असत् संग दो प्रकार का है
असत्संगत्यागे हय वैष्णव – आचार ।
असत्संगे हय साधु – अवज्ञा अपार ।।
असत् ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्संगी एक हय ।।
योषित्संगिसंगी पुनः तार मध्ये गण्य।
ता’र संगत्यागे जीव हइवेक धन्य ।।
असत्संग का त्याग करना ही वैष्णवों का आचरण होता है। असत् का संग करने से साधु की बड़ी अवहेलना व अवज्ञा होती है। सभी शास्त्रों में असत् दो प्रकार के कहे गये हैं, उन दो में से एक स्त्री संगी है। स्त्री संगी के संगी का संग करना भी उसी के अन्तर्गत है। उसका संग त्यागने से ही जीवन धन्य हो सकता है।
स्त्री-संगी किसे कहते हैं
कृष्णेर संसारे ये दाम्पत्य – धर्म थाके।
असत् बलिया शास्त्र ना बले ताहाके ।।
अधर्म – संयोगे आर स्त्रैण – भावे रत।
योषित्संगी जन दुष्ट, शास्त्रेर सम्मत ।।
श्रीकृष्ण को केन्द्र मानकर गृहस्थ आश्रम में जो दम्पत्ति रहते हैं शास्त्रों में इसे असत्संग या स्त्रीसंगी नहीं कहा गया। अधर्म से स्त्री-पुरुष आपस में मिले हों अथवा शास्त्रानुसार अपने वर्ण में अग्नि, पुरोहित, माता – पिता व रिश्तेदारों को साक्षी के रूप में रखकर विवाह करके भी जो व्यक्ति बहुत अधिक स्त्री के पराधीन होता है, शास्त्रों में उसे स्त्री-संगी कहा गया है। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस प्रकार पुरुष के लिए अवैध स्त्री-संग व स्त्री में बहुत ज्यादा आसक्ति गलत है, उसी प्रकार स्त्री के लिए भी अवैध पुरुष का संग अथवा अपने पति से बहुत ज्यादा आसक्ति गलत है।
दूसरे प्रकार का असत् संग; तीन प्रकार के कृष्ण-अभक्त
कृष्णेते अभक्त – असत् द्वितीय प्रकार।
मायावादी, धर्मध्वजी, निरीश्वर आर ।।
एक और प्रकार का असत्संग होता है वह यह है कि जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं हैं, ऐसे व्यक्तियों का संग। अर्थात् जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं हैं ऐसे अभक्त लोगों के संग को भी असत्संग कहते हैं। ये श्रीकृष्ण – अभक्त संग तीन प्रकार के होते हैं- मायावादी, धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी व्यक्तियों का संग।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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