँ मनुष्यों में ज्ञानियों के विषय में क्या कहा जाय ?
गरुड पुराण
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